उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद शहर का नाम बदलकर प्रयागराज रखने का फैसला किया है. लेकिन क्या इलाहाबाद ही प्रयागराज था या फिर ये दोनों अलग अलग शहर थे, जानिए.
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सरकार का कहना है कि इस बारे में उसे साधु-संतों, अखाड़ा परिषद और कुछ प्रबुद्ध लोगों की ओर से प्रस्ताव आए थे. दो दिन पहले मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने इलाहाबाद में इसकी घोषणा की थी और मंगलवार को राज्य कैबिनेट ने इसकी मंजूरी दे दी.
लेकिन सरकार के इस फैसले की राजनीतिक दलों में आलोचना हो रही है. आलोचक कहते हैं कि कि सरकार के काम-काज से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ऐसा हो रहा है. कई बुद्धिजीवी भी इसे बेतुका फैसला बता रहे हैं. लेकिन तमाम हिन्दू संगठन सरकार के इस प्रयास के समर्थन में भी खड़े हैं और सरकार की वाहवाही कर रहे हैं.
दरअसल, इलाहाबाद उत्तर प्रदेश का एक ऐसा शहर है जिसकी ऐतिहासिक दृष्टि से हर काल-खंड में राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में एक अलग पहचान रही है. प्राचीन काल में यह शहर प्रयाग नाम से जाना जाता था लेकिन साल 1583 के बाद से इसकी पहचान इलाहाबाद के रूप में हो गई.
दुनिया के देश जिन्होंने बदले अपने नाम
भारत में हाल के सालों में कई शहरों के नाम बदले गये हैं. लेकिन क्या आप ऐसे देशों को जानते हैं जिन्होंने अपने नाम बदले हैं. चलिए डालते हैं एक नजर इन्हीं देशों पर.
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ईरान
ईरान का पुराना नाम पर्शिया हुआ करता था. 1935 में वहां की सरकार ने सभी देशों से कहा कि अब उसे पर्शिया की बजाय ईरान कहा जाए. हालांकि कुछ लोगों ने इसका विरोध भी किया, लेकिन आज ईरान नाम ही सब जगह प्रचलित है. 1979 में इस्लामी क्रांति के बाद देश का आधिकारिक नाम इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान किया गया.
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कंबोडिया
कंबोडिया ने कई बार अपना नाम बदला है. 1953 से 1970 के बीच देश का नाम किंगडम ऑफ कंबोडिया था तो 1970 से 1975 तक दुनिया इसे खमेर रिपब्लिक के तौर पर जानती थी. देश में जब फिर से राजशाही बहाल हुई तो उसका नाम फिर किंगडम ऑफ कंबोडिया हो गया. वैसे खमेर लोग खुद को कम्पुचिया कहलाना पसंद करते हैं.
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म्यांमार
म्यांमार को पहले बर्मा कहा जाता है. सैन्य सरकार ने 1989 में देश का नाम म्यांमार रखा. फ्रांस, जापान और संयुक्त राष्ट्र ने इस नाम को स्वीकार कर लिया, लेकिन अमेरिका और ब्रिटेन लंबे समय तक बर्मा नाम ही इस्तेमाल करते रहे. लेकिन अब सैन्य सरकार खत्म होने के बाद से म्यांमार को लेकर विश्व बिरादरी की सोच बदल रही है.
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जॉर्डन
मध्य पूर्व का देश जॉर्डन जब ब्रिटेन के अधीन था तो उसका नाम ट्रांसजॉर्डन था. उसे 1946 में आजादी मिली और 1949 में देश का नाम फिर से "द हाशेमिते किंगडम ऑफ जॉर्डन" किया गया. जॉर्डन एक नदी का नाम है. माना जाता है कि इसी नदी में ईसा मसीह का बपतिस्मा हुआ.
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इथोपिया
मौजूदा इथोपिया के उत्तरी हिस्से पर पहले अबीसीनिया साम्राज्य का शासन था. लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के दौरान राजा हेले सेलासी ने देश का नाम अबीसीनिया से इथोपिया कर दिया. हालांकि कुछ जानकारों का मत है कि इथोपिया का नाम हमेशा से यही था और अबीसीनिया नाम को अरबों ने प्रचलित किया.
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बोत्सवाना
मार्च 1885 में ब्रिटेन ने बोत्सवाना को आधिकारिक तौर पर अपना उपनिवेश बनाया और इसी के साथ उसका नाम बेचुयानालैंड हो गया. लेकिन 30 सितंबर 1966 को यह देश आजाद हुआ और देश का नाम बोत्सवाना रखा गया. यह नाम देश के सबसे बड़े जातीय समूह त्वाना के नाम पर रखा गया.
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डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो
जिस देश को आज हम संक्षिप्त में डीआरसी के नाम से जानते हैं, उसने 1960 में रिपब्लिक ऑफ कांगो के नाम से आजादी पायी थी. 1965 में वह डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो हो गया. लेकिन 1971 में राष्ट्रपति मोबुतु सेसे सोको ने उसे रिपब्लिक ऑफ जायरे नाम दिया. 1997 में मोबुतु के निधन के बाद देश फिर से डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो हो गया.
श्रीलंका
अंग्रेजी राज में 1815 से लेकर 1948 तक श्रीलंका को सीलोन के नाम से जाना जाता था. 20वीं सदी के शुरुआत में आजादी का आंदोलन तेज हुआ तो देश का नाम श्रीलंका रखने की मांग ने भी जोर पकड़ा. 1972 में देश का आधिकारिक नाम द रिपब्लिक ऑफ श्रीलंका रखा गया जिसे 1978 में डेमोक्रेटिक सोशलिस्ट रिपब्लिक ऑफ श्रीलंका किया गया.
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बुरकीना फासो
पहले अपर वोल्टा कहे जाने वाले इस पश्चिम अफ्रीकी देश का नाम अगस्त 1984 में राष्ट्रपति थॉमस संकारा ने बुरकीना फासो रखा. देश की दो मुख्य भाषाओं के शब्दों बुरकीना और फासो से उन्होंने यह नाम रचा. मूरे भाषा में बुरकीना का मतलब होता है ईमानदार लोग जबकि द्युला भाषा में फासो पितृभूमि को कहते हैं.
पश्चिमी अफ्रीका के जिस इलाके में आज बेनिन रिपब्लिक है, वहां औपनिवेश काल से पहले दाहोमे किंगडम की स्थापना हुई थी. इस किंगडम में आज का टोगो और नाइजीरिया का दक्षिण पश्चिम हिस्सा भी था. 1975 में आजादी मिलने के 15 साल बाद इसका नाम बेनिन किया गया.
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जानकारों के मुताबिक प्राचीन ग्रंथों में इस शहर का नाम प्रयाग या फिर प्रयागराज ही आता है. पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक ब्रह्मा ने सबसे पहले यहीं पर यज्ञ किया था, इसीलिए इस भूमि का नाम प्रयाग पड़ा. रामचरित मानस में भी इसे प्रयागराज ही कहा गया है जबकि यह ग्रंथ सोलहवीं शताब्दी का है.
अकबरनामा और अन्य मुगलकालीन ऐतिहासिक पुस्तकों से पता चलता है कि अकबर ने साल 1574 के आसपास प्रयागराज में किले की नींव रखी और एक नया शहर बसाया जिसे इलाहाबाद नाम दिया गया. 1583 में इस शहर का नाम अकबर द्वारा चलाए गए संप्रदाय दीन-ए-इलाही के नाम पर रखा गया.
हालांकि इस दौरान भी और आज भी यहां संगम तट के आस-पास के इलाके को प्रयाग ही कहा जाता रहा है और हर साल लगने वाले माघ मेला या फिर छह वर्ष और 12 वर्ष के अंतराल पर लगने वाले अर्धकुंभ और कुंभ मेले के दौरान बसने वाले तंबुओं के शहर को प्रयागराज मेला क्षेत्र ही कहा जाता रहा है. शहर के पास स्थित एक प्रमुख रेलवे स्टेशन का नाम भी प्रयाग स्टेशन है.
आजादी के बाद भी यहां की न सिर्फ राजनीतिक हैसियत अहम रही है बल्कि साहित्य, संस्कृति और कला के क्षेत्र में भी यह शहर अग्रणी रहा है. धार्मिक पहचान तो विशिष्ट रही ही है.
लेकिन इस शहर का नाम बदलने की कोशिशों के बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि आज जो इलाहाबाद शहर है क्या वही शहर प्रयाग रहा है या फिर दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे से अलग रहा है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं कि आज जो इलाहाबाद है, वो प्रयाग नहीं है, बल्कि दोनों अलग-अलग हैं.
अविवाहित नेताओं का 'बैचलर मुख्यमंत्री' क्लब
भारत में तथाकथित 'बैचलर मुख्यमंत्री' क्लब में उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ के रूप में एक और नया सदस्य जुड़ गया है. आज तक मुख्यमंत्री बने ज्यादातर अविवाहित नेता बीजेपी के रहे हैं.
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योगी आदित्यनाथ (उत्तर प्रदेश)
महंत से बीजेपी नेता बने 44 साल के योगी आदित्यनाथ लगातार पांच बार संसद के सदस्य रहे हैं. अब उन्हें उत्तर प्रदेश में बीजेपी की भारी जीत के बाद प्रांत का मुख्यमंत्री बनाया गया है. भारत में पहले से ही कई राज्यों में अविवाहित मुख्यमंत्रियों की लंबी सूची है.
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त्रिवेंद्र सिंह रावत (उत्तराखंड)
लंबे समय तक आरएसएस से जुड़े रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मार्च 2017 में उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद संभाला. मुख्यमंत्री बनने से पहले वह बीजेपी में कई अहम जिम्मेदारियां संभाल चुके हैं.
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एमएल खट्टर (हरियाणा)
62 साल के खट्टर हरियाणा के मुख्यमंत्री हैं और उत्तराखंड के नये सरकार प्रमुख की तरह वे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रचारक रहे हैं. बीजेपी आरएसएस का ही राजनीतिक फ्रंट है और आरएसएस के वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत ने भी कभी विवाह नहीं किया.
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सर्बानंद सोनोवाल (असम)
पूर्वोत्तर राज्य असम के 54 साल के मुख्यमंत्री सोनोवाल भी अविवाहित हैं. सोनोवाल 2011 में बीजेपी के सदस्य बने और 2016 में सीएम बनाये जाने से पहले वे केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में खेल और युवा मामलों के मंत्री भी रहे. बहुत बाद में बीजेपी से जुड़े सोनोवाल ने भी कई पुराने बीजेपी नेताओं की तरह कभी शादी नहीं की.
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नवीन पटनायक (ओडीशा)
बीजू जनता दल के प्रमुख और सन 2000 से राज्य के मुख्यमंत्री रहे 70 साल के नवीन पटनायक हमेशा से अपने वोटरों को कहते आए हैं कि चूंकि उन्होंने शादी नहीं की और उनके बच्चे नहीं हैं, वे अपने राज्य में कांग्रेस की तरह कभी परिवारवाद नहीं चलाएंगे. उनके पिता बीजू पटनायक दो बार राज्य के मुख्यमंत्री रहे थे.
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ममता बनर्जी (पश्चिम बंगाल)
पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी भी अविवाहित गैर बीजेपी मुख्यमंत्रियों में शामिल हैं. 2011 में 33 सालों से जारी वामपंथी शासन को समाप्त कर सत्ता में 62 साल की बनर्जी का कहना है कि वे केवल अपने राज्य के बारे में सोचती हैं, इसीलिए उन्हें अपने बारे में सोचने का समय नहीं मिला.
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मायावती (उत्तर प्रदेश)
61 साल की मायावती प्रभु दास चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. पूर्व मुख्यमंत्री मायावती प्रशिक्षित वकील हैं और बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख भी. कभी शादी ना करने वाली मायावती अपनी चुनावी रैलियों में कहती आई हैं, "मैं नीची जाति की हूं, अविवाहित हूं, और आपकी हूं."
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जे जयललिता (तमिलनाडु)
देश की जानी मानी राजनेता रहीं स्वर्गीय जे जयललिता पांच बार दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं. कभी विवाह ना करने वाली जयललिता का देहांत दिसंबर 2016 में 68 साल की उम्र में हुआ. अभिनेत्री से नेता बनी जयललिता 1982 में अपने सह अभिनेता से नेता बने एमजी रामचंद्रन की पार्टी में शामिल हुई थीं.
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हेरंब चतुर्वेदी के मुताबिक, "भौगोलिक और पौराणिक दृष्टि से देखें तो प्रयाग का इलाका तो बहुत ही सीमित है. गंगा के उस पार झूंसी और यमुना के उस पार अरैल क्षेत्र ही पुराने प्रयाग शहर में आते हैं. अकबर ने यदि दोनों नदियों के किनारे बांध बनवाकर इस शहर को न बसाया होता तो आज जो इलाहाबाद है, उसका अस्तित्व ही नहीं रहता.”
हेरंब चतुर्वेदी का कहना है कि पुराना शहर जो चौक, खुल्दाबाद, नखासकोना इत्यादि का इलाका है, ये सब तभी विकसित हो सके जब बांध बनाकर गंगा और यमुना के पानी को रोका गया. यदि ऐसा न हुआ होता तो शहर का अस्तित्व ही न होता. उनका कहना है कि पौराणिक रूप से और ऐतिहासिक रूप से भी प्रयाग राज का महत्व रहा है लेकिन बहुत ही सीमित क्षेत्र में.
इलाहाबाद शहर से जुड़ा दूसरा पहलू यह है कि देश-दुनिया में इसकी जो विशिष्ट पहचान है, वह इसी नाम से है. प्रयाग नाम से सिर्फ धार्मिक महत्व है जो पहले भी था और आज भी है. इलाहाबाद में विश्वविद्यालय, हाई कोर्ट, लोक सेवा आयोग के अलावा केंद्र और राज्य सरकार के तमाम दफ्तर तो हैं ही, लंबे समय से यह शहर कला और संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र रहा है. शहर से जुड़ा हर व्यक्ति इस जुड़ाव पर खुद को गौरवान्वित महसूस करता है.
राज्य सरकार ने पिछले करीब डेढ़ साल में यूं तो कई सड़कों और इमारतों के नाम बदले हैं या अपनी पसंद से रखे हैं लेकिन पिछले दिनों मुगलसराय का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर करना खासा चर्चित रहा. और अब इसी कड़ी में इलाहाबाद का नाम भी शामिल होने जा रहा है. इसे लेकर राजनीतिक टिप्पणियां तो आ ही रही हैं बौद्धिक जगत में खासी मायूसी है. सोशल मीडिया में सरकार के इस फैसले पर काफी सवाल उठ रहे हैं. कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी कहते हैं कि प्रयागराज नाम पर आपत्ति नहीं है लेकिन इसे बदलने का औचित्य क्या है.
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन रह चुके मार्कंडेय काटजू भी इलाहाबाद के रहने वाले हैं. फेसबुक पर इस काम के लिए मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को व्यंग्यात्मक लहजे में धन्यवाद देने वाली उनकी पोस्ट खूब वायरल हो रही है. मार्कंडेय काटजू ने उन्हें यूपी के 18 और शहरों के नाम बदलने का सुझाव दिया है जिनमें फैजाबाद को नरेंद्रनगर, फतेहपुर को अमित शाह नगर, फतेहपुर सीकरी को योगी आदित्यनाथ नगर, गाजियाबाद को घटोत्कचनगर करने के सुझाव शामिल हैं.
जानकारों का कहना है कि नाम बदलने के पीछे सरकार की मंशा साफ है, वो इसके जरिए कुछ खास वर्ग को खास संदेश देना चाहती है. इलाहाबाद के रहने वाले वरिष्ठ समाजसेवी फूलचंद दुबे कहते हैं, "यदि प्रयागराज से इतना प्यार था तो इस नाम से एक अलग जिला ही बना देते. पहले भी इलाहाबाद से काटकर कौशांबी जिला बन चुका है. लेकिन इसके लिए इतने महान शहर की पहचान खत्म करने का क्या मतलब है.”
इलाहाबाद की एक पहचान यह भी रही है कि यह शहर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का न सिर्फ जन्म स्थली बल्कि कर्म स्थली भी रहा है. इलाहाबाद जिले में ही आने वाली फूलपुर लोकसभा सीट से नेहरू चुनाव लड़ते रहे. इसके अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही निकल कर कई लोग देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कई राज्यों के मुख्यमंत्री जैसे राजनीतिक पदों पर पहुंचे हैं. देश के कई नामी साहित्यकार, कानूनविद, वैज्ञानिक और कला-संस्कृति से जुड़ी अनेक हस्तियां तो इस फेहरिस्त में शामिल हैं.
वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया कहती हैं, "इलाहाबाद नाम तो दिल में बसा है, उसे कैसे बदला जाएगा. सरकार को शहर की दूसरी समस्या पर ध्यान देना चाहिए. नाम की तो कोई समस्या है ही नहीं. माघ मेला में शहर तो प्रयागराज के नाम से जाना ही जाता है.”
लेकिन अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि सरकार के इस फैसले का पुरजोर समर्थन करते हैं. उनका कहना है कि इसका नाम तो बहुत पहले ही प्रयागराज हो जाना चाहिए था, "प्रयाग पौराणिक नाम है जो कि यज्ञ और तपस्या की भूमि है. यदि किसी शासक ने इसका नाम बदलकर अपनी रुचि के अनुसार इलाहाबाद रख दिया तो उससे इतिहास नहीं बदल गया. संत मुख्यमंत्री ने भारतीय संस्कृति को पुनर्जागृत कर दिया.”
भक्ति और विवाद के साथ चलते कांवड़िए
सावन के महीने में उत्तर भारत में कांवड़ यात्रा निकाली जाती है. पिछले दिनों दिल्ली समेत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में लगे सड़कों पर जाम और हिंसक घटनाओें की वजह से कांवड़ियों को लेकर विवाद रहा.
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शिवजी का जलाभिषेक करते हैं
कांवड़ यात्रा में लोग हरिद्वार या फिर किसी अन्य जगह से गंगाजल भरकर अपने आस-पास के शिव मंदिर में पूजा करते हैं और उसी जल से भगवान शिव का अभिषेक करते हैं.
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ज्योतिर्लिंगों में होती है खासी भीड़
झारखंड के बाबा बैद्यनाथ धाम और बनारस के विश्वनाथ मंदिर जैसे मशहूर शिव मंदिरों में विशेष तौर पर भीड़ रहती है क्योंकि दूर-दराज से तमाम लोग यहां आकर जल चढ़ाने में विशेष पुण्य समझते हैं.
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कांवड़ की खास सजावट
सामान्य रूप से कांवड़ एक बांस के डंडे से बनाई जाती है जिसके दोनों सिरों पर डिब्बों या लोटों में गंगाजल भरकर ले जाया जाता है. कांवड़ को अक्सर विशेष तरीके से सजाया भी जाता है.
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डीजे का बढ़ रहा चलन
कांवड़ यात्रा के दौरान ज्यादातर कांवड़िए समूहों में चलते हैं. ये लोग या तो एक ही गांव के होते हैं या सगे संबंधी होते हैं. समूह में चलते वक्त अक्सर बड़े-बड़े डीजे की धुनों पर कांवड़िए नाचते-गाते और जयकारा लगाते हुए भी चलते हैं.
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रास्ते में जलपान की व्यवस्था
रास्ते में जगह-जगह कांवड़ियों के स्वागत में लोग नि:शुल्क जलपान, भोजन इत्यादि की व्यवस्था करते हैं और इसके लिए सड़क के किनारे शिविर लगाते हैं.
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महिलाएं और बच्चे भी कर रहे यात्रा
आमतौर पर कांवड़ लेकर पुरुष ही चलते हैं लेकिन कई जगहों पर महिलाएं भी चलती हैं. पिछले कुछ सालों से ये चलन काफी आम हो गया है. कई बार बच्चे भी कांवड़ यात्रा में शामिल होते हैं.
तस्वीर: DW/S. Mishra
सड़कों पर जाम से परेशानी
कांवड़ यात्रा कई बार विवादों में भी घिर जाती है, जब कांवड़ियों की वजह से जगह-जगह जाम लग जाता है, आम लोगों का कुछ कांवड़ियों से विवाद कई बार हिंसक भी हो जाता है.