अफगानिस्तान में खतरों से भरा स्कूली बच्चों का जीवन
१६ अगस्त २०१९
अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र के सहायता मिशन ने कहा कि देश में 84 प्रतिशत बच्चों की मौत युद्ध में विस्फोट की वजह से हुई. लगातार विस्फोट की वजह से बच्चों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है.
तस्वीर: Reuters/M. Ismail
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अफगानिस्तान की राजधानी काबुल में रहने वाली 16 वर्षीय मदीना ने अपने स्कूल में दो बड़े धमाके देखे. धमाकों के दौरान खिड़की से टूटकर कांच उनके और दूसरे छात्रों को लगे. उन्हें ऐसा लगा मानों कांच की बारिश हो रही है. मदीना उसे बुरा सपना मानती हैं. वह इस धमाके में बच तो गई लेकिन उनके हाथ और पैर में गहरी चोट लगी. शरीर के जख्म तो समय के साथ भरने लगे हैं लेकिन धमाके के बाद से वे तनाव में रहने लगी हैं. अफगानिस्तान में मदीना की पीढ़ी के कई सारे बच्चे कभी यह नहीं जान पाए कि शांति क्या होती है.
विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि जहां अक्सर स्कूल को निशाना बनाया जा सकता है, वहां रहने वालों के ऊपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है. साथ ही कम समय तक की गई काउंसलिंग भारी पड़ सकती है. मदीना याद करते हुए बताती हैं, "वह एक भयानक दिन था. मुझे आज भी बुरे सपने आते हैं. मैं ध्यान केंद्रित नहीं कर सकती. परीक्षा के लिए तैयार होना काफी मुश्किल काम था." उसे अपने स्कूल में गलियारे में गणित की परीक्षा देनी पड़ी थी क्योंकि कई कक्षाएं बर्बाद हो चुकी थी.
अमेरिका और तालिबान दावा करते हैं कि शांतिवार्ता में प्रगति हो रही है लेकिन यहां के लोगों के जीवन में नहीं के बराबर बदलाव हुआ है. हाल ही में हुए हमले इस बात को दर्शा रहे हैं कि बच्चे किस तरह से संघर्ष कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र के एक आंकड़े में पाया गया कि पिछले साल रिकॉर्ड स्तर पर बच्चों की मौत हुई. वर्ष 2018 में युद्ध की वजह से 3,804 आम लोग मारे गए जिनमें 927 बच्चे थे. और 2019 के पहले 6 महीने में मारे गए आम लोगों में से एक-ति हाई बच्चों की संख्या थी. मदीना के स्कूल के प्रबंधक नियामतुल्लाह हमदर्द कहते हैं, "हमले के कुछ दिनों बाद बच्चों के चेहरे पर जख्म दिखते हैं. वे प्रत्येक मिनट रोने लगते थे."
क्या कभी सुधरेगा अफगानिस्तान का हाल
पिछले 19 साल से अफगानिस्तान में अमेरिका का दखल बना हुआ है. लेकिन अब भी देश कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ कमजोर नजर आता है. हाल के आत्मघाती हमले और बम धमाके देश में आतंकवादी गुटों की मजबूत पकड़ को बयां करते हैं.
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चरमराती सुरक्षा व्यवस्था
पिछले कई महीनों से अफगानिस्तान कभी बम धमाके तो कभी आत्मघाती हमलों के चलते सुर्खियां बटोर रहा है. अब तक इसमें कई सौ बेकसूर अफगान लोगों की जान जा चुकी है. लेकिन देश की सुरक्षा व्यवस्था सुधरने का नाम ही नहीं ले रही. इन हमलों ने स्थानीय लोगों में निराशा भर दी है. वहीं सरकार भी सुरक्षा के मसले पर विफल साबित हो रही है.
तस्वीर: Reuters/M. Ismail
लगातार हो रहे हमले
लगातार हो रहे इन हमलों ने एक बार फिर अफगानिस्तान को दुनिया की निगाहों में ला दिया है. आतंकवादी गुट तालिबान और इस्लामिक स्टेट (आईएस) समय-समय पर इन हमलों की जिम्मेदारी लेते रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ अफगानिस्तान सरकार पर भी दबाव है कि वह तालिबान और आईएस के कब्जे वाले इलाकों में अपना शासन कायम कर सके.
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आक्रामक नीति
हाल में ही तालिबान ने अफगानिस्तान के भीतर बेहद ही आक्रामक नीति अपनाने की घोषणा की. साथ ही राष्ट्रपति के साथ शांति वार्ता के प्रस्ताव को भी सिरे से खारिज कर दिया. आतंकवादी गुट अफगानिस्तान में सख्त इस्लामिक कानूनों को लागू करने के पक्षधर हैं. उनका आक्रामक कैंपेन अमेरिका की कड़ी सैन्य रणनीतियों का उत्तर है.
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ट्रंप की अफगान नीति
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पिछले साल अफगानिस्तान के लिए नई रणनीति तय की थी. इसके तहत अफगान सुरक्षा बलों के प्रशिक्षण और मदद के लिए 11000 अतिरिक्त शीर्ष अमेरिकी सैनिकों की तैनाती की बात कही गई थी. इसके साथ ही ट्रंप ने तालिबान के खिलाफ लड़ाई में अफगान सैनिकों को समर्थन देने की प्रतिबद्धता जताई थी. साथ ही यह भी कहा था कि अफगानिस्तान में जरूरत के मुताबिक अमेरिका की उपस्थिति बनी रहेगी.
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अफगान शांति प्रक्रिया
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने इस साल फरवरी में तालिबान के सामने शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा था. लेकिन तालिबान ने इस ओर कोई रुचि नहीं दिखाई. और, इसे एक षड्यंत्र कहकर खारिज कर दिया. विशेषज्ञों के मुताबिक कोई भी आतंकी समूह उस वक्त बातचीत में शामिल नहीं होगा जब जमीन पर उसकी पकड़ मजबूत बनी हुई हो.
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पाकिस्तान की भूमिका
अफगानिस्तान के धमाके, पाकिस्तान पर भी दबाव बढ़ा रहे हैं. अफगानिस्तान और अमेरिका दोनों ही पाकिस्तान पर आतंकियों को आश्रय देने का आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन पाकिस्तान लगातार इन आरोपों का खंडन करता रहा है.
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तालिबान के इतर
तालिबान के अलावा अफगान लड़ाकों के सरदारों की भी देश की राजनीति में अहम भूमिका है. पिछले साल, हिज्ब-ए-इस्लामी के नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार 20 साल देश से बाहर रहने के बाद अफगान राजनीति में वापस लौ़टे हैं. साल 2016 में अफगान सरकार ने हिकमतयार के साथ इस उम्मीद के साथ समझौता किया था कि ये समूह काबुल के साथ बेहतर संबंध रखेंगे.
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असक्षम सरकार
अफगानिस्तान में सत्ता के लिए जारी इस लड़ाई का असर राष्ट्रपति की कुर्सी पर भी हो रहा है. मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ गनी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता जनता के बीच लगातार घट रही है. वहीं अफगान सरकार में बढ़ते भ्रष्टाचार और भीतरी खींचतान के चलते भी आतंकवाद के खिलाफ सरकार की मुहिम कमजोर पड़ी है.
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यूनिसेफ के अनुसार, 2017 के मुकाबले 2018 में अफगानिस्तान में स्कूलों पर हमलों की संख्या में तीन गुना की बढ़ोत्तरी हुई है. 2018 के अंत तक संघर्ष के कारण 1,000 से अधिक स्कूल बंद कर दिए गए. 5 लाख से ज्यादा बच्चे शिक्षा से वंचित हो गए.पूर्वी अफगानिस्तान में नंगरहार प्रांत के अरिद डेह वाला जिलेमें सरकारी सुरक्षा बलों और इस्लामिक स्टेट समूह के बीच लड़ाई ने पपेन हाई स्कूल को मलबे में बदल दिया. अब बच्चे क्लास के लिए बाहर एक गलीचे पर बैठते हैं. उनमें से कुछ ने आईएस के लड़ाकों को स्थानीय लोगों के साथ देखा है. स्कूल के निदेशक मुहम्मद वली कहते हैं, "रात में बच्चे जब सोने जाते हैं, उन्हें दाएश (इस्लामिक स्टेट का स्थानीय नाम) के सपने आते हैं. वे इनके अत्याचारों से ग्रस्त हैं. बच्चे नींद में चिल्लाते हैं, और जब वे यहां आते हैं तो वे बहुत तनाव में होते हैं."
जिला शिक्षा अधिकारी उमर घोरजंग कहते हैं कि यह तनाव लंबे समय तक रहता है. वे कहते हैं, "जब शिक्षक उनसे बात कर रहे होते हैं, तो बच्चे आपस में विचित्र बातें करते हैं. वे ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं." 15 वर्षीय आमिर गुल कहते हैं, "हम और हमारे दोस्त हमेशा चिंतित रहते हैं. हम हमेशा डरते हैं कि बम फट सकता है. हर कोई डरा हुआ है और कोई भी पढ़ाई नहीं कर पाता है."
मनोचिकित्सक बेथन मैकएवॉय काबुल में नार्वे शरणार्थी परिषद के शिक्षा सलाहकार के रूप में काम करती हैं. वे कहती हैं, "स्कूल में होने वाले हमले की वजह से जो मानसिक बीमारी होती है और भावनात्मक आघात पहुचता है, उसका आकलन करना कठिन हो सकता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि मनोवैज्ञानिक आघात के लक्षण अक्सर झटके के बाद ही प्रकट होते हैं." अफगानिस्तान में लोग एक के बाद एक तनावपूर्ण घटनाओं की वजह से कई साल तनाव में रह सकते हैं.
कौन हैं 'ईरान के रक्षक' रेवोल्यूशनरी गार्ड्स
अमेरिका ने ईरान के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हुए उसके विशेष सैन्य बल रेवोल्यूशनरी गार्ड को आतंकवादी संगठन घोषित किया है. चलिए जानते हैं कितने ताकतवर हैं ईरान के रेवोल्यूशनरी गार्ड्स.
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स्थापना
इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कोर की स्थापना ईरान में 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद हुई. इसका काम ईरान को आंतरिक और बाहरी खतरों से बचाना है.
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कितने फौजी
रेवोल्यूशनरी गार्ड सवा लाख लोगों की फौज है, जिसमें से लगभग 90 हजार सक्रिय सदस्य हैं. इस एलिट सैन्य बल के पास विदेशों में अभियान चलाने वाले कुद्स दस्ते भी हैं.
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समांतर सेना
इस्लामी क्रांति के बाद रेवोल्यूशनरी गार्ड को ईरान की सेना के समांतर एक संगठन के तौर पर खड़ा किया गया था क्योंकि उस वक्त सेना में बहुत से लोग सत्ता से बेदखल किए गए ईरानी शाह के वफादार माने जाते थे.
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विस्तार
शुरू में रेवोल्यूशनरी गार्ड ने एक घरेलू बल के तौर पर काम किया, लेकिन 1980 में जब सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला किया तो इस सैन्य बल की ताकत में तेजी से विस्तार हुआ.
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सैन्य ताकत
हमले के वक्त ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह रोहल्लाह खोमेनी ने रेवोल्यूशनरी गार्ड को उनकी खुद की जमीन, नौसेना और वायुसेनाएं दे दीं. इससे उसकी ताकत बहुत बढ़ गई.
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राज्य के भीतर राज्य
कई आलोचक कहते हैं कि रेवोल्यूशनरी गार्ड्स अब ईरान में 'राज्य के भीतर एक और राज्य' बन गए हैं. उनके पास कई तरह की कानूनी, राजनीतिक और धार्मिक शक्तियां हैं.
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जबावदेही
वैसे ईरान के संविधान में रेवोल्यूशनरी गार्ड्स की भूमिका का उल्लेख किया गया है और उनकी जवाबदेही सिर्फ ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह अली खमेनेई के प्रति है.
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मिसाइल कार्यक्रम
रेवोल्यूशरी गार्ड की निगरानी में ही ईरान का बैलेस्टिक मिसाइल कार्यक्रम चलता है. पश्चिमी देशों के साथ परमाणु डील हो जाने के बाद भी उसने कई परीक्षण किए हैं.
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इस्राएल से दुश्मनी
रेवोल्यूशरी गार्ड की मिसाइलें इस्राएल तक पहुंच सकती हैं और मार्च 2016 में उसने जो बैलेस्टिक मिसाइल टेस्ट की, उस पर हिब्रू में लिखा था, "इस्राएल को साफ कर दिया जाना चाहिए."
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आर्थिक ताकत
ईरान की अर्थव्यवस्था में भी रेवोल्यूशनरी गार्ड्स का बहुत दखल है और उन पर स्मगलिंग के भी आरोप लगते हैं. ईरान के मौजूदा उदारवादी राष्ट्रपति हसन रोहानी रेवोल्यूशनरी गार्ड्स की ताकत कम करना चाहते हैं.
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ताकतवर कुद्स
विदेशों में अभियान चलाने वाले रेवोल्यूशनरी गार्ड के कुद्स दस्ते में 2000 से 5000 लोग शामिल हैं और इसकी स्थापना 1989 में ईरान के सर्वोच्च नेता खोमेनेई ने की थी.
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कौन हैं सहयोगी
मेजर जनरल कासेम सोलेमानी के नेतृत्व में कुद्स लेबनान में हिज्बोल्लाह और गाजा पट्टी में हमास के साथ मिल कर काम कर रहा है. इन दोनों संगठनों को ईरान की सरकार अपना सहयोगी मानती है.
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आतंकवादी संगठन
अमेरिका ईरान को आतंकवाद को प्रायोजित करने वाला देश मानता है. इसी के तहत रेवोल्यूशनरी गार्ड्स को उसने आतंकवादी संगठन घोषित किया है. ईरान का कहना है कि वह इस कदम का अपने तरीके से जबाव देगा.
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लोगों लंबी अवधि तक कैसे प्रभावित रहते हैं, यह उनकी पृष्ठभूमि, पारिवारिक संबंधों सहित कई कारकों पर निर्भर करता है. बेथन मैकएवॉय कहती हैं, "यदि किसी स्कूल में बच्चे को तनाव से उबारने के लिए कुछ उपाय किए जाते हैं तो यह वास्तव में बहुत मददगार साबित हो सकता है. साथ ही यह भी देखना होगा कि अफगानिस्तान में तनाव दूर करने के लिए और अधिक क्या किया जा सकता है."
काबुल स्कूल में मलबे के बड़े हिस्से को हटा दिया गया है लेकिन बच्चों की खेलने के जगह पर एक ढ़हे हुए से छत से निकले लोहे और टूटे हुए कांच के टुकड़े अभी भी उन इलाकों में देखे जा सकते हैं. काबुल हमले के कुछ दिनों बाद तालिबान ने एक कार बम से पूर्वी शहर गजनी में सरकारी खुफिया केंद्र को निशाना बनाया था. इस धमाके का असर वहां के एक नजदीकी स्कूल पर भी हुआ और दर्जनों बच्चे घायल हो गए.
अफगानिस्तान में शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब किसी बच्चे या किसी परिवार के घायल होने अथवा मरने की खबर नहीं आती हो. इन हत्याओं के लिए सिर्फ विद्रोही समूह ही जिम्मेदार नहीं है. पेंटागन की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार 2018 में अमेरिकी सुरक्षाबलों की वजह से 134 अफगानी नागरिक हताहत हुए थे. मरने वाले 76 लोगों में से 31 बच्चे थे.
पिछले 19 साल से अफगानिस्तान में अमेरिका का दखल बना हुआ है. लेकिन अब भी देश कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ कमजोर नजर आता है. हाल के आत्मघाती हमले और बम धमाके देश में आतंकवादी गुटों की मजबूत पकड़ को बयां करते हैं.
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चरमराती सुरक्षा व्यवस्था
पिछले कई महीनों से अफगानिस्तान कभी बम धमाके तो कभी आत्मघाती हमलों के चलते सुर्खियां बटोर रहा है. अब तक इसमें कई सौ बेकसूर अफगान लोगों की जान जा चुकी है. लेकिन देश की सुरक्षा व्यवस्था सुधरने का नाम ही नहीं ले रही. इन हमलों ने स्थानीय लोगों में निराशा भर दी है. वहीं सरकार भी सुरक्षा के मसले पर विफल साबित हो रही है.
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लगातार हो रहे हमले
लगातार हो रहे इन हमलों ने एक बार फिर अफगानिस्तान को दुनिया की निगाहों में ला दिया है. आतंकवादी गुट तालिबान और इस्लामिक स्टेट (आईएस) समय-समय पर इन हमलों की जिम्मेदारी लेते रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ अफगानिस्तान सरकार पर भी दबाव है कि वह तालिबान और आईएस के कब्जे वाले इलाकों में अपना शासन कायम कर सके.
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आक्रामक नीति
हाल में ही तालिबान ने अफगानिस्तान के भीतर बेहद ही आक्रामक नीति अपनाने की घोषणा की. साथ ही राष्ट्रपति के साथ शांति वार्ता के प्रस्ताव को भी सिरे से खारिज कर दिया. आतंकवादी गुट अफगानिस्तान में सख्त इस्लामिक कानूनों को लागू करने के पक्षधर हैं. उनका आक्रामक कैंपेन अमेरिका की कड़ी सैन्य रणनीतियों का उत्तर है.
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ट्रंप की अफगान नीति
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पिछले साल अफगानिस्तान के लिए नई रणनीति तय की थी. इसके तहत अफगान सुरक्षा बलों के प्रशिक्षण और मदद के लिए 11000 अतिरिक्त शीर्ष अमेरिकी सैनिकों की तैनाती की बात कही गई थी. इसके साथ ही ट्रंप ने तालिबान के खिलाफ लड़ाई में अफगान सैनिकों को समर्थन देने की प्रतिबद्धता जताई थी. साथ ही यह भी कहा था कि अफगानिस्तान में जरूरत के मुताबिक अमेरिका की उपस्थिति बनी रहेगी.
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अफगान शांति प्रक्रिया
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने इस साल फरवरी में तालिबान के सामने शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा था. लेकिन तालिबान ने इस ओर कोई रुचि नहीं दिखाई. और, इसे एक षड्यंत्र कहकर खारिज कर दिया. विशेषज्ञों के मुताबिक कोई भी आतंकी समूह उस वक्त बातचीत में शामिल नहीं होगा जब जमीन पर उसकी पकड़ मजबूत बनी हुई हो.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Shirzad
पाकिस्तान की भूमिका
अफगानिस्तान के धमाके, पाकिस्तान पर भी दबाव बढ़ा रहे हैं. अफगानिस्तान और अमेरिका दोनों ही पाकिस्तान पर आतंकियों को आश्रय देने का आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन पाकिस्तान लगातार इन आरोपों का खंडन करता रहा है.
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तालिबान के इतर
तालिबान के अलावा अफगान लड़ाकों के सरदारों की भी देश की राजनीति में अहम भूमिका है. पिछले साल, हिज्ब-ए-इस्लामी के नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार 20 साल देश से बाहर रहने के बाद अफगान राजनीति में वापस लौ़टे हैं. साल 2016 में अफगान सरकार ने हिकमतयार के साथ इस उम्मीद के साथ समझौता किया था कि ये समूह काबुल के साथ बेहतर संबंध रखेंगे.
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असक्षम सरकार
अफगानिस्तान में सत्ता के लिए जारी इस लड़ाई का असर राष्ट्रपति की कुर्सी पर भी हो रहा है. मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ गनी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता जनता के बीच लगातार घट रही है. वहीं अफगान सरकार में बढ़ते भ्रष्टाचार और भीतरी खींचतान के चलते भी आतंकवाद के खिलाफ सरकार की मुहिम कमजोर पड़ी है.