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अपने घर भी नहीं जा सकते जख्मी अफगान पूर्व सैनिक

९ अगस्त २०१७

अफगानिस्तान के पूर्व सैनिक मतिउल्लाह व्हीलचेयर बास्केटबॉल खेलते हैं और यूनिवर्सिटी जाते हैं. वह चंद खुशकिस्मत लोगों में से हैं क्योंकि यहां हजारों पूर्व सैनिक जिंदगी का सामना बड़ी मुश्किलों में कर रहे हैं.

Kriegsveteranen in Afghanistan
तस्वीर: picture-alliance/C. F. Röhrs

छोटे से कमरे में मॉनिटरों की बीप बीप लगातार सुनायी दे रही है. बिस्तरों पर कई पुरुष लेटे हुए हैं और उनमें ज्यादातर बेहोश हैं. कईयों के गले में नली लगी हुई है. ये काबुल के सैन्य अस्पताल की इंटेसिव केयर यूनिट यानी आईसीयू है. दरवाजे के पास पहले बिस्तर पर अफगान पुलिस के एक अधिकारी हैं जिनकी गर्दन में गोली लगने के बाद गले से नीचे के हिस्से में लकवा मार गया. वह जगे हुए हैं लेकिन उनके लिए अब कुछ नहीं किया जा सकता. उनके डॉक्टर बताते हैं, "वह अगले दो तीन दिनों में मर जायेंगे." मरीज के मुंह से हल्की सी फुसफुसाहट आयी, "पानी" तो नर्स जल्दी से उठकर वहां पहुंची. इससे अगले बिस्तर पर अफगान सेना का एक सैनिक है. बारूदी सुरंग फटने से उनका सिर जख्मी है. उनके बगल में एक सैनिक है जिसके पेट में गोली लगी है. अफगानिस्तान के सुरक्षा बलों के लिए स्वास्थ्य सेवा का यह सबसे बड़ा केंद्र है. देश के बेहतरीन डॉक्टर यहां सबसे बुरे हाल से गुजर रहे मरीजों का इलाज कर रहे हैं.

तस्वीर: picture-alliance/C. F. Röhrs

अफगानिस्तान में सेना के कुल छह अस्पताल हैं लेकिन कई अस्पतालों में ऐसी सुविधा नहीं है कि बुरी तरह जख्मी मरीजों का इलाज किया जा सके. यहां की जंग में हर गुजरते दिन के साथ इस तरह के मरीजों की तादाद बढ़ती जा रही है. 2014 में नाटो का युद्धक अभियान खत्म होने के बाद तालिबान बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है. उसके लड़ाके ज्यादा से ज्यादा सैनिकों को मार रहे हैं, जख्मी कर रहे हैं. 2017 के केवल पहले चार महीनों में ही 2,531 सुरक्षाकर्मी मारे गये जबकि 4,238 घायल हुए. 1 अगस्त को अफगानिस्तान पुनर्निर्माण के विशेष महानिरीक्षक ने अपनी तिमाही रिपोर्ट जारी की है. अमेरिकी संसद ने अफगानिस्तान में हालात पर नजर रखने के लिए इस संस्था का गठन किया है. 2016 में 7000 अफगान सुरक्षाकर्मियों की मौत हुई जबकि करीब 12 हजार घायल हुए.

तस्वीर: picture-alliance/C. F. Röhrs

काबुल के अस्पताल के दूसरे वार्ड में वे लोग हैं जिनके अंगों को युद्ध में जख्मी होने के बाद काटना पड़ा. इनमें से ज्यादातर तालिबान के आईईडी के शिकार बने. तालिबान ने पूरे देश में हजारों आईईडी लगाये हैं. लोगार प्रांत के अब्दुल राकिम कुंदुज प्रांत में जख्मी हुए और उनके दो दो अंग काटने पड़े. वह अपने घर भी नहीं जा सकते क्योंकि अब उनमें लड़ने की ताकत नहीं बची. राकिम के कूल्हे से छर्रे का आखिरी टुकड़ा निकालने वाले डॉक्टर ने बताया, "(तालिबान) लड़ाके उसके जख्मों के कारण जानते हैं कि वह सेना था और उसे धमकियां मिली हैं." राकिम अस्पताल में ही बने एक कामचलाऊ आवास में रहते हैं. वह उन्हीं जैसे लोगों के लिए बना है जो अपने घर नहीं जा सकते. यहां 40 बिस्तर हैं जो हमेशा भरे रहते हैं. इनमें से कई तो ऐसे हैं जो पूरी जिंगकी के लिए अपाहिज हो गये हैं.

गैर सरकारी संगठन हेल्प फॉर हीरोज के अली अकबर जाफरी कहते हैं, "समस्या यह है कि सरकार के पास इस तरह के अपाहिज मरीजों से निबटने के लिए पैसे नहीं है." इस संगठन ने अपना पहला दफ्तर काबुल में एक साल पहले खोला है और पूर्व सैनिकों को मनोवैज्ञानिक, डॉक्टरी और कानूनी मदद की सेवा मुहैया करायी है. जहां सरकार से कमी रहती है वे आगे आकर मदद की कोशिश करते हैं.

तस्वीर: picture-alliance/C. F. Röhrs

सेना और पुलिस के लिए जिम्मेदार गृह और रक्षा मंत्रालय पूर्व सैनिकों और पुलिसकर्मियों से जुड़ी जिम्मेदारियों को श्रम, सामाजिक कल्याण और शहीद एवं विकलांग मंत्रालय को सौंपने की प्रक्रिया में हैं. मंत्रालय पूर्व सैनिकों को वेतन का भुगतान करता है. सेना से हटने के बाद भी पूरी तनख्वाह मिलती है हालांकि ये रकम बहुत थोड़ी है. आमतौर पर सैनिकों को 10 हजार रुपये प्रति महीने के आसपास मिलते हैं. मंत्रालय से सहायता मांगने वाले विकलांगों की तादाद केवल बीते साल ही 20-25 फीसदी रही है और जबकि बजट में कोई इजाफा नहीं हुआ है. मंत्रालय के सामने एक पूर्व सैनिक है जिसके दोनों पैर नहीं है. वह कई महीनों से पैसों का इंतजार कर रहा है.

बजट की कमी से इनकी स्वास्थ्य सेवाओं पर भी असर पड़ा है. ये लोग मुफ्त चिकित्सा के हकदार हैं लेकिन सेना के डॉक्टर अकसर ऐसा इलाज लिख देते हैं जो अफगानिस्तान में नहीं हो सकता. इनके लिए अपने दम पर देश के बाहर जाना और इलाज करा पाना मुश्किल है.

तस्वीर: picture-alliance/C. F. Röhrs

मतिउल्लाह के दोनों पैर 2009 में चले गये. वह कहते हैं, "शुरुआत में तो मैं घबराया लेकिन फिर यूट्यूब पर वीडियो देखना शुरू किया कि दुनिया के बाकी हिस्सों में ऐसे लोग कैसे रहते हैं." अब मतिउल्लाह काबुल की अंतरराष्ट्रीय रेड क्रॉस सेंटर में व्हीलचेयर बास्केटबॉल खेलते हैं, तैरते हैं और यूनिवर्सिटी जाते हैं. यह सब वह हेल्प फॉर हिरोज में नौकरी करते हुए करते हैं. हालांकि मतिउल्लाह के साथ यह अच्छी बात है कि वह राजधानी में रहते हैं, पढ़े लिखे हैं और उनका परिवार मध्यमवर्गीय है जो उन्हें ठीक होने में आर्थिक मदद भी देता है. अफगानिस्तान के ज्यादातर पूर्व सैनिकों के पास ऐसी सुविधाएं नहीं हैं.

एनआर/एके (डीपीए)

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