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Afghanistan-Konferenz

४ दिसम्बर २०११

दस साल पहले पेटर्सबर्ग घोषणा में तय किया गया था कि अफगानिस्तान को तालिबान से मुक्त कर, वहां शांति और लोकतंत्र की स्थापना की जाएगी. 2011 में बॉन में उन फैसलों को दोबारा परखा जा रहा है.

पहली वार्ताएं बॉन के पास पेटेर्सबर्ग में 2001 में हुई थीं.तस्वीर: AP

2001 में जर्मन शहर बॉन के पास आयोजित पेटर्सबर्ग सम्मेलन को अफगानिस्तान के भविष्य के लिए मार्गदर्शक माना जाता है. संयुक्त राष्ट्र की ओर से बढ़ते दबाव को देखते हुए कई सामाजिक संगठन वहां एक लोकतांत्रिक ढांचे की स्थापना पर एकमत हुए. पेटर्सबर्ग समझौते में अफगानिस्तान को एक बेहतर भविष्य प्रदान करने की बात की गई. साथ ही तालिबान के बर्बर शासन को हमेशा के लिए खत्म करने और अल कायदा जैसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी गुटों का अफगानिस्तान से हमेशा के लिए सफाया करने पर फैसला किया गया.

अफगानिस्तान के लिए बड़ा दिन

पेटेर्सबर्ग में पूर्व जर्मन चांसलर गेरहार्ड श्रोएडर के साथ करजईतस्वीर: AP

2001 में उस वक्त के जर्मन चांसलर गेरहार्ड श्रोएडर ने सम्मेलन के खत्म होने पर कहा, "इतने वर्षों से हो रहे जंग, आतंक, गरीबी और निराशा के बाद अफगान लोगों को पहली बार - और यह सबसे अहम बात है - शांति और अर्थव्यवस्था को लेकर एक ठोस दृष्टिकोण मिला है."

अफगानिस्तान के लिए नई शुरुआत के अंतर्गत देश में एक लोकतांत्रिक संविधान को लागू करने और संसद और राष्ट्रपति चुनाव कराना तय किया गया. अंतरराष्ट्रीय समुदाय अफगानिस्तान को वित्तीय मदद देने पर राजी हुआ. पेटर्सबर्ग समझौते के फैसलों को एक के बाद एक कार्यान्वित तो किया गया, लेकिन अफगानिस्तान में स्थिरता और बेहतरी आने के आसार नहीं दिखे.

स्थानीय नेताओं का बोल बाला

ठोस रूपरेखा तो नहीं बनी, लेकिन तालिबान अब भी अंतरराष्ट्रीय सेना पर भारी पड़ रहा हैतस्वीर: AP

राजनीतिक मामलों के समीक्षक सैफुद्दीन सैहोन आलोचना करते हुए कहते हैं कि पेटर्सबर्ग सम्मेलन अफगानिस्तान के लिए सही दिशा नहीं तय कर पाई. अफगानिस्तान में सत्ताशून्य पैदा होने के डर से कबायली नेताओं को अपनी मनमानी करने के लिए छोड़ दिया गया. इसका नतीजा बहुत बुरा साबित हुआ, "अंतरराष्ट्रीय समुदाय की हामी के बाद अलग अलग सैन्य गुटों के प्रतिनिधियों ने अफगान राष्ट्र को बांट दिया." सैहोन के मुताबिक कबायली नेता अपनी जेबों में पैसे भरते रहे, उन्होंने कभी अफगानिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना को गंभीरता से नहीं लिया.

बॉन में हुए सम्मेलन के दस साल बाद अफगानिस्तान में जंग, गरीबी, नशीले पदार्थों की तस्करी और भ्रष्टाचार आम लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं. वहां तैनात अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा बल आइसैफ के लगभग एक लाख 50 हजार सैनिक इस हालत में नहीं है कि वे स्थिति को काबू में कर सकें. तालिबान और उससे संबंधित संगठन पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर हो कर उभरे हैं.

आम लोग गरीबी में जी रहे हैंतस्वीर: AP

कोई रूपरेखा नहीं

जर्मनी के डुइसबुर्ग विश्वविद्यालय में दक्षिण एशिया के जानकार यॉखेन हिपलर कहते हैं कि अफगानिस्तान को लेकर कोई ठोस रूपरेखा नहीं बनाई गई, "यह बात साफ नहीं थी कि मसौदे में किस मुद्दे पर जोर दिया जाना चाहिएः अफगानिस्तान में लोकंतत्र की स्थापना, आंतकवाद को खत्म करने या एक नए राष्ट्र के गठन को. कई मुद्दों को ध्यान में रखा गया लेकिन एक ठोस रणनीति नहीं बनाई जा सकी. प्रारंभिक तौर पर रणनीति पिछले एक ही साल से बनाई जा रही है."

लेकिन इस वक्त, जिस मसौदे को रणनीति का नाम दिया जा रहा है, वह असल में सैनिकों की वापसी की योजना है. अंतरराष्ट्रीय सेना के लौटने के बाद 2014 से अफगान सरकार को खुद अपनी सुरक्षा का जिम्मेदार होना होगा. हिपलर के मुताबिक, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अफगानिस्तान में दस साल पहले हुई "नई शुरुआत" के दस साल बाद भी अफगानिस्तान के लिए शांति बहुत दूर की बात है.

हिचकिचाती प्रगति

लेकिन हालात केवल बिगड़े नहीं है. समीक्षक सैफुद्दीन सैहोन का कहना है कि देश कुछ मामलों में सफल भी हुआ है, "अफगानिस्तान में टेलिकॉम, शिक्षा और मूलभूत संरचनाओं में काफी प्रगति हुई है. और सबसे अहम बात यह है कि तालिबान अब हमारी सरकार में नहीं हैं."

साथ ही देश में प्रेस की आजादी के बाद मीडिया भी भरपूर तरीके से उभर रही है. लेकिन यह सफलताएं भी इस वक्त बहुत ही कमजोर बुनियाद पर खड़ी हैं. सैहोन भी मानते हैं कि विदेश से आ रही मदद के बिना अफगानिस्तान का बुनियादी ढांचा चरमरा जाएगा.

रिपोर्टः रतबिल शामेल/एमजी

संपादनः महेश झा

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