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अंधेरा फैलाने को तैयार तालिबान

९ अगस्त २०१३

अफगानिस्तान से 2014 के अंत में जब अमेरिकी सेना के जाने के बाद उसकी क्या हालत होगी, ये सवाल दिन ब दिन अहम होता जा रहा है. विशेषज्ञ मानते हैं कि ताकतवर तालिबान पहले जैसा ही घातक साबित हो सकता है.

तस्वीर: T.White/AFP/Getty Images

अफगानिस्तान में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहयोग बल (आइसैफ) के लिए काम कर चुके जर्मन लेफ्टिनेंट क्रिस्टियान बी तालिबान के तौर तरीकों को अच्छी तरह जानते हैं. एक घटना याद करते हुए वो कहते हैं, "हिंसा से घिरे इलाके बगलान में हम गश्त पर थे. तभी पास की सड़क से गोलियां चलने की आवाजें आने लगी. हम जमीन पर लेट गए, ये ट्रेनिंग में हमने सीखा था. जवाबी हमला करने में हमें देर नहीं लगी. हमला उतनी ही तेजी से खत्म हो गया जितनी तेजी से वो शुरू हुआ था. हमलावर आस पास के लोगों में घुल मिल गए, आम नागरिक और उनमें फर्क करना मुश्किल हो गया."

विशेषज्ञों के मुताबिक तालिबान इसी तरह के गुरिल्ला हमले पसंद करता है. यही खूबी उसे खतरनाक बनाती है. आंतकवाद और सुरक्षा नीति पर शोध करने वाले जर्मन संस्थान के निदेशक रोल्फ टोफोवेन कहते हैं, "उनकी रणनीति पहले से ज्यादा बर्बर और सटीक हो चुकी है." हमले ज्यादा घातक हो चुके हैं. अमेरिका की अगुवाई वाली फौजें जिन इलाकों से हटेंगी, वहां अभी से तालिबान बड़ी संख्या में आम नागरिकों को निशाना बना रहा है. संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक 2013 के पहले छह महीनों में अफगानिस्तान में आम नागरिकों की मौत के मामले 23 फीसदी बढ़े हैं. इनमें से 74 फीसदी मौतों के लिए आतंकी जिम्मेदार हैं. ज्यादातर मौतें रिमोट कंट्रोल के जरिए किए गए धमाकों से हुईं. विशेषज्ञों के मुताबिक अंतरराष्ट्रीय सेना और अफगान सेना के खिलाफ अब तालिबान घरेलू बम को भी मुख्य हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहा है.

तस्वीर: Shah Marai/AFP/Getty Images

आतंकवाद का नेटवर्क

वॉशिंगटन के मिडिल ईस्ट इंस्टीट्यूट के मार्विन वाइनबाउम को लगता है कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में कई स्थानीय गुट एक नेटवर्क की तरह हिंसा फैला रहे हैं. तालिबान के नाम के तहत ये सब साथ आते हैं. कभी देश पर शासन कर चुका और मुल्ला उमर की अगुवाई वाला क्वेटा शुरा तालिबान अब दक्षिण और पूर्व में सक्रिय है. सिराजुद्दीन हक्कानी का हक्कानी नेटवर्क पूर्व में सक्रिय है. हक्कानी मुल्ला उमर के प्रति वफादार है, लेकिन स्वतंत्र ढंग से काम करता है. गुलबदिन हिकमतयार की हिज्ब ए इस्लामी पार्टी भी अफगान सरकार के खिलाफ होने वाली हिंसा में शामिल है.

इसी तस्वीर में पाकिस्तानी तालिबान के नाम से मशहूर तहरीक ए तालिबान भी है. इसे अफगान तालिबान के धड़े से भी ज्यादा बर्बर माना जाता है. वाइनबाउम के मुताबिक फिलहाल अफगान और पाकिस्तानी तालिबान का राजनीतिक लक्ष्य अलग अलग है. एक काबुल की सरकार को उखाड़ फेंकना चाहता है तो दूसरा पाकिस्तान में शरिया कानून लागू करना चाहता है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

किसी देश की सेना के उलट तालिबान में पदों का निर्धारित सिस्टम नहीं है. वाइनबाउम कहते हैं, "सबूत इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हिंसक तत्व मजबूत संगठनात्मक नियंत्रण की कमी से जूझ रहे हैं. ज्यादातर ऑपरेशन स्वतंत्र ढंग से होते हैं, प्लानिंग और कार्रवाई स्थानीय कमांडर करते हैं." संगठन की तरह व्यवस्थित तरीके से अगर कोई आतंकवादी गुट चल रहा है तो वो है हक्कानी नेटवर्क. हक्कानी नेटवर्क काबुल और दूसरी जगहों पर कई बड़े प्रतिष्ठानों को निशाना बना चुका है. इनमें भारत समेत कई देशों के उच्चायोग भी शामिल हैं.

तालिबान अपनी लड़ाई के तरीके भी बदल रहा है, वे पुलिस, सेना और आसान जगहों को निशाना बना रहे हैं. स्थानीय प्रशासन को निशाना बनाकर वो लोगों में डर फैला रहा है. वो पारंपरिक रूप से भारी संख्या में हथियारों के साथ लड़ने के बजाए शूटरों और आत्मघाती हमलावरों का सहारा ले रहा है. सड़कों पर बम भी लगा रहा है.

बदलती रणनीति

तस्वीर: STR/AFP/Getty Images

चरमपंथी पहले से ज्यादा निडर हो चुके हैं. 30 जुलाई को पाकिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव के लिए होने वाले मतदान से ठीक पहले ही तालिबान ने पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में डेरा इस्माइल खान की जेल पर बड़ा हमला किया. पुलिस की वर्दी पहने 40 हमलावरों ने जेल की दीवारों को बम से उड़ाया, सुरक्षा कर्मियों पर फायरिंग की और अपने 250 साथियों को भगा ले गए. भागने वालों में कुछ कुख्यात आतंकवादी भी शामिल थे.

विशेषज्ञों के मुताबिक तालिबान अपने विरोधी की ताकत पहचाने में माहिर हो चुका है. टोफोवेन के मुताबिक उन्हें पुरानी और नई सैन्य रणनीतियों की जानकारी है, "सोवियत के जमाने का अनुभव और अमेरिकी की सैन्य निर्देशिका ने उन्हें दुश्मन को समझने में मदद की है." उनके पास बड़ी संख्या में फैले स्थानीय मुखबिर हैं. ये मुखबिर विदेशी सेनाओं की हर हलचल की जानकारी उसे देते हैं.

अनुभवी लड़ाके

तालिबान के पास सैन्य निर्देशिकाओं के आधार पर जुटाई गई विदेशी सेनाओं की जानकारी भी है और लंबे युद्ध का अनुभव भी. वुडरो विल्सन इंटरनेशनल सेंटर फॉर स्कॉलर्स के दक्षिण एशिया विशेषज्ञ मिचेल कुगलमन कहते हैं, "अफगानिस्तान के कई इलाके लगातार बढ़ती हिंसा से घिरे रहे हैं. कई तालिबान बहुत कम उम्र में ही लड़ना और हथियार चलाना सीख जाते हैं."

स्थानीय मदद

वैसे तो तालिबान को उज्बेकिस्तान और चेचन्या से भी मदद मिलती है, लेकिन ज्यादातर लड़ाकों को वो मदरसों से भर्ती करता है. पाक-अफगान बॉर्डर पर बने शरणार्थी कैंपों से भी भर्ती की जाती है. तालिबान विदेशी सेनाओं पर ही हमला नहीं करता बल्कि वो उन लोगों और प्रतिष्ठानों को भी निशाना बनाता है जो तालिबानी इस्लाम के मुताबिक नहीं चलते. वो स्कूलों, अस्पतालों, सरकारी दफ्तरों और मस्जिदों पर भी हमले कर रहे हैं. इसका एक उदाहरण पाकिस्तान की बच्ची मलाला यूसुफजई भी है. मलाला पाकिस्तानी के कबाइली इलाकों में लड़कियों की पढ़ाई को बढ़ावा देने की मुहिम से जुड़ी थी, तालिबान महिलाओं की पढ़ाई लिखाई के खिलाफ है. मलाला के अभियान से तालिबान ऐसा चिढ़ा कि उसने स्कूल बस में घुसकर मलाला को गोली मार दी.

बर्बरता के सहारे और धर्म के नाम पर गुमराह करने के अलावा तालिबान पैसे का लालच देकर भी युवाओं को भर्ती कर रहा है. माना जाता है कि ज्यादातर पैसा अफगानिस्तान से ही जुटाया जाता है. नशीले पदार्थों की तस्करी से, उन पर वसूले जाने वाले टैक्स से और किसी को सुरक्षा देने से तालिबान को पैसा मिलता है. समर्थन जुटाने के लिए वो पश्चिम और विदेशी ताकतों के खिलाफ धार्मिक घृणा का सहारा लेता है. काबुल में बैठी सरकार में फैला भ्रष्टाचार भी लोगों को भड़काने में तालिबान की मदद करता है.  

पाकिस्तान कनेक्शन

तालिबान लगातार पड़ोसी देश पाकिस्तान से मदद पाता रहा है. टोफोवेन कहते हैं, " 9/11 से ठीक पहले तक तालिबान को पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से ट्रेनिंग, पैसा, हथियार और रसद मिलती रही." कई और विशेषज्ञ भी यही बात करते हैं. हावर्ड यूनिवर्सिटी के कैनेडी स्कूल ऑफ गवर्नमेंट के मैट वॉल्डमैन के मुताबिक, "प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तालिबान के फील्ड ऑपरेशन्स और रणनीतिक फैसलों में आईएसआई का प्रभाव साफ दिखता है, हक्कानी हमलावरों पर तो ये प्रभाव और ज्यादा दिखता है."

वॉल्डमैन आरोप लगाते हुए कहते हैं कि खाड़ी के देशों से पैसा लाकर आईएसआई तालिबान में भर्ती होने वाले नए लड़ाकों के लिए ट्रैनिंग कैंप भी चला रही है. विशेषज्ञों के मुताबिक अफगानिस्तान में भारत के प्रभाव को कम करने के लिए आईएसआई तालिबान को मजबूत कर रही है.

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कौन हैं तालिबान

तालिबान की शुरुआत 1980 के दशक में हुई. शीत युद्ध के दौरान दिसंबर 1979 में सोवियत संघ की सेना अफगानिस्तान में घुसी. सोवियत सेना को वहां से हटाने के लिए अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए ने लोगों को खड़ा किया. वामपंथी सोवियत के खिलाफ संघर्ष के लिए उत्तरी पाकिस्तान में कई देशों के युवाओं को ट्रेनिंग दी गई, उन्हें हथियार दिए गए. पाकिस्तान और संयुक्त अरब अमीरात ने भी इसमें मदद की. इन हथियारबंद युवाओं को अफगानिस्तान की आजादी के लिए लड़ने वाले मुजाहिदीन कहा गया. मुजाहिदीन के साथ संघर्ष में सोवियत सेना को काफी नुकसान हुआ और फरवरी 1989 में उसे अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा.

सोवियत सेना के लौटने के बाद अफगानिस्तान में मुजाहिदीन अलग अलग गुटों में बंट गए, लेकिन उनका प्रभाव बढ़ता चला गया. सोवियत संघ के करीबी माने जाने वाले मोहम्मद नजीबुल्लाह का 1992 में राष्ट्रपति पद से तख्ता पलट कर दिया गया. नजीबुल्लाह को हटाने के बाद देश में गृह युद्ध सा शुरू हुआ. इसी दौरान मुजाहिदीन के नेता मुल्लाह उमर ने कंधार में 50 मदरसे खोलकर युवाओं को कट्टरपंथ की राह पर डालना शुरू किया. कई विशेषज्ञ कहते हैं कि तालिबान की शुरुआत यहीं से हुई. 1994 में गृह युद्ध के दौरान मदरसों से जुड़े ये लोग राजनीतिक ताकत बन गए. कंधार से शुरुआत करने वाला तालिबान धीरे धीरे अफगानिस्तान के दूसरे इलाकों को भी अपने प्रभाव में लेने लगा. नार्दन एलायंस को हराने के बाद सितंबर 1996 में काबुल तालिबान के नियंत्रण में आ गया. काबुल को कब्जे में करने के साथ ही तालिबान ने पूर्व राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को घसीटते हुए एक पिक अप ट्रक में डाला और शहर के बीचों बीच सरेआम फांसी पर लटका दिया. तालिबान ने खुद को शासक घोषित कर दिया. देश में शरिया कानून लागू कर दिए गए. महिलाओं को बुर्का पहनने का फरमान सुनाया गया, टेलीविजन देखने, नाचने और फोटोग्राफी पर पाबंदी लगा दी गई. देश का नाम बदलकर इस्लामी अमीरात अफगानिस्तान कर दिया गया. कंधार को देश की राजधानी घोषित किया गया. पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने तालिबान के अफगानिस्तान को मान्यता भी दे दी.

तालिबान के शासन के दौरान (1996-2001) तक पाकिस्तान और अफगानिस्तान के घनिष्ठ संबंध रहे. 1999 में तालिबान के शासन के दौरान ही इंडियन एयरलाइंस के एक विमान को काठमांडू से अगवा कर कंधार ले जाया गया. भारतीय सेना के खास अभियान की आशंका को टालने के लिए कंधार एयरपोर्ट पर तालिबान के हथियारबंद लड़ाके तैनात थे. भारत का आरोप है कि इसकी साजिश पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने रची और तालिबान ने उसकी मदद की. सात दिन बाद विमान को छुड़ाने के एवज में भारत ने तीन आतंकवादियों को कंधार ले जाकर तालिबान के हवाले किया.

तालिबान की राह में बड़ा बदलाव 2001 में आया. अमेरिका पर हुए 9/11 हमलों के तार अल कायदा, तालिबान और अफगानिस्तान से जुड़े. इसके बाद अमेरिका और पश्चिमी देशों की फौजें वहां पहुंची. नाटो सेनाओं ने तालिबान की कमर तोड़ने की भरसक कोशिश की. अल कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन समेत कई आतंकवादी मारे गए. तालिबान के कई कमांडर को अमेरिकी ड्रोन ने चुन चुनकर निशाना बनाया. सवा दशक के संघर्ष के बाद अब पश्चिमी देशों की सेनाओं वहां से लौटने की तैयारी कर रही हैं. 2014 के अंत तक अमेरिकी सेना भी वहां से निकल जाएगी. इसके बाद क्या होगा, तालिबान की बढ़ती ताकत, बदलती रणनीति और काबुल सरकार धीमी चाल, इन सब समीकरणों को देखते हुए अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर उम्मीदें कम और आशंकाएं ज्यादा लगी हैं.

रिपोर्ट: गाब्रिएल डोमिंगस/ओंकार सिंह जनौटी

संपादन: एन रंजन

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