विश्व जलवायु सम्मेलन के महज कुछ दिन पहले संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट जारी की है. जलवायु परिवर्तन से जुड़ी यह रिपोर्ट पेरिस जलवायु समझौते में शामिल देशों की प्रतिबद्धताओं पर सवाल उठाती है.
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संयुक्त राष्ट्र इन दिनों विश्व जलवायु सम्मेलन की तैयारी में जुटा है. दो हफ्ते तक जर्मनी के शहर बॉन में चलने वाले जलवायु सम्मेलन में तकरीबन 200 देशों के लोग शामिल होंगे. लेकिन इस बीच संयुक्त राष्ट्र ने एक रिपोर्ट जारी की है जो पेरिस जलवायु समझौते में शामिल देशों की प्रतिबद्धताओं पर सवाल उठाती है. रिपोर्ट के मुताबिक इन देशों के मौजूदा लक्ष्य साल 2030 तक उत्सर्जन में महज एक तिहाई की कमी लायेंगे. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम(यूनईपी) की रिपोर्ट कहती है, "समस्या देश की सरकारों के साथ नहीं है बल्कि यहां के निजी क्षेत्र और स्थानीय सरकारों की ओर से है, जो इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं."
पेरिस जलवायु समझौता मूल रूप से वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने से जुड़ा है. साथ ही यह समझौता सभी देशों को वैश्विक तापमान बढ़ोत्तरी को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने की कोशिश करने के लिए भी कहता है. तभी जलवायु परिवर्तन के खतरनाक प्रभावों से बचा जा सकता है. रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर समझौते में शामिल देश अपने तय राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल कर भी लेते हैं तब भी तापमान 3 डिग्री तक बढ़ सकता है. इस स्टडी में अमेरिका को शामिल नहीं किया गया था. यूएनईपी प्रमुख एरिक सोलहाइम इसे एकदम अस्वीकार्य बताते हैं. उन्होंने कहा, "पेरिस समझौते के लागू होने के एक साल बाद भी हम अपने आप को ऐसी स्थिति में पा रहे हैं जहां हम आने वाली पीढ़ियों के अच्छे भविष्य के लिए कुछ नहीं कर सकते."
जलवायु परिवर्तन पर दुनिया का रुख रहा सुस्त
ब्रिटेन की साइंस पत्रिका लैंसेट में छपी एक रिपोर्ट मुताबिक जलवायु परिवर्तन का साल 2000 के बाद से मानव स्वास्थ्य पर बेहद ही बुरा असर पड़ा है. गर्म हवायें और बीमारियों में वृद्धि हुई है और फसलों पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है.
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सुस्त कदम
रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 25 सालों में ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए बेहद ही सुस्त कदम उठाये गये जिसने मानवीय जीवन और आजीविका को खतरे में डाल दिया है.
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स्पष्ट प्रभाव
स्टडी के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव स्पष्ट हैं और ये नहीं बदलते हैं. साइंस पत्रिका में छपी इस रिपोर्ट को कई विश्वविद्यालयों समेत विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन(डब्ल्यूएचओ) ने मिलकर तैयार किया है.
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अमेरिका बाहर
हालांकि अब दुनिया के कई देश पेरिस जलवायु समझौते के तहत ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अमेरिका जैसा बड़ा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश अब इस समझौते से बाहर चला गया है.
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बुजुर्गों पर खतरा
रिपोर्ट के मुताबिक साल 2000 से 2016 के दौरान दुनिया के तकरीबन 12.5 करोड़ लोग हर साल गर्म हवाओं के संपर्क में आते रहे, इसमें बुजुर्गों के स्वास्थ्य पर विशेष रूप से जोखिम बना रहा और इनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ा.
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डेंगू के मामले
जलवायु और स्वास्थ्य से जुड़े 40 मानकों के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते दुनिया में डेंगू के मामले बढ़े हैं जिसके चलते सालाना 10 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं.
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क्षमता घटी
कृषि मजदूरों की उत्पादकता में साल 2000 के बाद से तकरीबन 5.3 फीसदी की कमी आई है, भारत और ब्राजील जैसे देशों में गर्मी बढ़ने के चलते मजदूरों और श्रमिकों की कार्य क्षमता घटी है.
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कुपोषण
जलवायु परिवर्तन का सबसे बड़ा प्रभाव कुपोषण के रूप में सामने आया है. रिपोर्ट मुताबिक अफ्रीका और एशिया के करीब 30 देशों में कुपोषण के मामले बढ़े हैं, साल 1990 में कुपोषण से जुड़े मामलों की संख्या 39.8 करोड़ थी जो साल 2016 में 42.2 करोड़ तक पहुंच गई.
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प्राकृतिक आपदायें
तूफान और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में भी साल 2000 के बाद से 46 फीसदी की वृद्धि हुई है. हालांकि इसमें जान जाने के मामलों में वृद्धि नहीं हुई है. कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि प्रशासन ने प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए कदम उठाये हैं.
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आगे भी असर
स्टडी में जलवायु परिवर्तन के चलते अब तक कितनी जानें गयी हैं इसका तो कोई आंकड़ा पेश नहीं किया गया है लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपने एक अध्ययन में कहा था कि साल 2030 से 2050 के बीच ये आंकड़ा 2.5 लाख तक पहुंच सकता है.
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बॉन में उम्मीदें
इन नतीजों के बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन के निदेशक और लैंसेट काउंटडाउन स्टडी के सहअध्यक्ष कर रहे एंथनी कोस्टेलो को अब भी उम्मीद नजर आती है. शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि बॉन में होने वाली जलवायु परिवर्तन कांफ्रेस पर इन मसलों पर विस्तार से चर्चा होगी.
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रिकॉर्ड कार्बन उत्सर्जन
संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट, विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्ल्यूएमओ) की उस रिपोर्ट के बाद आई हैं जिसमें कहा गया है कि वातावरण में कार्बन डायऑक्साइड की सघनता रिकॉर्ड स्तर पर है और इसकी सघनता वातावरण में पिछले 8 लाख सालों के मुकाबले सबसे अधिक है. डब्ल्यूएमओ के ग्रीनहाउस गैस बुलेटिन के मुताबिक, साल 2016 में कार्बन डायऑक्साइड का स्तर 403.3 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) था जो साल 2015 में 400 पीपीएम दर्ज किया गया था. पीपीएम मापन की एक इकाई है इसका इस्तेमाल मिट्टी, पानी या वातावरण में किसी तत्व की सघनता को जानने के लिए किया जाता है. मसलन एक लीटर पानी में एक मिलीग्राम पानी की मात्रा को एक पीपीएम कहा जायेगा.
क्या किया जा सकता है
जलवायु सम्मेलन के चंद दिनों पहले जारी की गयी यह रिपोर्ट बॉन में होने वाली बातचीत पर असर डाल सकती है. हालांकि रिपोर्ट ने जलवायु लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कुछ सुझाव भी दिये हैं. मसलन तकनीक में निवेश सालाना 30 से 40 गीगाटन कार्बन उत्सर्जन को कम कर सकता है. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक कृषि, निर्माण क्षेत्र, ऊर्जा, वन, कारोबार और परिवहन क्षेत्रों में तकनीकी निवेश कर बड़ी मात्रा में उत्सर्जन कम किया जा सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक अगर ऐसा किया जाता है तो दुनिया पेरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल कर सकेगी.
पर्यावरण के सामने खड़ी पांच बड़ी चुनौतियां
पर्यावरण के लिहाज से इंसान के सामने पांच बेहद गंभीर संकट हैं. एक नजर इन मुश्किलों पर.
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1. वायु प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन
आबोहवा और समुद्री जल कार्बन से भर चुका है. वातावरण में घुली सीओटू पराबैंगनी विकिरण को सोखती और छोड़ती है. इससे हवा गर्म, जमीन और पानी गर्म होते हैं. इस प्रक्रिया के बिना धरती बर्फीली हो जाएगी. लेकिन हवा में कार्बन की अति से सेहत को नुकसान पहुंच रहा है और गर्म होती धरती जलवायु परिवर्तन का सामना भी कर रही है.
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2. जंगलों की कटाई
कई प्रकार के पौधों और जन्तुओं को आसरा देने वाले जंगल काटे जा रहे हैं. खासकर वर्षावनों वाले इलाके में. जंगल कार्बन सोखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं. लेकिन जंगलों को काटकर सोयाबीन, ताड़ और दूसरे किस्म की खेती की जा रही है. आज धरती का 30 फीसदी हिस्सा जंगलों से ढंका है. लेकिन हर साल 73 लाख हेक्टेयर जंगल काटे जा रहे हैं.
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3. लुप्त होती प्रजातियां
जमीन पर जंगली जानवर शिकार, दांत, खाल या दूसरी चीजों के लिए मारे जा रहे हैं. समुद्र में औद्योगिक स्तर पर मछली मारने से जलीय जीवन का संतुलन गड़बड़ा रहा है. धरती पर हर एक पौधा और प्राणी बाकी दूसरी चीजों से जुड़ा हुआ है. इस चेन की कड़ियां टूटती गई तो इंसान को भी मुश्किल होगी.
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4. मिट्टी का क्षरण
अत्यधिक खाद के इस्तेमाल, एक जैसी खेती और जरूरत से ज्यादा चारा काटने की चलते दुनिया भर में मिट्टी की क्वालिटी खराब हो रही है. यूएन के मुताबिक हर साल 1.2 करोड़ हेक्टयेर जमीन खराब होती जा रही है.
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5. अति आबादी
इंसान की आबादी तेजी से बढ़ती जा रही है. 20वीं शताब्दी के शुरू में दुनिया की आबादी 1.6 अरब थी, आज यह 7.5 अरब है और 2050 तक 10 अरब हो जाएगी. इतनी विशाल आबादी प्राकृतिक संसाधनों पर भारी बोझ डाल रही है. संसाधनों तक पहुंचने की होड़ के चलते अफ्रीका और एशियाई महाद्वीप में विवाद भी होने लगे हैं.