दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ की चादर को चीरती जा रही एक दरार वहां रिसर्च स्टेशनों को खतरे में डाल रही हैं. अंटार्कटिक की यह दरार बढ़ते बढ़ते बर्फीली चादर को फाड़ सकती है, जिससे कई ग्लेशियर समुद्रों में बह निकलेंगे.
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अंटार्कटिक में ब्रिटिश रिसर्च स्टेशन हैली सिक्स को ट्रैक्टरों और बुलडोजरों की मदद से 23 किलोमीटर दूर जमीन पर ले जाया जा रहा है. हैली सिक्स बर्फ की विशाल चादर पर खड़ा है. लेकिन वहां एक बड़ी दरार पड़ चुकी है. यह दरार लगातार बढ़ती जा रही है. और खतरा यह है कि दरार यहां बर्फ की चादर को तोड़कर हिमखंड बना सकती है.
जर्मनी के अल्फ्रेड-वागनर इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर बेर्नहार्ड डिकमन कहते हैं, "इस दरार के नतीजे निश्चित तौर पर स्टेशन पर दिखेंगे. स्टेशन जिस जगह पर है, अगर बर्फ टूटी तो स्टेशन भी उसी के साथ बह जाएगा.”
जर्मनी का अंटार्कटिक रिसर्च स्टेशन नॉयमायर 3 भी बर्फ पर टिका है. लेकिन ये छोटा और ज्यादा स्थिर है. जब बर्फ टूटती है तो स्टेशन जमीन पर बना रहता है. दुर्गम महाद्वीप के भीतरी हिस्सों में भी बर्फ टूट रही है और लगातार तट की तरफ बह रही है. ये प्रक्रिया कितनी तेज होगी, यह हिमखंड के आकार और समुद्र पर निर्भर करता है.
प्रोफेसर बेर्नहार्ड डिकमन कहते हैं, "जब इतनी बर्फ टूटती है तो अस्थिरता आएगी ही. फिर संतुलन बिगड़ने लगता है. और इसका मतलब है कि पिछले इलाकों वाली बर्फ मुक्त होकर समुद्र में बहेगी. समुद्र के जलस्तर के लिए बर्फ की चादर टूटी तो कोई समस्या नहीं है. हिमखंड बहने लगता है. जब ये टूटता है तो भी जलस्तर ऊपर नहीं जाता. लेकिन जो कुछ भी पीछे से आ रहा है, वह जलस्तर को बढ़ाता है.”
पास की बहुत सारी आइस शीट्स बड़े पैमाने पर तबाह हो चुकी हैं. वैज्ञानिकों को 2002 में सामने आए संकट के लौटने की आशंका है. तब कुछ ही हफ्तों के भीतर बर्फीले इलाके लार्सन-बी का दो तिहाई हिस्सा छोटे छोटे हिमखंडों में बंट गया था. कुल मिलाकर 2,600 वर्गकिलोमीटर जितना इलाका समंदर में घुल गया था.
आर्कटिक में जर्मन रिसर्च के 30 साल
1991 में जर्मनी ने श्पित्सबेर्गेन में अपना रिसर्च बेस स्थापित किया - जो पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव के पास स्थित दुनिया की आखिरी आबादी वाली जगहों में से एक है. देखिए आखिर किन चीजों का पता लगाने के लिए वहां बसे हैं रिसर्चर.
तस्वीर: DW/I. Quaile
आर्कटिक नॉर्थ की जीवित साइंस लैब
यहां बसाई गई एक छोटी सी बस्ती में 11 देशों के रिसर्च स्टेशन हैं. रंग-बिरंगी इमारतों में से "ब्लू हाउस" 30 सालों से जर्मनी के आर्कटिक रिसर्च का बेस केंद्र है. यहां के निवासी इस स्वालबार्ड रेनडियर को भी रिसर्चरों के आने जाने की आदत पड़ चुकी है.
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जर्मनी और आर्कटिक रिसर्च
2003 में जर्मन आर्कटिक रिसर्च की शुरुआत करने वाले कार्ल कोल्डेवे के नाम पर इस "ब्लू हाउस" का नाम कोल्डेवे स्टेशन रखा गया. जर्मन रिसर्च एजेंसी अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट ने फ्रांस के पॉल एमिली विक्टर पोलर इंस्टीट्यूट के साथ मिल कर यहां संयुक्त रिसर्च बेस चलाया. दोनों देशों के वैज्ञानिक गर्मी के महीनों में यहां रह कर काम करते हैं.
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रंग-बिरंगे बेस
20वीं सदी की शुरुआत में कोयले की खान के पास के इलाके में कुछ लोगों ने यहां रहना शुरु किया. बाद में यह मछुआरों का ठिकाना बना, फिर पर्यटकों को यहां आने के लिए आकर्षित करने के लिए एक होटल भी बना. लेकिन ये सारी कोशिशें कारगर नहीं हुईं. और अंतत: इस जगह का सबसे अच्छा इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय आर्कटिक रिसर्च विलेज के तौर पर शुरु हुआ. जाड़ों में यहां कम से कम लोग रह जाते हैं.
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सुरम्य इतिहास
इस इलाके नाई अलेसुंड में इतिहास के कई नमूने भी दिख सकते हैं. यहां कॉन्ग्सफोर्ड नदी के किनारे बने पुराने रेल ट्रैक बहुत खूबसूरत लगते हैं. वीकेंड पर थोड़ा खाली समय मिलने पर रिसर्चर यहां बने पुराने कैफे में पहुंचते हैं तो इस रंग बिरंगी जगह में रौनक आ जाती है.
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माउंट जेपलिन
रहने की जगह से ऊपर जाने पर माउंट जेपलिन स्थित है जहां विश्व के पर्यावरण में आ रहे बदलावों पर नजर रखने वाली ऑब्जर्वेटरी है. प्रदूषण स्रोतों के बहुत दूर स्थित यह ऑब्जर्वेटरी दुनिया भर के प्रदूषण से जुड़ी जरूरी सूचनाएं इकट्ठा करती है. इसके आंकड़ों पर असर ना पड़े इसलिए ज्यादा लोगों को यहां जाने नहीं दिया जाता और ना ही गांव में मोबाइल का इस्तेमाल कर सकते हैं.
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कौन मापता है यहां CO2
ऑब्जर्वेटरी के भीतर मौजूद कई तरह के उपकरणों में से एक वातावरण के कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा की अहम गणना करता है. इसके अलावा हवाई का मौना लोआ दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा माप केंद्र है. वायुमंडल में ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा से ग्लोबल वॉर्मिंग को समझने में मदद मिलती है.
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आर्कटिक में तकनीकों का ट्रायल
गर्मी के महीनों में वैज्ञानिक यहां कई तरह की नई नई तकनीकों का परीक्षण कर पाते हैं. इनमें बर्फ और बर्फ के बनने और पिघलने की प्रक्रिया को मापना एक महत्वपूर्ण रिसर्च है. बर्फ के पिघलने से बहुत सारा पानी आ जाता है. और इन रिसर्चरों का कैमरा सीधे उसी पानी में जा गिरा.
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सुदूरतम उत्तरी मरीन लैब
सन 2005 में यहां किंग्स बे मरीन लैब खोली गई. मरीन इकॉलजी पर रिसर्च के लिए बनी यह धरती की सबसे उत्तरी लैबोरेट्री है. इसके अलावा यहां समुद्रविज्ञान पर खास रिसर्च करने दुनिया भर के वैज्ञानिक पहुंचते हैं.
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क्लाइमेट चेंज और अम्लीय सागर
क्लाइमेट चेंज के कारण हमारे समुद्र अम्लीय भी होते जा रहे हैं. इस लोकेशन पर वैज्ञानिक पता लगा रहे हैं कि इस बढ़ती एसिडिटी का समुद्री जीवों पर क्या असर पड़ रहा है. जर्मन वैज्ञानिक यहां पानी में "मीजेकॉस्म्स" को डालते हुए. यह उपकरण समुद्री पानी में एक बंद लैब की तरह काम करता है. पीछे दिखता ग्रीनपीस का जहाज यहां लॉजिस्टिक मदद मुहैया कराता है.
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जिंदा रहने की जद्दोजहद
गर्मियों में भी इस आर्कटिक इलाके का पानी बर्फ सा ठंडा ही रहता है. अगर इस पानी में गिर पड़े तो बहुत जल्दी किसी व्यक्ति की मौत हो सकती है. यह नारंगी रंग के सर्वाइवल सूट हर वक्त पहनना जरूरी है. इसके अलावा किसी भी दल के लीडर को अपने साथ राइफल भी रखनी पड़ती है, जो पोलर बियर जैसे बड़े खतरनाक ध्रुवीय जीवों से सुरक्षित रखे.
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अंटार्कटिक में जहां ये बर्फीली चादरें हैं, वहां जलवायु परिवर्तन खासा असर डाल रहा है. ठंडे इलाकों की बर्फ भी पानी पानी हो रही है. कई वैज्ञानिक इसके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार ठहराते हैं. यह दोतरफा असर है. पश्चिमी अंटार्कटिक में गर्म पानी की धारा बर्फ को नीचे से काट रही है. ऊपर की बर्फ पिघलने से तालाब से बन रहे हैं. इस समय विशेषज्ञों के लिए भी यह कहना मुश्किल है कि यहां आने वाले दिनों में दरार पड़ी बर्फ का व्यवहार कैसा होगा.