भारत में अधिकांश सरकारी और निजी स्कूली बोर्डों के 10वीं और 12वीं के नतीजे आ चुके हैं. इन अंकों के बोझ तले स्कूली शिक्षा बुरी तरह डगमगाती दिख रही है.
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मई और जून के महीने ज्यादा से ज्यादा अंक ले आने की होड़ और आकुलता के महीने हैं. 90 फीसदी से ऊपर अंक लाने वाले छात्र और परिजन स्वाभाविक रूप से गदगद देखे जाते हैं, उससे कम अंक वालों में निराशा और चलो कोई बात नहीं का भाव रहता है, 50-60 फीसदी अंकों को गनीमत समझा जाता है कि साल बचा और अंकीय आधार पर 'फेल' रह जाने वालों के तो मानो सपने ही बिखर जाते हैं. ऐसे छात्र और उनके परिजन सदमे और निराशा में घिर जाते हैं. ऐसे नाजुक अवसरों का अवसाद आत्महत्या की ओर भी धकेल देता है.
सफलता का उल्लास स्वाभाविक है, अपने निजी दायरे में सफलता के जश्न में भी कोई हर्ज नहीं. मुश्किल तब आती है जब इस जश्न को विज्ञापन ढक लेते हैं. कोचिंग सेंटर और स्कूल अपने अपने दावों और अपनी अपनी उपलब्धियों की इंतहाई पब्लिसिटी कराते हैं. इनमें 97, 98, 99 प्रतिशत अंक लाने वालों की तस्वीरें छापी जाती हैं और एक तरह से ये बताने की कोशिश की जाती है कि फलां कोचिंग या फलां स्कूल की बदौलत ही सफलता मिली. डॉक्टरी और इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं के नतीजे आने पर तो अखबार विज्ञापनों से पाट दिए जाते हैं.
मीडिया में भी श्रेष्ठतम अंकों की कवरेज की लालसा तीव्र रहती है. श्रेष्ठता और सफलता का ऐसा हाहाकारी उत्सव हैरान भी करता है और सोचने को विवश भी कि अंकों की इस औत्सविक बेला के हाशिए पर उदासी और अवसाद में घिरे लोग भी तो होंगे. इस तरह हमारी स्कूली शिक्षा पद्धति चाहे अनचाहे सफल और विफल का विभाजन कर देती है. यह बंटवारा आगे बना रहता है. उच्च शिक्षा से लेकर प्रतियोगी परीक्षाओं और फिर नौकरियों और पदोन्नतियों और अन्य सफलताओं तक. शिक्षा के निजीकरण ने इस विभाजन को और तीखा और घातक बना दिया है.
साइंस पढ़ने के लिए 8 सबसे अच्छी जगह
प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट्स असेसमेंट ने 72 देशों के करीब साढ़े पांच लाख स्टूडेंट्स के बीच सर्वे के बाद बताया है कि साइंस की पढ़ाई सबसे अच्छी कहां होती है.
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नंबर 8. वियतनाम
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नंबर 7. कनाडा
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नंबर 6. मकाऊ, चीन
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नंबर 5. फिनलैंड
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नंबर 4. ताईवान
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नंबर 3. एस्टोनिया
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नंबर 2. जापान
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नंबर 1. सिंगापुर
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दुनिया का सबसे बड़ा स्कूली ढांचा भारत के पास है. प्राइमरी, सेकेंडरी लेवल पर कमोबेश सौ फीसदी नामांकन पर गद्गद् तो हुआ जा सकता है लेकिन उसका गुणात्मक मूल्यांकन करने पर तस्वीर इतनी रौनकदार नहीं रहती. लेकिन आगे चलकर यह अनुपात गिरने लगता है और उच्च शिक्षा के नामांकन में भारी गिरावट आने लगती है. प्राथमिक शिक्षा के हाल पर एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (एसर) 2017 का सर्वेक्षण इस हकीकत को बयान करता है कि 96 फीसदी नामांकन होने के बावजूद बच्चों का शैक्षिक स्तर संतोषजनक नहीं है.
और अब तो सरकारी स्कूलों से भी पलायन की स्थितियां तीव्र हो गई हैं. एक रिसर्च के मुताबिक 2010-11 से 2015-16 के पांच साल के दरम्यान निजी स्कूलों में एक करोड़ सत्तर लाख बच्चों ने दाखिला कराया तो सरकारी स्कूलों ने एक करोड़ तीस लाख बच्चे गंवा दिए. सरकारी स्कूलों में बच्चों का औसत नामांकन 122 से 108 पर खिसक आया. देश की कुल आबादी में 28 प्रतिशत स्कूली बच्चों का है. डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन के मुताबिक 65 फीसदी बच्चे, सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं.
लेकिन अगर पलायन का यह ट्रेंड बन रहा है तो सोचने वाली बात है. मुफ्त शिक्षा छोड़कर मोटी फीस वसूलने वाले निजी स्कूलों में दाखिला लेने की होड़ क्यों बढ़ रही है. यहां तक कि दूर देहातों और गांवों से भी लोगों के पलायन का एक प्रमुख कारण अपने बच्चों की शिक्षा का है. उत्तराखंड जैसे राज्यों में देखने को मिलता है कि गढ़वाल और कुमाऊं के दूर पहाड़ों से लोग अपने बच्चों को जिला मुख्यालयों या देहरादून के निजी स्कूलों में दाखिले के लिए भटकते हैं. जाहिर है क्वालिटी शिक्षा और बेहतर भविष्य की आकांक्षा उन्हें शहरों की ओर लाती है.
अजब गजब डिग्रियां
ये ऐसी डिग्रियां हैं कि नाम सुनकर एक बार तो आप सोचेंगे, इसकी पढ़ाई कैसे हो सकती है. पर पढ़ाई तो होती है, देखिए...
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सर्फ साइंस एंड टेक्नॉलजी
कॉर्नवल कॉलेज में दो साल का कोर्स है जिसमें सर्फिंग के बारे में पढ़ाया जाता है.
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कंटेंपररी सर्कस एंड फिजिकल परफॉर्मेंस
बाथ की स्पा यूनिवर्सिटी में यह कोर्स है. इसमें खूब थ्योरी होती है. सर्कस के दर्शन से लेकर एक्रोबेटिक्स तक की पढ़ाई होती है.
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टर्फ ग्रास साइंस
पेन्सिल्वेनिया की पेन स्टेट यूनिवर्सिटी में टर्फ ग्रास साइंस की डिग्री होती है. यानी घास कैसे उगाते हैं. कहां कौन सी घास उगाई जा सकती है आदि.
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इंटरनेशनल स्पा मैनेंजमेंट
डर्बी यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं कि स्पा क्या होती है, कैसे काम करती है और अच्छी स्पा कैसे चलाई जा सकती है. मालिश की तकनीक और स्वस्थ खानपान की जानकारी भी इस कोर्स का हिस्सा है.
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कुठपुतली कला
कनेक्टिकट यूनिवर्सिटी में एक डिग्री कोर्स सिर्फ कठपुतलियों पर है. उनका इतिहास, विज्ञान और भूगोल सब कुछ इस कोर्स में सीख सकते हैं.
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थीम पार्क इंजीनियरिंग
कैलिफॉर्निया स्टेट लॉन्ग बीच में पढ़ाया जा रहा है कि थीम पार्क में काम कैसे होता है. झूले कैसे, कहां किस तरह लगाए जाते हैं आदि.
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द बीटल्स
बीटल्स के गृह नगर लिवरपूल की होप यूनिवर्सिटी में इस मशहूर म्यूजिक बैंड पर एमए किया जा सकता है.
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बेकिंग टेक्नॉलजी मैनेजमेंट
लंदन की साउथबैंक यूनिवर्सिटी में केक बनाने को लेकर सारी बातें आप डिग्री कोर्स में पढ़ सकते हैं.
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विटीकल्चर और ओएनोलॉजी
ब्रिटेन के प्लंपटन कॉलेज में तीन साल की पढ़ाई होती है कि परफेक्ट वाइन कैसे बनाई जाए.
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वाइकिंग स्टडीज
यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन में वाइकिंग्स के बारे में तीन साल की पढ़ाई होती है. वाइकिंग्स 8वीं से 11वीं सदी के बीच स्कैंडेनेवियन देशों में हमला करने वाले लुटरों को बोलते थे.
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प्रोफेशनल टेनिस मैनेजमेंट
दुनिया में कई जगह यह डिग्री होती है. जर्मनी और अमेरिका में कई यूनिवर्सिटी यह कोर्स कराती हैं जैसे मिशिगन की फेरिस स्टेट यूनिवर्सिटी.
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ये हालत तब है जब सार्वभौम प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिए करोड़ों रुपये का देशव्यापी सर्व शिक्षा अभियान केंद्र सरकार चला रही है. माध्यमिक शिक्षा का अभियान अलग है. इसके बावजूद न सिर्फ कुशल टीचरों का अभाव बना हुआ है, बल्कि स्कूली ढांचा भी जर्जर है. भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का महज तीन प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च करता है और इसमें भी करीब 80 फीसदी, अध्यापकों के वेतन, प्रशिक्षण और सीखने की सामग्री पर व्यय हो जाता है. अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज के 2013 के एक अध्ययन के मुताबिक उत्तर प्रदेश में टीचरों का वेतन भारत के प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से चार या पांच गुना ज्यादा है. और राज्य के प्रति व्यक्ति जीडीपी से करीब 15 गुना है. भारत के पड़ोसी देशों और ओईसीडी देशों से कहीं अधिक है. सरकारी और सरकार द्वारा सहायता प्रदत्त निजी स्कूलों में भी अंकों की वैसी होड़ मची है जैसी हम आईसीएससी या केंद्र सरकार के सीबीएसई बोर्ड के स्कूलों में देखते हैं.
कठिन परिस्थितियों में श्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले छात्रों की उपलब्धि बेशक सराहनीय और अनुकरणीय है लेकिन ये भी देखना चाहिए कि वे इन अंकों के बोझ से न दबें रहें और अपना भविष्य अंकों की होड़ के हवाले न कर दें. और वे ऐसा तभी कर पाएंगें जब शिक्षा पद्धति में कुछ ऐसे बदलाव हों जिनका संबंध रैंकिंग और मेरिट से ज्यादा समान और अधिकतम अवसरों के निर्माण पर हो और योग्यताओं के पैमाने इस लिहाज से निर्धारित किए जाएं जहां सिर्फ अंकों का ही बोलबाला न हो. आदर्श के तौर पर तो वैसे यह बात आकर्षक लगती है लेकिन यही काम तो सरकारों और नीति निर्माताओं का है कि वे आदर्शों को व्यवहार में ढालें. स्कूली शिक्षा को करीकुलम, बस्ते और अंकों के भारी बोझ से मुक्त करना हर हाल में जरूरी है. शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अधिक छात्रोन्मुख बनाए जाने चाहिए.
क्यों खास है फिनलैंड का शिक्षा मॉडल
शिक्षा और साक्षरता के मामले में विकसित देशों में फिनलैंड का स्थान काफी ऊंचा है. इसका कारण फिनलैंड की असाधारण शिक्षा प्रणाली को बताया जाता है. देखिए क्या हैं वे खास बातें.
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देर से शुरुआत
अंतरराष्ट्रीय स्कूलों की रैंकिंग में लगातार टॉप पर रहने वाले फिनलैंड के स्कूलों की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को आदर्श माना जाता है. पहला कारण बच्चों को ज्यादा लंबे समय तक बच्चे बने रहने देना है. यहां बच्चे करीब सात साल की उम्र में स्कूल जाना शुरु करते हैं जबकि भारत में 3 साल में.
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खेल खेल में पढ़ाई
बच्चों को हर घंटे के हिसाब से कम से कम 15 मिनट खेल के मैदान में बिताने ही होते हैं. ऐसा पाया गया है कि खेल के बाद बच्चों का पढ़ाई में काफी ध्यान लगता है. जिसको ध्यान में रखते हुए फिनलैंड में बच्चों को लगातार कक्षा में नहीं बैठाया जाता.
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परीक्षा का बोझ नहीं
फिनलैंड का राष्ट्रीय शिक्षा बोर्ड बताता है कि "शिक्षा का जोर परखने से अधिक सिखाने पर है." यहां हाई स्कूल में स्कूल छोड़ने के पहले एक अनिवार्य परीक्षा देनी होती है. उसके पहले की क्लासों में शिक्षक बच्चों के असाइनमेंट पर विस्तार से केवल अपना फीडबैक देते हैं, कोई ग्रेड या अंक नहीं.
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शिक्षक का सम्मान
फिनलैंड में शिक्षकों को नए नए प्रयोग करने की पूरी आजादी होती है. शिक्षक का पेशा बहुत इज्जत से देखा जाता है और इसके लिए आपको कम से कम मास्टर्स डिग्री लेना जरूरी होता है. ओईसीडी का सर्वे दिखाता है कि शिक्षक बच्चों पर होमवर्क का बोझ भी नहीं डालते. फिनलैंड के किशोर हफ्ते में औसतन 2.8 घंटे ही होमवर्क में लगाते हैं.
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हर हुनर की कीमत
फिनलैंड में 1960 के दशक में नए शिक्षा सुधार लाए गए. यह सबके लिए मुफ्त और उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा मुहैया कराने के सिद्धांत पर आधारित है. यहां हर बच्चे पर ध्यान देकर उसके किसी खास हुनर को पहचानने और उसे बढ़ावा देने पर जोर होता है.
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डिजिटल दुनिया के लिए तैयार
दुनिया में कुछ ही देशों में बच्चों को डिजिटल युग के लिए ठीक से तैयार किया जा रहा है. फिनलैंड उनमें से एक है क्योंकि 2016 तक ही यहां के सभी प्राइमरी स्कूलों में कोडिंग उनके पाठ्यक्रम का एक मुख्य विषय होगा. कोडिंग की मदद से ही कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, ऐप और वेबसाइटें बनाई जाती हैं.
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मुफ्त पर बहुमूल्य शिक्षा
फिनलैंड में केवल स्कूल ही नहीं बल्कि कॉलेज की पढ़ाई भी मुफ्त है. यहां प्राइवेट स्कूल नहीं होते. धीमी गति से सीखने वाले बच्चों के लिए खास संस्थान हैं. सालाना करीब दो प्रतिशत बच्चे इन विशेष संस्थानों में जाते हैं.