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अधर में नगा करार का भविष्य

प्रभाकर७ जुलाई २०१६

नगा जनजाति के भविष्य के लिए आजीवन संघर्ष करने वाले नगा नेता इसाक चिशी स्वू के निधन से नगा समस्या के समाधान पर संशय पैदा हो गया है. केंद्र सरकार ने समझौते की राह में ऐसी बाधाओं से इंकार किया है,

Indien Nagaland Friedensabkommen
तस्वीर: UNI

नेशनल काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के इसाक-मुइवा गुट के संस्थापक रहे इसाक चिशी स्वू नगा आंदोलन के महत्वपूर्ण नेता थे. उनके निधन से नगा समस्या के समाधान पर संशय पैदा हो गया है. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि केंद्र से चल रही बातचीत के दौरान विवादास्पद मुद्दों को सुलझाने में अब तक इसाक की भूमिका अहम रही थी. ऐसे में उनकी मौत से इस प्रक्रिया की राह अब पहले जैसी आसान नहीं होगी.

अब सवाल उठ रहे हैं कि इसाक के बिना केंद्र सरकार और संगठन के बीच बीते साल अगस्त में हुए करार का भविष्य क्या होगा? क्या अब संगठन के दूसरे प्रमुख नेता टी. मुइवा तमाम नगा जनजातियों को एकजुट कर राज्य में स्थायी शांति बहाल करने में सक्षम होंगे? शांति प्रक्रिया में केंद्र के मध्यस्थ और केंद्रीय गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी आर.एन. रवि बार-बार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि करार की शर्तों का इसाक ने अनुमोदन किया था. इससे संकेत मिलता है कि इसाक के नहीं रहने की स्थिति में नगालैंड की तमाम जनजातियां इस करार को स्वीकार करेंगी या नहीं, इस पर केंद्र भी आशंकित है. संगठन के महासचिव मुइवा के बयान में भी यह चिंता झलकती है. उन्होंने कहा है कि इसाक के बिना समस्याएं तो होंगी ही.

तस्वीर: UNI

केंद्र या मुइवा की चिंता बेवजह नहीं है. मुइवा आबादी के लिहाज से सबसे बड़ी नगा जनजाति तंगखुल के हैं जिसकी जड़ें पड़ोसी मणिपुर के उखरूल जिले में हैं. इससे नगालैंड में मुइवा को बाहरी समझा जाता है, जबकि इसाक नगालैंड में रहने वाली सेमा नगा जनजाति के थे. उनको फिजो के बाद नगा जनजाति का सबसे बड़ा नेता माना जाता था. इसाक व मुइवा ने एनएनसी में फिजो के नेतृत्व में ही आंदोलन शुरू किया था. इसाक शांति प्रक्रिया में तमाम नगा गुटों को शामिल करने के पक्षधर थे. उन्होंने इस दिशा में काफी काम भी किया था. लेकिन अब उनके नहीं होने की स्थिति में इस प्रक्रिया को भी धक्का लगा है. अब ऐसे गुट करार की राह में बाधाएं खड़ी कर सकते हैं. नगा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) ने इसाक की मौत के बाद से ही करार की शर्तों पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है.

पुरानी समस्या

नगालैंड में उग्रवाद की समस्या तो आजादी के समय ही शुरू हो गई थी. वर्ष 1952 में हुए चुनावों का बहिष्कार कर चीन के साथ संपर्क करने के कारण भारत सरकार ने 1953 में फिजो की अगुवाई वाले नगा नेशनल काउंसिल पर पाबंदी लगा दी थी. वर्ष 1963 में नगालैंड देश का 16वां राज्य बना. पांच दिसंबर को शिलांग समझौते पर हस्ताक्षर किए गए. लेकिन मुइवा और इसाक ने पांच साल बाद इसे खारिज करते हुए एनएससीएन का गठन किया. आठ साल बाद यह संगठन भी दो-फाड़ हो गया. एक गुट की कमान खापलांग ने संभाली तो दूसरे की इसाक व मुइवा ने. बीते सप्ताह फिर नगालैंड को छह महीने के लिए अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया गया है.

केंद्र सरकार ने 1997 में मुइवा गुट के साथ शांति प्रक्रिया की पहल की थी. उसके अगले साल दोनों पक्षों में युद्धविराम पर सहमति हुई. कभी केंद्र में सरकार बदलने तो कभी किसी दूसरी वजह से इस प्रक्रिया की शर्तों को तय करने में ही लंबा वक्त लग गया. उसके बाद बैठकों का लंबा दौर भी चला. लेकिन इस दौरान भी नगालैंड में समय-समय पर युद्धविराम के उल्लंघन की घटनाएं होती रहीं. एनएएससीएन का खापलांग गुट वर्ष 2015 में शांति प्रक्रिया से अलग हो गया था. वह शुरू से ही शांति प्रक्रिया का विरोधी रहा है. आखिर में बीते साल केंद्र सरकार ने संगठन के साथ एक ऐतिहासिक करार पर हस्ताक्षर किए थे. लेकिन अब तक उसकी शर्तों व प्रावधानों का खुलासा नहीं किया गया है. नगा करार का भविष्य पहले से ही कई अनुत्तरित सवालों पर टिका था. अब स्वू की मौत ने इसकी राह को और जटिल बना दिया है.

मुइवा का दावा है कि केंद्र ने यह बात स्वीकार कर ली है कि नगा समस्या राजनीतिक और अनूठी है. इसका समाधान भी सेना से नहीं हो सकता. लेकिन सवाल यह है कि क्या यह इतनी अनूठी है कि इसका समाधान भी अनूठे तरीके से और शांति के साथ निकलेगा?

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