अंतरराष्ट्रीय ताकतों के चंगुल से मुक्त होगा मालदीव?
२४ सितम्बर २०१८भारतीय उपमहाद्वीप के दक्षिण पश्चिम में मौजूद मालदीव 1200 से ज्यादा छोटे बड़े द्वीपों का समूह है जिसमें ज्यादातर वीरान हैं. नीले पानी की लहरों वाले खुबसूरत समुद्री किनारे इसे दुनिया भर के सैलानियों की पसंद बनाते हैं लेकिन कई देशों की इसमें दिलचस्पी की कुछ और वजहें हैं. हिंद महासागर तक पहुंचने के एक अहम रास्ते में मालदीव की मौजूदगी उसे कई देशों के लिए खास बनाती है. भारत और श्रीलंका मालदीव के सबसे नजदीकी पड़ोसी है और 1988 में ऑपरेशन कैक्टस के बाद से ही भारत मालदीव का बड़ा सहयोगी देश रहा है.
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अपनी तमाम जरूरतों के लिए मालदीव भारत की जमीन का इस्तेमाल करता रहा और यह सिलसिला शायद यूं ही चलता रहता अगर चीन ने यहां बेल्ट एंड रोड परियोजना के तहत अपने पांव ना पसारे होते. पांच साल पहले मालदीव के राष्ट्रपति बने अब्दुल्ला यमीन अब्दुल्ला गयूम को चीन की परियोजनाओं में संभावनाओं का संसार नजर आया और उन्होंने अपने देश का दरवाजा चीनी कंपनियों के लिए खोल दिया. चीन ने मालदीव में हाउसिंग प्रोजेक्ट से लेकर पावर प्लांट, पुल, वाटर और सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से लेकर होटल और तमाम दूसरी परियोजनाओं में निवेश करना शुरू किया. अनुमान है कि यह निवेश मालदीव की जीडीपी के करीब 40 फीसदी तक पहुंच गया है.
चीन का निवेश बढ़ने के साथ ही भारत के मालदीव से रिश्ते में तनातनी दिखने लगी. राष्ट्रपति यमीन साफ तौर पर अपनी पूर्ववर्ती सरकारों की नीतियों और भारत से दूर जाने लगे. यमीन को चीन से मदद जरूर मिली लेकिन अपने ही देश में उनके विरोधियों की तादाद भी बढ़ गई. विरोध बढ़ा तो यमीन ने अलोकतांत्रिक तरीकों को भी अपनाने से गुरेज नहीं किया और इसका नतीजा इसी साल फरवरी में आपातकाल के रूप में नजर आया.
हालांकि देश में बीते 3-4 सालों से ही उथल पुथल चल रही थी. राष्ट्रपति यमीन ने विरोध करने वाले नेताओं को गिरफ्तार करने और देश से निर्वासित करने के अलावा लोकतांत्रिक प्रक्रिया को भी ध्वस्त करने की पूरी कोशिश की. इन सब कार्रवाइयों के कारण चुनाव से पहले विपक्ष को एकजुट होने का बहाना मिल गया और अब चुनाव में सत्ताधारी दल की हार हुई है.
लोगों को विपक्ष की एकजुट ताकत पर तो भरोसा था लेकिन आशंका थी कि यमीन अपनी चालबाजियों के दम पर कहीं जीत ना जाएं. जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और मालदीव की राजनीति पर बारीक नजर रखने वाले एसडी मुनि का कहना है कि यमीन ने कोशिश तो पूरी की लेकिन वो कामयाब नहीं हो पाए.
डीडब्ल्यू से बातचीत में एसडी मुनि ने कहा, "नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं. विपक्ष की एकजुट ताकत पर किसी को संदेह नहीं था मसला ये था कि यमीन अपनी कोशिशों में कामयाब होते हैं या नहीं. ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग और देश के सुरक्षाबलों ने उनका साथ नहीं दिया और यही वजह है कि उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. नतीजे आने के बाद भी उन्होंने अपनी तरफ से कुछ कोशिशें की लेकिन जब सफलता नहीं मिली तब जा कर हार को कबूल किया."
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यमीन ने हार कबूल करने के बाद कहा है कि वह सत्ता छोड़ देंगे हालांकि उनके इरादों पर अब भी विश्लेषक आशंका जता रहे हैं. दूसरी तरफ विपक्षी खेमा बड़े उत्साह में है. जीत के बाद विपक्षी उम्मीदवार इब्राहिम मोहम्मद सोलीह को दुनिया भर से बधाइयां मिल रही हैं. उन्होंने उम्मीद जताई है कि यमीन आसानी से सत्ता सौंप देंगे. मोहम्मद सोलीह मालदीवियन डेमोक्रैटिक पार्टी के उम्मीदवार हैं. यह मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद की पार्टी हो जो श्रीलंका में निर्वासित जीवन जी रहे हैं.
मोहम्मद नशीद ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "यह लोकतंत्र की जीत है और देश अपने सुधारों के रास्ते पर फिर आगे बढ़ेगा. पिछले पांच साल मालदीव के लिए अच्छे नहीं थे. न्यायपालिका पर दबाव, जजों की गिरफ्तारी, पैसों की हेराफेरी, और बहुत सी दूसरी चीजें हुई हैं. लोग नहीं चाहते कि इस देश में यह सब और हो." इसके साथ ही मोहम्मद नशीद ने देश मे वापस लौटने की इच्छा भी जताई है.
चुनाव में सोलीह की जीत से बहुत कुछ बदलेगा, इसमें तो कोई शक नहीं लेकिन क्या भारत की भूमिका एक फिर पहले जैसी हो पाएगी? पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद की बात से भारत के लिए उम्मीद जरूर बंधती है. मोहम्मद नशीद ने कहा है, "मालदीव के लोगों ने बीते सालों में बहुत कुछ झेला है और चीन इसे नहीं समझ सकता. मालदीव एक तानाशाही वाला देश नहीं है. हम उन देशों के साथ दोस्ताना रिश्ते रखना चाहते हैं जो हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को साझा करते हैं. हम यूरोपीय, संघ, अमेरिका और भारत जैसे देशों के साथ मजबूत संबंध बनाना चाहते हैं." सोलीह के शासन में भारत से पुराने रिश्ते बहाल करने पर पूछे सवाल के जवाब में नशीद ने यह भी कहा, "इस बात पर मुझे पूरा यकीन है. यह हम दोनों के लिए फायदेमंद होगा.
मालदीव के चुनाव से एक बड़ा सवाल यह भी खड़ा हुआ है कि क्या मालदीव चीन की बेल्ट एंड रोड परियोजना से बाहर हो जाएगा? मोहम्मद नशीद का कहना है, "मालदीव का हित सबसे ऊपर है और हम हर किसी के हाथ में बिक जाने को तैयार नहीं हैं." हालांकि यह इतना आसान भी नहीं है. एसडी मुनि का कहना है, "सबसे पहले तो यमीन शांति से सत्ता छोड़ें, उसके बाद विपक्षी दल आसानी से सत्ता पर काबिज हों क्योंकि उनका गठबंधन भी बहुत मजबूत नहीं है. उनमें सत्ता के बंटवारे के लिए टकराव हो सकता है. सब कुछ ठीक से हो गया, तो भी चीन का प्रभाव तुरंत खत्म हो जाएगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि बीते सालों मे वह मालदीव में सबसे ज्यादा पैसा लगाने वाला देश बन गया है और उसे एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता."
मालदीव में चीन की दिलचस्पी कई वजहों से है. एक तो यह रणनीतिक रूप से अहम है, चीन हिंद महासागर तक अपनी पहुंच को मजबूत करना चाहता है. दूसरे चीनी कंपनियां पूरी दुनिया में अपने लिए कारोबार के मौके ढूंढ रही हैं, और हर उस जगह जाने को आतुर हैं जहां उनके लिए मौका बन सकता है. एसडी मुनि का कहना है, "चीन की दिलचस्पी सिर्फ रणनीतिक वजहों से नहीं है, लेकिन यह वजह इतनी कमजोर भी नहीं कि इसे नगण्य मान लिया जाए. तो दोनों ही बातें सच हैं, चीन पर आर्थिक दबाव है कि वह अपनी कंपनियों के लिए मौके बनाए."
हालांकि विश्लेषक मान रहे हैं कि चीन अब यह भी सोच रहा है कि इतने बड़े पैमाने पर निवेश करने के बाद उसे इन परियोजनाओं से कितना आर्थिक लाभ होगा. उसका पैसा उसे वापस मिल सकेगा भी या नहीं. क्योंकि मालदीव पर कुछ और देशों की भी नजर है.
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सऊदी अरब इसमें एक प्रमुख नाम है. इस्लाम और वहाबी संस्कृति का प्रसार करने की दिशा में सऊदी अरब ने भी मालदीव में अच्छा खासा निवेश किया है. सऊदी अरब ने ना सिर्फ यहां कर्ज देने और रियाद के साथ हवाई मार्ग स्थापित करने की पहल की है बल्कि वह दर्जनों की तादाद में बड़ी बड़ी मस्जिदें और रिसॉर्ट भी बनवा रहा है. मालदीव की आबादी में प्रमुखता सुन्नी मुसलमानों की है और सऊदी अरब इसे अपने सांस्कृतिक प्रसार का हिस्सा बनाने की कोशिश में है. उसके दखल का असर देश में बढ़े कट्टरपंथ के रूप में भी नजर आया, जब महिलाओं को विवाहेतर संबंध रखने के आरोपों में कड़ी सजाएं दी गईं. इतना ही नहीं अपुष्ट खबरों में 200 से ज्यादा लोगों के आईएस से जुड़ने की बातें भी सामने आई हैं.
एसडी मुनि कहते हैं, "वहाबी संस्कृति के प्रसार के लिए सऊदी अरब मालदीव के युवाओं को अपने असर में बांधना चाहता है लेकिन उनका आर्थिक सहयोग चीन जितना नहीं है. बढ़ता कट्टरपंथ उन्हें भी चिंता में डाल रहा है और पाकिस्तान जैसे देशों की इसमें क्या भूमिका होगी फिलहाल इस बारे में पक्के तौर पर कुछ कहना मुश्किल है."
चीन की बढ़ती दिलचस्पी ने अमेरिका और ब्रिटेन को भी इस देश के बारे में सोचने पर मजबूर किया है. इस बार के चुनाव पर संयुक्त राष्ट्र के साथ ही दूसरे देशों के पर्यवेक्षकों ने भी नजर रखी है. बीते पांच सालों में मालदीव के नेतृत्व ने इस देश को ऐसा फुटबॉल का मैदान बना दिया है जिसमें कई देशों के खिलाड़ी खेल रहे हैं. नई सरकार मालदीव को इन देशों के असर से कितना मुक्त करा पाती है, इसी बात से देश का भविष्य शायद तय होगा.