वाजपेयी की पौत्री समेत दर्जनों महिलाओं ने किया पिंडदान
२३ सितम्बर २०१९
पारंपरिक रूप से पुरुषों द्वारा श्राद्ध कर्म करने की परंपरा को तोड़ते हुए उत्तर प्रदेश के कानपुर में आयोजित कार्यक्रम में बड़ी संख्या में महिलाओं ने अपने पूर्वजों और गर्भ में ही मार दी गई कन्या भ्रूणों का पिंडदान किया.
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पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की पौत्री नंदिता मिश्रा ने रविवार को कानपुर में दिवंगत नेता के लिए पिंडदान किया. यह पिंडदान 'पितृपक्ष' के दौरान किया गया और कानपुर में इसका आयोजन 'युग दधीचि देह-दान संस्थान' द्वारा गंगा नदी के किनारे सरसैया घाट पर किया गया. नंदिता पूर्व प्रधानमंत्री के बड़े भाई प्रेम बिहारी वाजपेयी की पौत्री हैं.
पारंपरिक रूप से पुरुषों द्वारा श्राद्ध कर्म करने की परंपरा को तोड़ते हुए बड़ी संख्या में महिलाओं ने पिंडदान किया. संस्थान के अध्यक्ष मनोज सेंगर ने कहा, "इस तरह के कार्यक्रम हमें कुछ अलग करने की ताकत और इच्छा देते हैं. यह कार्यक्रम के आयोजन का नौवां साल है और हम इस वर्ष महिलाओं की बढ़ी भागीदारी को देखकर खुश हैं."
दर्जनों महिलाएं, जो डॉक्टर, शिक्षिकाएं और अन्य पेशेवर हैं, अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए 'पिंड दान' कर रही हैं. साथ ही वे गर्भ में मार दी गई अजन्मी बच्चियों के लिए भी पिंडदान कर रही हैं. सेंगर ने कहा कि अजन्मी बच्चियों के लिए 'बेटी बचाओ अभियान' के तहत कार्यक्रम आयोजित किया गया. आयोजक मनोज सेंगर के अनुसार इसकी खास बात यह रही कि 20 साल की उम्र के आसपास की कुछ लड़कियां भी अपने पिता के लिए श्राद्ध कर्म का अनुष्ठान करने के लिए आगे आई हैं.
अलग-अलग धर्मों में अंतिम संस्कार के तरीके भी अलग-अलग है. कहीं शवों को गुफा में रखा जाता है, कहीं जलाया जाता है और कहीं गिद्धों को खाने के लिए छोड़ दिया जाता है. यह काफी हद तक भौतिक स्थिति पर भी निर्भर करता है.
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दाह संस्कार
हिंदू और सिख धर्म में मृत शरीर को लकड़ी की शैय्या पर रखकर जलाने की परंपरा है. छोटे बच्चों को छोड़कर सभी का दाह-संस्कार किया जाता है. बौद्ध धर्म में जलाने और दफनाने दोनों की ही परंपरा है, जो स्थानीय रिवाज से की जाती है. लकड़ी की कमी के चलते अब विद्युत शवदाहगृहों की संख्या बढ़ रही है.
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जल में प्रवाहित करना
हिन्दुओं में जल दाग देने की प्रथा भी है जिसके चलते नदियों में कई बार शव बहते हुए देखे जा सकते हैं. कुछ लोग शव को एक बड़े से पत्थर से बांधकर फिर नाव में शव को रखकर तेज बहाव व गहरे जल में ले जाकर उसे डुबो देते हैं. कई लोग इस प्रथा को अजीबोगरीब बताकर इसका विरोध करते हैं.
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दफनाने की परंपरा
शवों को दफनाने की परंपरा सबसे ज्यादा प्रचलित है. वैदिक काल में हिंदू धर्म के संतों को समाधि दी जाती थी. यहूदियों में दफनाए जाने की परंपरा की शुरुआत हुई. ईसाई धर्म की शुरुआत में मृतकों को चर्च में दफनाया जाता था. बाद में कब्रिस्तान बने. कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट धर्माबलंबियों के अलग कब्रिस्तान हैं. शिया और सुन्नियों के अलग कब्रिस्तान होने के बावजूद उसमें भी कई विभाजन हैं.
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गिद्धों का भोजन
पारसियों में मृतकों को न तो दफनाया जाता है और न ही जलाया जाता है. वे शव को पहले से नियुक्त खुले स्थान पर रख आते थे और आशा करते थे कि उनके परिजन गिद्ध का भोजन बन जाएं. लेकिन आधुनिक युग में यह संभव नहीं और गिद्धों की संख्या भी तेजी से घट गई है. अब वे शव को उनके पहले से नियुक्त कब्रिस्तान में रख देते हैं, जहां पर सौर ऊर्जा की विशालकाय प्लेटें लगी हैं जिसके तेज से शव धीरे-धीरे जलकर भस्म हो जाता है.
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ममीकरण
मिस्र में गिजा के पिरामिडों में ममी बनाकर रखे गए शवों के कारण फराओ साम्राज्य को आज भी एक रहस्य माना जाता है. ये शव लगभग 3,500 साल पुराने हैं. ममी बनाने के पीछे यह धारणा थी कि अगर शवों पर मसाला लगाकर इन्हें ताबूत में बंद कर दफनाया जाए तो एक न एक दिन ये फिर जिंदा हो जाएंगे. ऐसा सिर्फ मिस्र में ही नहीं बल्कि मेक्सिको, श्रीलंका, चीन, तिब्बत और थाइलैंड में भी किया जाता रहा है.
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गुफा में रखना
इस्राएल और मेसोपोटेमिया (इराक) की सभ्यता में लोग अपने मृतकों को शहर के बाहर बनाई गई एक गुफा में रख छोड़ते थे जिसे बाहर से पत्थर से बंद कर दिया जाता था. ईसा को जब सूली पर से उतारा गया तो उन्हें मृत समझकर उनका शव गुफा में रख दिया गया था. प्रारंभिक यहूदियों और उस दौर के अन्य कबीलों में मृतकों को गुफा में रखे जाने का प्रचलन शुरू हुआ.