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अदालतें ही कब तक याद दिलाती रहेंगी

६ नवम्बर २०१५

समान नागरिक संहिता के लिये कोर्ट द्वारा निर्देश दिया जाना कोई पहली बार नहीं हुआ है. शिव जोशी का कहना है कि गुजरात हाई कोर्ट के इस फैसले ने 1985 के शाह बानो केस की याद दिला दी है.

तस्वीर: picture alliance/AP Photo

1985 में मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया था कि वो समान नागरिक संहिता बनाए. इस मामले में, जबानी तौर पर तीन बार तलाक कह देने भर से तलाक दे दिए जाने के बाद शाह बानो ने अपने पति से मुआवजे की मांग की थी. इस पर पूरे देश में बहस हुई लेकिन अंतत: तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला कानून 1986 बनाकर तलाकशुदा महिला को मासिक खर्च दिए जाने के अधिकार को शरीयत कानून के अनुसार ही सीमित कर दिया. ये दलील दी गई कि सुप्रीम कोर्ट ने महज एक राय दी है और समान नागरिक संहिता बनाने के लिये संसद अनिवार्य रूप से बाध्य नहीं है. दलील ये भी थी कि पर्सनल कानूनों से किसी भी कीमत पर छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए जब तक कि इसकी मांग खुद समुदाय विशेष की तरफ से नहीं आए.

प्रगति के बावजूद अफ्रीका में भी बढ़ रहा है बहुविवाहतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Ben Curtis

ऐसा नहीं है कि सिर्फ मुस्लिम महिलाएं ही धार्मिक पर्सनल कानून का खामियाजा भुगत रही हैं बल्कि हिंदू महिलाएं भी इसका शिकार होती हैं. क्योंकि इसमें पुरुषों के लिए बहुविवाह का प्रावधान रखा गया है. ऐसे कई मामले देखे गए हैं कि हिंदू पुरुष ने इसका दुरुपयोग करते हुए इस्लाम धर्म स्वीकार करके दूसरी शादी कर ली. हालांकि सरला मुद्गल बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर कोई पुरुष धर्म परिवर्तन करके दूसरा विवाह करता है तो ये दंडनीय अपराध होगा. इसके बावजूद चूंकि अभी तक कोई समान नागरिक संहिता नहीं बन पाई है लिहाज़ा मुस्लिम पर्सनल लॉ का दुरुपयोग भी जारी है. पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने ईसाई पर्सनल लॉ से जुड़े एक मामले में सुनवाई करते हुए कहा था कि तरह-तरह के धार्मिक पर्सनल लॉ को बनाए रखने से अजीबोगरीब स्थिति बनी हुई है लिहाजा सरकार को समान नागरिक संहिता बनाने में देर नहीं करनी चाहिए.

जर्मनी में बहुप्रेम वाले रिश्ते सामने आ रहे हैंतस्वीर: picture-alliance/dpa/F. Kraufmann

संविधान में नीति निर्देशक तत्त्वों के तहत धारा 44 में इस बात का निर्देश दिया गया है कि राज्य एक समान नागरिक संहिता बनाए लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में और धार्मिक भावनाओं की आड़ में इस पर अभी तक अमल नहीं किया गया. आज समय की जरूरत है कि कम से कम शादी, तलाक और तलाकशुदा महिलाओं के जीवनयापन के खर्चे के बारे में एक समान कानून हो. ये भी एक अजीब स्थिति है कि जैसे जैसे तरक्की, विकास और आधुनिक सोच की नई नई राहें खुल रही हैं, वैसे वैसे खुद को आधुनिक कहने वाले समाजों में धर्म से जुड़ी ग्रंथियां और पेचीदगियां और मसले बढ़ते ही जा रहे हैं. प्रगतिशील तबका खामोश है, गुजरात हाई कोर्ट की टिप्पणी में एक तरह से न जाने क्यों खामोशी बरतते आ रहे प्रगतिशीलों को भी एक आह्वान सरीखा निहित है. बहुविवाह न सिर्फ़ पितृसत्तात्मकता का प्रतीक है बल्कि ये राजनैतिक और अन्य किस्म के स्वार्थों की पूर्ति का भी जरिया चाहे अनचाहे बन जाता है.

दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति अपनी तीन पत्नियों के साथतस्वीर: AP

भारत जैसे महादेश के मामले में ये सच्चाई सिर्फ इस्लाम और ईसाइयत पर ही लागू नहीं होती, हिंदुओं को भी धर्म के मामले में एक उदार नजरिया और खुलापन लाना होगा. आज जो हालात देश में बने हैं और बहुसंख्यकवाद, धर्म को लेकर भीड़ में तब्दील होता जा रहा है तो ये स्थिति देश के अन्य धर्मों में और असुरक्षा पैदा कर रही है, जाहिर है वे अपने डरों मे जीने को विवश होंगे और ऐसा होगा तो इसका फायदा उन समाजों के धार्मिक और राजनैतिक कठमुल्ले तबके उठाएंगे जो किसी भी तरह की प्रगतिशीलता और आधुनिक विचार को हरगिज नहीं आने देना चाहते. वे उन्हें धार्मिक वितंडाओँ में जकड़े रहेंगे.

एक सच्चाई ये भी है कि कोई भी समान संहिता थोपी नहीं जा सकती है. अदालतें इस बारे में जगा रही हैं तो इसमें देर नहीं करनी चाहिए. इसके लिए जाहिर है राजनैतिक दलों, सरकारों, सामाजिक और धार्मिक संगठनों को आगे आना होगा. केंद्र में शासन कर रही बीजेपी समान संहिता की मांग करती रही है, क्या अब वह इतनी हिम्मत और नैतिक साहस जुटा पाएगी. जिस तरह से वो भी एक किस्म के बहुसंख्यकवाद का पोषण करती हुई दिखती रही है, उससे तो इस मामले में किसी बदलाव की उम्मीद करना बेमानी है. हां इस पर वोट की और विभाजन की राजनीति बेशक होती रहेगी.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी

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