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अंबेडकर कार्टून विवाद पर हैरान स्कूली बच्चे

१९ मई २०१२

संसद और संसद के बाहर भले ही एक कार्टून पर बहस हो रही हो, किशोर हैरान हैं कि 63 साल पुराने कार्टून पर भारत में इतना विवाद क्यों हो रहा है. जबकि पांच साल से स्कूलों में इस किताब का इस्तेमाल हो रहा है.

तस्वीर: Shankar

इस कार्टून में देखा जा सकता है कि भारतीय संविधान के निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर एक घोंघे पर बैठे हैं जो संविधान का प्रतीक है, और पीछे प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू खड़े हैं. इन दोनों के हाथ में चाबुक है और दोनों भारतीय संविधान को हांकने में लगे हुए हैं. एक बड़े वर्ग का कहना है कि इससे बाबा साहेब अंबेडकर का अपमान होता है, दूसरे वर्ग का कहना है कि इससे सत्ता की मानसिकता का पता चलता है. 1949 में बना यह कार्टून उस समय का है जब भारतीय संविधान का निर्माण हो रहा था.

एक ऐसा समय जब टेलीकॉम घोटाले के आरोपी ए राजा को जमानत मिल गई है, खनन उद्योग के नए घोटाले और कॉमनवेल्थ घोटालों में घिरी सरकार को भ्रष्टाचार, लोकपाल और महिला आरक्षण पर बहस करने का वक्त नहीं है, लेकिन पाठ्य पुस्तक में कार्टून के मुद्दे पर लोकसभा और राज्यसभा में ऐसा हंगामा हो रहा है कि अधिवेशन को बार बार स्थगित करना पड़ रहा है.

संसद की कार्रवाई में बाधा डालने वाले सांसदों का दावा है कि इस तरह के कार्टून छात्रों के कोमल मन पर बुरा असर डालते हैं. वे भूल जाते हैं कि इंटरनेट और वेब क्रांति के दौर में वह 15-16 की उम्र तक कई चीजें देख और पढ़ चुके होते हैं.

तस्वीर: AP

शिक्षा मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कार्टून किताबों से हटा लिया जाएगा और राजनीति विज्ञान की सभी किताबों में शामिल कार्टूनों को फिर से देखा जाएगा. वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने तो यहां तक कह दिया कि राजनीति से जुड़े कार्टूनों को सरकार के कोष से चलने वाली किताबों से पूरी तरह हटा दिया जाना चाहिए.

वहीं दिल्ली की 16 वर्षीया रेवती सहिजवानी कहती हैं, "कार्टून मजेदार थे. वह किताबों को रोचक और आकर्षक बनाते हैं. सब कुछ निर्भर करता है कि आप उसका कैसे विश्लेषण करते हैं. " सहिजवानी का कहना है कि सांसद कार्टून पर बहस करके समय जाया कर रहे हैं. "क्या उनके पास कोई और मुद्दा नहीं है बात करने के लिए, यहां कई लोग रोज मर रहे हैं. मैं हतप्रभ हूं."

वहीं 15 साल की मुग्धा सेठिया कहती हैं, "कार्टून से हमें मुद्दे जल्दी समझ में आते हैं. घोंघे का आयडिया बहुत ही बढ़िया था. मैं तो सोच रही थी मैं इसे अपनी अगली आर्ट कॉम्पिटीशन में इस्तेमाल करूंगी. सांसद इस बेकार से मुद्दे पर बहस करने की बजाए विकास और भ्रष्टाचार पर क्यों नहीं बोलते. क्या उन्हें लगता है कि हम अपने विचार किताब पढ़ कर बनाते हैं. टीवी और इंटरनेट का क्या. वह समय से कहीं बहुत पीछे हैं."

विवाद शुरू होने के एक दिन बाद राजनीतिशास्त्री सुहास पलसीकर और योगेन्द्र यादव ने एनसीईआरटी की सलाहकारी समिति से इस्तीफा दे दिया. पलसीकर ने कहा, "इन नए पाठ्य पुस्तकों को बनाने के पीछे उद्देश्य था कि युवा सवाल उठाना सीखें और जांचना भी. हम चाहते थे कि छात्र सोचें क्योंकि इस कार्टून पर कई दिशाओं से सोचा जा सकता है. उनके दिमाग में यह विचार डालना भी कि राजनीति वहां हो रही है जिसकी पढ़ाई सोच समझ कर की जानी चाहिए."

2006 में इन किताबों को शिक्षा मंत्रालय की एक कमेटी ने स्वीकृति दी थी. एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार कहते हैं, "ये पाठ्य पुस्तकें पूरी प्रक्रिया के बाद ही बाजार में आई हैं. इसे देश के बिलकुल अलग राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले 15 राज्यों में इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि उसकी गुणवत्ता अच्छी है. मैं बहुत उलझन में हूं."

कार्टून में दिखाए गए लोग और इसे बनाने वाले कार्टूनिस्ट के शंकर पिल्लै, तीनों की मौत हो चुकी है. अपने जीवन काल में न तो अंबेडकर ने और न ही उनके समर्थकों ने इस पर सवाल उठाया. तो अब क्या बदला है. जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में राजनीतिशास्त्र की प्रोफेसर विधु वर्मा कहती हैं, कि शायद भारतीय राजनीति का स्वभाव बदल गया है.

वर्मा कहती हैं, "भ्रष्टाचार के खिलाफ जन आंदोलन, मंत्रियों के खिलाफ मीडिया और जन अभियान के कारण वह सभी बौराए हुए हैं. कार्टून पर उनकी उग्र प्रतिक्रिया इसी वजह से है. जब उन्हें लगता है कि उनकी विश्वसनीयता खत्म हो रही है या उन पर लगातार आक्षेप लग रहे हैं तो राजनीति में भागीदारी से इनकार उन्हें इस तरह के कदम उठाने को मजबूर करता है."

जब 1949 में शंकर ने कार्टून बनाया गया तो अंबेडकर किसी वर्ग के नेता या आदर्श नहीं थे. लेकिन आज वह सदियों से दमित लेकिन अब तेजी से आगे बढ़ते दलितों के आदर्श हैं. प्रोफेसर वर्मा मानती हैं कि इस समुदाय के लोग इस कार्टून को अपने नेता के अपमान के तौर पर ले सकते हैं. लेकिन इस तरह की प्रतिक्रिया एक ऐसे खतरनाक माहौल को जन्म देगी जिसे प्रणब मुखर्जी के बयान के तौर पर देखा जा सकता है कि सभी सरकारी किताबों से राजनीतिक कार्टून हटा दिए जाने चाहिए.

जिस बहस को संसद के बाहर किए जाने की जरूरत है, उस पर जनता के पैसे से चलने वाली संसद को बार बार क्यों निलंबित किया जाता है. संसद की कार्रवाई पर हर दिन करीब 7.65 करोड़ रुपये का खर्च आता है. स्कूली किताबों में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू या इंदिरा गांधी से लेकर कांग्रेस के कई नेताओं पर कार्टून छपे हैं. इन कार्टूनों को हटा कर भारत सरकार क्या साबित करना चाहती है.

रिपोर्टः आभा मोंढे (डीपीए)

संपादनः महेश झा

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