विदेश मंत्री एस जयशंकर के ईरान के नए राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण शामिल में शामिल होने को भारत की तरफ से एक रणनीतिक कदम के रूप में देखा जा रहा है.
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जयशंकर ना सिर्फ इब्राहिम रईसी के शपथ ग्रहण समारोह में मौजूद रहे, बल्कि वो रईसी से अलग से मिल कर भारत-ईरान संबंधों पर बातचीत भी करेंगे. इसे अफगानिस्तान में बिगड़ते हालात और ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर पश्चिमी देशों की नाराजगी के बीच भारत और ईरान के द्विपक्षीय संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जा रहा है.
वैसे तो दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक संबंध हैं, लेकिन हाल में इन संबंधों पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर लंबे समय से चल रहे विवाद की छाया पड़ गई थी. मई 2019 में ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से भारत ने ईरान से कच्चा तेल खरीदना बंद कर दिया था. फिर अगस्त 2019 में कश्मीर के संबंध में लिए गए फैसलों की ईरानी नेताओं ने आलोचना भी की.
रिश्तों में दरार
2020 में दिल्ली में हुए दंगों के बाद भी ईरानी नेताओं ने भारत में मुस्लिमों के हालात पर सख्त शब्दों में चिंता व्यक्त की थी, जिसके बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने ईरान के राजदूत को बुला कर इन टिप्पणियों पर भारत की नाराजगी भी व्यक्त की थी. हालांकि अब रईसी के शपथ ग्रहण में खुद विदेश मंत्री की मौजूदगी दोनों देशों के रिश्तों को लेकर नए संकेत दे रही है.
लगभग एक महीने की अवधि के अंदर यह जयशंकर की दूसरी तेहरान यात्रा है. माना जा रहा है कि इन दोनों यात्राओं का उद्देश्य जिन मुद्दों पर चर्चा करना है उनमें अफगानिस्तान में बिगड़ते हालात सबसे अहम् मुद्दों में से है. अफगानिस्तान ईरान का पड़ोसी देश है और दोनों देशों करीब 900 किलोमीटर लंबी साझा सीमा है. ऐतिहासिक रूप से ईरान के तालिबान से रिश्ते अच्छे नहीं रहे हैं. तालिबान में सुन्नी मुसलमानों का वर्चस्व है और ईरान में शिया मुसलमानों की संख्या ज्यादा है.
1996 से 2001 तक जब तक अफगानिस्तान में तालिबान का शासन रहा, ईरान ने तालिबान की सरकार को मान्यता नहीं दे. हालांकि अब हालात अलग हैं. अमेरिकी सैनिकों के अफगानिस्तान छोड़ कर चले जाने की तालिबान की मांग का ईरान ने समर्थन किया था और अब वो तालिबान के साथ एक व्यवहार्य रिश्ता रखना चाह रहा है. ईरान के विदेश मंत्री जावद जरीफ ने हाल ही में अफगानिस्तान पर एक बैठक की मेजबानी की, जिसमें तालिबान के प्रतिनिधि भी शामिल थे.
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अफगानिस्तान पर चिंता
भारत भी अफगानिस्तान के हालत को लेकर चिंतित है और अफगानिस्तान के भविष्य से जुड़े सभी हितग्राहियों से बात कर रहा है. संभव है जयशंकर की ईरान यात्राओं के उद्देश्यों में से यह एक अहम् बिंदु हो. मध्य एशिया मामलों के जानकार जाकिर हुसैन कहते हैं कि तालिबान के नेता अगर कट्टरपंथ की तरफ जाते हैं तो यह स्थिति ईरान के लिए भी खतरनाक होगी और ऐसा होने पर वो तालिबान के खिलाफ ऐसे देशों के साथ साझेदारी करना चाहेगा जिनसे उसकी सोच मिलती है.
जाकिर कहते हैं इस संबंध में भारत और ईरान के बीच साझेदारी की काफी संभावना है. जानकारों का मानना है कि अफगानिस्तान के अलावा जयशंकर की यात्रा का उद्देश्य आने वाले दिनों में रईसी के नेतृत्व में भारत-ईरान साझेदारी को आगे बढ़ाने का संकेत देना भी हो सकता है. वरिष्ठ पत्रकार संदीप दीक्षित कहते हैं कि ईरान में भारत की परियोजनाओं का विस्तार अमेरिकी प्रतिबंधों के खत्म होने पर निर्धारित होगा.
इनमें चाबहार बंदरगाह परियोजना सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती है. यह बंदरगाह ईरान के दक्षिणी-पूर्वी तट पर ओमान की खाड़ी पर स्थित है और भारत से हुए समझौते के तहत, भारत इस बंदरगाह के एक हिस्से का निर्माण कर रहा है. इससे भारत को पाकिस्तान से बचते हुए ईरान, अफगानिस्तान और केंद्रीय एशिया के अन्य देशों तक सामान पहुंचाने में आसानी होगी.
इस परियोजना पर अभी तक अमेरिका ने प्रतिबंध नहीं लगाए हैं लेकिन पिछले कुछ महीनों में इस पर काम काफी धीमा हो गया था. हाल ही में भारत सरकार ने कहा है कि मई तक बंदरगाह के पूरी तरह से चालू हो जाने की उम्मीद की जा रही है. इसके अलावा भारत के कच्चे तेल और प्राकृतिक गैस की जरूरतों को पूरा करने में भी ईरान की अहम् भूमिका है. जानकारों का मानना है कि दोनों पक्ष प्रतिबंधों के हटने के बाद इन पहलुओं को आगे बढ़ाने की तैयारी भी कर रहे हैं.
इसलिए ईरान की सऊदी अरब से नहीं पटती
मध्य पूर्व के दो ताकतवर देशों सऊदी अरब और ईरान के बीच हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहता है. दोनों धर्म से लेकर तेल और इलाके में दबदबा कायम करने तक, हर बात पर झगड़ते हैं.
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शिया-सुन्नी टकराव
दोनों ही देश खुद को इस्लाम की दो अलग अलग शाखों का संरक्षक मानते हैं. सऊदी अरब जहां एक सुन्नी देश है, वहीं ईरान शिया देश. इसीलिए ये दोनों दुनिया भर में शिया और सुन्नियों के बीच होने वाले विवादों की धुरी माने जाते हैं.
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तेल के दाम
1973 में अरब-इस्राएल युद्ध के दौरान तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक ने तेल के दाम बहुत बढ़ा दिये थे. अरब तेल उत्पादक देशों ने इस्राएल समर्थक समझे जाने वाले देशों पर रोक लगा दी, जिनमें अमेरिका भी शामिल था.
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तनाव बढ़ा
ईरान चाहता था कि तेल के दाम और बढ़ाये जाएं ताकि उसके यहां महत्वाकांक्षी औद्योगिक विकास परियोजनाओं के लिए धन मिल सके. लेकिन सऊदी अरब नहीं चाहता था कि तेल के दामों में बेतहाशा वृद्धि हो. इसके पीछे उसका मकसद अपने सहयोगी देश अमेरिका को बचाना था.
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क्रांति का निर्यात
ईरान में 1979 में हुई इस्लामी क्रांति के दौरान पश्चिम समर्थक शाह को सत्ता से बेदखल किया गया और देश में इस्लामी गणतंत्र की स्थापना हुई. इसके बाद क्षेत्र के सुन्नी देशों ने ईरान पर आरोप लगाया कि वह उनके यहां क्रांति को "भेजने" की कोशिश कर रहा है.
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इराक-ईरान युद्ध
सितंबर 1980 में इराक ने ईरान पर हमला कर दिया और यह युद्ध आठ साल तक चला. सऊदी अरब ने वित्तीय रूप से इराकी सरकार की मदद की और अन्य सुन्नी देशों को भी ऐसा ही करने के लिए प्रोत्साहित किया. इससे ईरान और सऊदी अरब की कड़वाहट और बढ़ी.
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हज में टकराव
सऊदी सुरक्षा बलों ने 1987 में मक्का में ईरानी श्रद्धालुओं के अनाधिकृतक अमेरिका विरोधी प्रदर्शनों के खिलाफ कार्रवाई की. इस दौरान 400 लोग मारे गये हैं. इससे गुस्साए ईरानियों ने तेहरान में सऊदी दूतावास में लूटपाट की.
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हज का सियासी इस्तेमाल
अप्रैल 1988 में सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये. 1991 तक ईरान से कोई श्रद्धालु हज यात्रा पर नहीं गया. ईरान अकसर सऊदी अरब पर हज यात्रा को राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने का आरोप लगाता रहा है.
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बेहतर हुए संबंध
ईरान में मई 1997 के राष्ट्रपति चुनावों में सुधारवादी मोहम्मद खतामी की जीत के बाद दोनों देशों के रिश्तों में सुधार देखने को मिला. मई 1999 में राष्ट्रपति ईरानी राष्ट्रपति ने सऊदी अरब का ऐतिहासिक दौरा किया था.
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इराक की जंग
2003 में इराक पर अमेरिकी हमले ने सऊदी-ईरान तनाव को और बढ़ दिया. अमेरिकी हमले के चलते इराक में बाथ पार्टी का शासन खत्म हुआ और बहुसंख्यक शिया समुदाय को सत्ता में आने का मौका मिला. इससे इराक पर ईरान का प्रभाव बढ़ने लगा.
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अरब स्प्रिंग
2011 में जब अरब दुनिया में बदलाव की लहर चली तो सऊदी अरब ने पड़ोसी बहरीन में अपने सैनिक भेजे. वहां सुन्नी शासक के खिलाफ बहुसंख्यक शिया लोग बड़े पैमाने पर सड़कों पर उतरे. सऊदी अरब ने ईरान पर बहरीन में गड़बड़ी फैलाने का आरोप लगाया.
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सीरिया संकट
ईरान-सऊदी अरब के झगड़े में 2012 के सीरिया संकट ने भी आग में घी का काम किया. सीरिया की जंग में जहां ईरान सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल असद का साथ दे रहा है, वहीं उनके खिलाफ लड़ रहे विद्रोहियों को सऊदी अरब और उसके सहयोगी अमेरिका का समर्थन मिला.
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यमन का मोर्चा
यमन संकट में भी सऊदी अरब और ईरान एक दूसरे के सामने आ खड़े हुए. मार्च 2015 में सऊदी अरब ने सुन्नी अरब देशों का एक गठबंधन बनाया, जिसने यमनी राष्ट्रपति अब्द रब्बू मंसूर हादी के समर्थन में यमन में हस्तक्षेप किया. वहीं ईरान हूती बागियों के साथ खड़ा दिखा.
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हज में भगदड़
सितंबर 2015 में हज यात्रा के दौरान भगदड़ हुई जिसमें 2,300 विदेशी श्रद्धालु मारे गये. मरने वालों में ज्यादातर ईरानी लोग शामिल थे. इसके बाद ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातोल्लाह खमेनेई ने कहा कि सऊदी शाही परिवार इस्लाम के सबसे पवित्र स्थलों की व्यवस्था संभालने लायक नहीं है.
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फिर टूटे रिश्ते
जनवरी 2016 में सऊदी अरब में एक प्रमुख शिया मौलवी निम्र अल निम्र को मौत की सजा दी गयी. उन पर सरकार विरोधी प्रदर्शन भड़काने के आरोप लगे. ईरान ने इस पर गहरी नाराजगी जतायी. ईरान में सऊदी राजनयिक मिशन पर हमले किये गये और सऊदी अरब ने ईरान से अपने राजनयिक रिश्ते तोड़ लिये.
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हिज्बोल्लाह एंगल
मार्च 2016 में लेबनान के शिया मिलिशिया गुट और ईरान के सहयोगी हिज्बोल्लाह को अरब देशों ने आतंकवादी करार दिया. इससे पहले हिज्बोल्लाह के प्रमुख ने सऊदी अरब पर शिया और सुन्नियों के बीच "नफरत भड़काने" का आरोप लगाया था.
तस्वीर: AP
लेबनान पर 'पकड़'
नवंबर 2017 में लेबनान के प्रधानमंत्री साद हरीरी ने इस्तीफा दे दिया और कहा कि ईरान हिज्बोल्लाह के जरिए लेबनान पर अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. पद छोड़ने के बाद हरीरी ने सऊदी अरब जाकर शाह सलमान से मुलाकात की.
तस्वीर: picture-alliance/AA/Bandar Algaloud
कतर संकट
इससे पहले जून 2017 में सऊदी अरब और उसके कई सहयोगी देशों ने कतर के साथ अपने रिश्ते तोड़ लिये. उन्होंने कतर पर ईरान से नजदीकी संबंध कायम करने और चरमपंथियों का समर्थन करने का आरोप लगाया.
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ट्रंप के साथ सऊदी अरब
अक्टूबर 2017 में सऊदी अरब ने कहा कि वह ईरान के मुद्दे पर अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की मजबूत रणनीति का समर्थन करता है. ट्रंप ने 2015 में ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर हुए समझौते को मंजूर करने से इनकार कर दिया.