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विवाद

अफगानिस्तान के नामी लड़ाके अब मायूस बुजुर्ग बन चुके हैं

२३ दिसम्बर २०१९

24 दिसंबर 1979 के दिन अफगानिस्तान में सोवियत संघ की ताकतवर सेना तैनात होने लगी. सोवियत सेना की मदद करने वाले और उसके खिलाफ लड़ने वाले आज 40 साल बाद अपने लहुलूहान अफगानिस्तान को देखकर मायूस हैं.

Afghanistan Wrack eines russischen T64 Panzer
तस्वीर: Getty Images/AFP/G. Gobet

कड़ाके की सर्दियों में, सिद्दिक रसूलजई के सामने काबुल में रूसी सेना के टैंक दाखिल हुए. रसूलजई तब किशोर ही थे. उस घटना को याद करते हुए वह कहते हैं, "मुझे पता ही नहीं था कि ये युद्ध है. मेरे माता पिता कहते थे कि जो कुछ फलीस्तीन में हो रहा है, वह युद्ध है. मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि ऐसा हमारे बीच भी होगा, और वो भी 40 साल तक."

1985 में रसूलजई, सोवियत समर्थित अफगान सेना में भर्ती हो गए. उन्होंने तीन साल से ज्यादा सेना में काम किया. वह बताते हैं कि सोवियत संघ ने काबुल को चमका दिया था. नई नई रिहाइशी इमारतें बन रही थीं, उनमें सेंट्रल हीटिंग भी थी. सड़कें बन रही थीं और यहां तक कि इलेक्ट्रिक बस सिस्टम का काम भी चल रहा था. रसूलजई कहते हैं, "मुझे कम्युनिस्ट पंसद थे. वे पढ़े लिखे थे, मुजाहिद्दीनों की तरह नहीं थे."

लेकिन शीत युद्ध के उस दौर में अफगानिस्तान में सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव को खत्म करने के लिए अमेरिका और पाकिस्तानी सेना साथ आए. दोनों ने मिलकर मुजाहिद्दीनों को खड़ा किया. उन्हें हथियार और संसाधन दिए. अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट सत्ता को बचाने आए सोवियत सैनिकों पर धीरे धीरे ये मुजाहिद्दीन भारी पड़ने लगे. सोवियत संघ के लिए युद्ध बहुत ही खर्चीला और जनहानि वाला साबित हुआ. उसी दौरान सोवियत संघ के अन्य हिस्सों में भी गृह युद्ध भड़कने लगे, जो सोवियत संघ के विघटन के बाद ही थमे. बढ़ते बाहरी और भीतरी दबाव के चलते फरवरी 1989 में आखिरकार सोवितय संघ की सेना अफगानिस्तान से निकल गई.

अफगानिस्तान से लौटती सोवियत सेनातस्वीर: AP

अफगानिस्तान के कई इलाकों में आज भी सोवियत संघ के ध्वस्त टैंकों और हेलिकॉप्टरों के ढांचे दिखते हैं. काबुल और मजार ए शरीफ जैसे शहरों में आज भी सोवियत वास्तुकला के नमूने प्रमुखता से दिखते हैं.

सोवियत संघ के अफगानिस्तान से निकलने के साथ ही मुजाहिद्दीन ताकतवर होते चले गए. उन्होंने सोवियत संघ के समर्थन वाली सैन्य ताकत को पूरी ताकत से कुचलना शुरू किया. 1990 के मध्य में मुजाहिद्दीन आंदोलन से निकले संगठन तालिबान ने देश की सत्ता पर भी नियंत्रण कर लिया. उदार समाज वाले अफगानिस्तान को शरिया कानून वाले देश में तब्दील कर दिया. अंतरराष्ट्रीय समुदाय की नजर में अफगानिस्तान एक नजरअंदाज किया जाने वाला इलाका बन गया.

लेकिन 11 सितंबर 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद अफगान संघर्ष में एक नया मोड़ आया. हमलों के बाद अमेरिका ने फौरन अफगानिस्तान में दाखिल होकर तालिबान और अल कायदा पर सैन्य कार्रवाई शुरू कर दी. बाद में नाटो की अगुवाई वाली इंटरनेशनल सिक्योरिटी असिस्टेंस फोर्स भी युद्ध में दाखिल हुई. अब करीब दो दशक गुजरने के बाद अफगानिस्तान से अंतरराष्ट्रीय गठबंधन वाली सेना निकल चुकी है. अमेरिका भी वहां से निकलने का एलान कर चुका है.

सोवियत फौज के खिलाफ लड़ने वाले मुजाहिद्दीनतस्वीर: picture-alliance/dpa

2015 रसूलजई अफगानिस्तान से भागकर भारत आ गए. अब वह नई दिल्ली में एक छोटी सी दुकान चलाते हैं. गुजारा बड़ी मुश्किल से चलता है. रसूलजई कहते हैं, "अफगानिस्तान में मेरे पास सब कुछ था. लेकिन अब मेरे पास सुरक्षा के अलावा और कुछ नहीं." रसूलजई को लगता है कि अमेरिकी सेना की वापसी के बाद अफगानिस्तान में हालात और भयावह होंगे.

अफगानिस्तान में सोवियत सेना के खिलाफ लड़ने वाले पूर्व मुजाहिद्दीन शाह सुलेमान की सोच भी बहुत अलग नहीं है. संघर्ष में अपनी एक आंख खोने वाले शाह सुलेमान अब 62 साल के हो चुके हैं. वह कहते हैं, "जब हम सोवियत के खिलाफ लड़ रहे थे तब हमें एक अच्छे भविष्य की उम्मीद थी. लेकिन दुर्भाग्य से हालात और खराब हो गए."

24 दिसंबर 1979 में हुए सोवियत संघ के सैन्य दखल की 40वीं बरसी आ चुकी है. ऐसी बरसी जिसमें 20 लाख अफगानों और 14,000 सोवियत सैनिकों की मौत की कहानियां छुपी हैं. जिस अफगानिस्तान में कभी सोवियत संघ के छह लाख से ज्यादा सैनिक घूमते थे, जहां लाखों की संख्या में अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के सैनिक भी मौजूद रहे, वहां एक अंतहीन सा दिखता संघर्ष जारी है.

ओएसजे/एके (एएफपी)

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