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अफगानिस्तान में नाटो मिशन खत्म

२९ दिसम्बर २०१४

पश्चिमी सैनिक गठबंधन नाटो का अफगानिस्तान में 13 साल पुराना सैनिक अभियान समाप्त हो रहा है. तालिबान ने पहली प्रतिक्रिया में अमेरिकी नेतृत्व वाले मिशन को बर्बरता और "क्रूरता की आग" बताया है.

तस्वीर: Shah Marai/AFP/Getty Images

काबुल में एक मामूली समारोह के साथ अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने अपने मिशन के पूरा होने की रस्मअदायगी की. इसके बाद तालिबान ने अंग्रेजी में बयान जारी कर कहा, "यह कदम निश्चित तौर पर उनकी हार और हताशा को दर्शाता है. इस युद्ध में अमेरिका और उसके जिद्दी सहयोगियों को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा है."

तालिबान ने 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान पर राज किया और उसके बाद नाटो की सेना से उसने लगातार लोहा लिया. फिलहाल अफगानिस्तान में जबरदस्त हिंसा का दौर चल रहा है. संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि इस साल 10,000 गैरसैनिकों की जान गई है, जिनमें से 75 फीसदी तालिबान के हाथों मारे गए हैं. यह पिछले दिनों की सबसे बड़ी संख्या है.

एक जनवरी, 2015 को नाटो की अंतरराष्ट्रीय सेना का युद्धक मिशन "प्रशिक्षण और सहयोग" मिशन में बदल जाएगा. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने तालिबान को बातचीत का न्योता दिया है लेकिन तालिबान ने "जिहाद" जारी रखने की बात की है.

तस्वीर: Reuters/Omar Sobhan

"हार गई पश्चिमी सेना"

रविवार को नाटो सेना ने एक गुपचुप कार्यक्रम में अपने मिशन के पूरा होने का एलान किया क्योंकि वहां तालिबान के हमले का खतरा था. नाटो कमान मुख्यालय में तैनात जर्मन सेना के जनरल हांस-लोथार डोमरोजे ने काबुल के समारोह में हिस्सा लिया, जबकि जर्मन सेना के किसी भी सैनिक अफसर ने वहां शिरकत नहीं की. जनवरी से 13000 नाटो सेनाएं वहां रुकी रहेंगी और अफगान सेना को प्रशिक्षण देने का काम करेंगी.

विश्लेषकों का मानना है कि पिछले 13 साल में अफगानिस्तान में जो कुछ हुआ, वह बहुत अच्छा नहीं रहा, जिसमें 25,000 अफगान नागरिक मारे गए और साथ ही संयुक्त सेना को भी 3500 जवानों तो खोना पड़ा है. अफगानिस्तान युद्ध पर अमेरिका ने 1000 अरब डॉलर खर्च किए. इस साल सबसे ज्यादा खूनखराबा हुआ और 6000 अफगान सैनिक तथा 3100 नागरिकों की जान गई. जून में अमेरिका में हुए एक सर्वे में 65 फीसदी लोगों ने कहा था कि युद्ध ठीक नहीं था. यूगॉव के सर्वे में जर्मनी के 60 फीसदी लोगों ने अपने देश की युद्ध में भूमिका को ठीक नहीं बताया.

जर्मनी की भूमिका

संयुक्त देशों की लगभग 1,40,000 सेना में करीब 5000 जर्मन थे. अफगानिस्तान में 55 जर्मन सैनिकों की जान गई. बचे हुए लगभग 13000 सैनिकों में अब 850 जर्मन होंगे. भले ही अब अंतरराष्ट्रीय सेना का युद्धक मिशन खत्म हो जाएगा लेकिन विदेशी सैनिकों पर खतरा खत्म नहीं होगा. साल 2001 में न्यू यॉर्क पर हुए आतंकवादी हमले के बाद अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने अफगानिस्तान पर धावा बोला था.

अफगानिस्तान में तालिबान को सत्ता से हटा कर नई सरकार बनी. लेकिन दो साल बाद इराक पर अमेरिकी हमले की वजह से अफगानिस्तान पर ध्यान कम हो गया और तालिबान ने दोबारा सिर उठा लिया. अफगानिस्तान के राजनीतिक समीक्षक जावीद कोहिस्तानी का कहना है कि अमेरिकी और नाटो सेनाओं ने "तब तक तालिबान पर ध्यान नहीं दिया, जब तक उन्होंने अमेरिकी सेना पर हमले नहीं शुरू कर दिए."

लगातार खराब हुए हालात

इसके बाद लगातार हिंसक हमलों, खराब प्रशासन और बुरी अर्थव्यवस्था की वजह से हालात खराब होते गए. हालांकि विदेशी शक्तियों का दावा है कि इस बीच वहां प्राथमिक शिक्षा, महिलाओं की सेहत और दूरसंचार के क्षेत्र में कामयाबी भी मिली. कोहिस्तानी का कहना है, "यह देश पहले से बहुत बेहतर हुआ है. हम 2001 के अफगानिस्तान की अभी से तुलना नहीं कर सकते हैं." उनका कहना है, "नाटो मिशन की वजह से अफगान सुरक्षा बल भी मजबूत हुआ. साल 2001 से पहले ऐसी स्थिति नहीं थी."

लेकिन नाटो सेना कभी भी तालिबान पर पूरी तरह काबू नहीं कर पाया. यहां तक कि 2010-11 में जब नाटो सेनाएं चरम पर थीं और उनके 1,40,000 सैनिक तैनात थे, तब भी चरमपंथ कम नहीं हुआ. इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप के राजनीतिक समीक्षक ग्रेम स्मिथ का कहना है, "आज अफगानिस्तान आग में जल रहा है. साल 2008 से चरमपंथी हमलों में तीनगुना इजाफा हुआ है."

नाटो सेना की ट्रेनिंग से अफगान सैनिकों को भले फायदा हुआ हो लेकिन सवाल उठता है कि क्या वे अपने दम पर स्थिति को संभाल पाएंगे. नाटो की आइसैफ सेना के जनरल कार्सटन जैकबसन का कहना है, "इस साल भारी संख्या में अफगान मारे गए हैं या घायल हुए हैं. इससे हमारी चिंता बढ़ी है. यह संख्या बहुत ज्यादा है. इस संख्या को कम करने की जरूरत है."

एजेए/एमजे (एएफपी, डीपीए)

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