1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

अपनी जासूसी कराता जर्मनी

२ जुलाई २०१३

ब्रिटेन और अमेरिकी जासूसी को लेकर भले ही दुनिया भर में हंगामा हो रहा हो लेकिन जर्मनी इस पर खामोश बैठा है. वजह यह कि इस जासूसी से वह खुद भी फायदा उठाता आया है.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

पिछले हफ्ते जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा जर्मनी की राजधानी बर्लिन पहुंचे, तो मैर्केल ने इस बारे में सिर्फ इतना कहा कि इस तरह आंकड़े जमा करने के मामले में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसका फायदा "सही अनुपात में" हो रहा हो.

इस बात की खास वजह थी कि मैर्केल ने खुल कर इस बारे में विरोध प्रदर्शन नहीं किया. इंटरनेट की जो जासूसी हो रही थी, उनमें से ज्यादातर सार्वजनिक पहचान वाले लोगों की थी, जिनके बारे में लोगों को पहले से ही पता है.

इंटरनेट पर लगातार नजरतस्वीर: AFP/Getty Images

जर्मन जासूस भी ऑनलाइन पड़ताल करते आए हैं और ज्यादातर बिना किसी शक के. जर्मनी की खुफिया एजेंसी बीएनडी कानूनी तौर पर जर्मनी से दूसरे देशों के बीच हो रहे लगभग 20 फीसदी संवाद की निगरानी करती आई है.

बीएनडी को ज्यादा पैसा

मुश्किल इस बात की है कि भले ही बीएनडी के पास निगरानी का कानूनी अधिकार है लेकिन उसकी क्षमता उतनी नहीं जितना उसका अधिकार है. जर्मन पत्रिका "डेयर श्पीगल" के मुताबिक एजेंसी फिलहाल सिर्फ पांच प्रतिशत डाटा ट्रैफिक पर नजर रख पा रही है. इसलिए बीएनडी अपनी क्षमता बढ़ाने की योजना बना रही है और इसमें 100 नए अधिकारियों को शामिल करना चाहती है. इसके लिए 10 करोड़ यूरो की जरूरत है, जो उसे अभी नहीं मिला है.

दो साल पहले 2011 में बीएनडी ने 3,30,000 टेलीफोन संदेशों को छांटा है, जिनकी बारीकी से जांच की जानी है. यह काम सिर्फ आतंकवाद के क्षेत्र में किया गया है. इस बारे में मार्च 2013 में एक संसदीय नियंत्रण समिति ने रिपोर्ट दी है. समिति में 11 सांसद हैं, जो पूरे जर्मन खुफिया तंत्र को देख रहे हैं. बीएनडी के अलावा इसमें संवैधानिक सुरक्षा कार्यालय और सेना की आतंकवाद निरोधी सेवा भी है.

सूचना लेता जर्मनी

अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) और ब्रिटिश सरकार की कम्युनिकेशन मुख्यालय (जीसीएचक्यू) बेहद ताकतवर संस्थाएं हैं और उनके मुकाबले जर्मन एजेंसी कमजोर है. जर्मन खुफिया मामलों के जानकार एरिक श्मिट-एनबोम का कहना है कि यहां काम करने वालों की संख्या से ही मामला साफ हो जाता है, "एनएसए में 60,000 लोग काम करते हैं, बाहर के भी बहुत लोगों से काम लिया जाता है, जबकि समझा जाता है कि जीसीएचक्यू के लिए कोई 15,000 लोग काम कर रहे हैं."   बीएनडी के बाहरी इलेक्ट्रॉनिक संदेश विभाग में सिर्फ 1,500 लोग काम करते हैं.

ब्रिटिश खुफिया एजेंसी जीसीएचक्यूतस्वीर: picture-alliance/dpa

चूंकि बड़े देशों की सुरक्षा एजेंसियां अपने आंकड़े आपस में साझा करती हैं, खास तौर पर आतंकवाद से सुरक्षा के मामले की. ब्रिटेन और अमेरिका के सूचनाओं का फायदा जर्मनी भी उठाता है.

इसका खास फायदा तब होता है, जब मामला किसी जर्मन नागरिक से जुड़ा हो क्योंकि आम तौर पर बीएनडी को ऐसे लोगों की गुपचुप सूचना इकट्ठा करने की इजाजत नहीं है. घरेलू स्तर पर किसी भी तरह की जासूसी की जवाबदेही जर्मन संवैधानिक सुरक्षा कार्यालय की जिम्मेदारी है. इस पर निजता का बेहद सख्त कानून लागू किया जाता है.

डीडब्ल्यू के साथ बातचीत में नियंत्रण समिति के सदस्य सांसद हार्टफ्रीड वोल्फ ने कहा, "बेशक, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अमेरिकी खुफिया विभाग ने उन तरीकों से सूचनाएं हासिल की हैं, जिनके बारे में हमें पता तक नहीं और जर्मनी के अंदर हम जिन्हें इस्तेमाल भी नहीं कर सकते."

लाखों फोन पर निगरानी

बीएनडी के पूर्व प्रमुख हांस गेयॉर्ग वीक का कहना है कि यह अच्छी बात है कि खुफिया विभाग आपस में सूचनाएं बांटती हैं, "अगर ऐसा न हो, तो घरेलू स्तर पर तैयार होने वाली आतंकवादी साजिशों के बारे में कैसे पता चलेगा, जब आपके पास इन सूचनाओं को इकट्ठा करने की इजाजत ही नहीं है."

जर्मन पत्रिका "डेयर श्पीगल" ने रिपोर्ट दी है कि एनएसए हर महीने जर्मनी के लगभग 50 करोड़ टेलीफोन संदेशों को जांचता है, जिनमें बातचीत के अलावा ईमेल, एसएमएस और चैट भी शामिल हैं. एनएसए औसतन हर दिन जर्मनी के लगभग दो करोड़ फोन संदेशों की पड़ताल करता है.

दोस्तों पर निगरानी

सच्चाई यह है कि मित्र देश भी आपस में जासूसी कर रहे हैं. अमेरिका ने वॉशिंगटन में रहने वाले यूरोपीय संघ के प्रतिनिधियों की जासूसी कराई है. ब्रिटिश अखबार "द गार्डियन" के मुताबिक जीसीएचक्यू ने भी 2009 में मित्र देशों की जासूसी की.

इनटेल एक्सपर्ट श्मिट-ईनबूम का कहना है कि उन्होंने अपना काम किया, "एजेंसियों को सिर्फ राष्ट्रीय सुरक्षा और गंभीर अपराधों पर ही ध्यान नहीं रखना है, बल्कि ग्रेट ब्रिटेन के आर्थिक हितों का भी ख्याल रखना है."

और अगर सरकारें आतंकवाद के खिलाफ युद्ध के नाम पर जासूसी कर भी रही थीं, तो आम लोगों को इस बारे में पता नहीं चल सकता क्योंकि यह काम खुफिया तरीके से होता है.

रिपोर्टः मार्कुस लुटिके/एजेए

संपादनः मानसी गोपालकृष्णन

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें
डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी को स्किप करें

डीडब्ल्यू की टॉप स्टोरी

डीडब्ल्यू की और रिपोर्टें को स्किप करें