अफगानिस्तान से हड़बड़ी में क्यों निकल रहा है अमेरिका
मसूद सैफुल्लाह
३ जून २०२०
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को दी गई एक रिपोर्ट कहती है कि तालिबान और अल कायदा के बीच अब भी करीबी रिश्ते हैं. इसके बावजूद अमेरिका अफगानिस्तान ने निकलने की हड़बड़ाहट क्यों दिखा रहा है.
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29 फरवरी को कतर की राजधानी दोहा में जब अमेरिका और तालिबान के बीच ऐतिहासिक समझौता हुआ, तो उसमें एक अहम शर्त थी. शर्त थी कि तालिबान 11 सितंबर 2001 के हमलों के लिए जिम्मेदार आतंकवादी संगठन अल कायदा से कोई संबंध नहीं रखेगा. डील के समय तालिबान ने कहा कि उसने अल कायदा से रिश्ते पहले ही तोड़ लिए हैं. 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान में राज करने वाले तालिबान ने ही अल कायदा को सुरक्षित ठिकाना दिया था.
लेकिन अब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को स्वतंत्र निरीक्षकों ने एक रिपोर्ट सौंपी है, जिसमें कहा गया है कि अफगानिस्तान में तालिबान और अल कायदा के बीच अब भी करीबी गठजोड़ है. रिपोर्ट कहती है, "तालिबान अमेरिका से तोल मोल के दौरान नियमित रूप से अल कायदा से मशविरा लेता रहा और इस बात की गारंटी भी देता रहा कि वह ऐतिहासिक रिश्तों का सम्मान करता रहेगा.” अमेरिका इस रिपोर्ट को खारिज कर रहा है.
तालिबान के बढ़ते हमलों के बावजूद अमेरिका अफगानिस्तान से अपनी सेना वापस बुला रहा है. यह सोचना कल्पना से परे है कि समझौते पर दस्तखत करते समय अमेरिका को तालिबान और अल कायदा के रिश्तों का पता नहीं था. इसके बावजूद वॉशिंगटन ने तालिबान के साथ समझौता किया.
पश्चिमी राजनयिक मीडिया से कहते हैं कि दोहा डील में निर्धारित समयसीमा से पहले ही अमेरिका अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या घटाकर 8,600 कर देगा.
दोहा डील के मुताबिक अमेरिका को मध्य जुलाई तक अफगानिस्तान में अपने सैनिकों की संख्या 13,000 से घटाकर 8,600 करनी है. समझौते के मुताबिक मई 2021 तक अमेरिकी फौज को पूरी तरह अफगानिस्तान छोड़ना होगा. अमेरिका और नाटो के अधिकारियों के मुताबिक सैनिकों की वापसी का पहला चरण मध्य जून तक, यानि एक महीने पहले ही पूरा सकता है.
कोरोना वायरस और चुनावी वादा
अमेरिका में इस साल नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव भी होने हैं. ट्रंप अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाने का एलान बीते चुनावों में कर चुके हैं. अब वादा पूरा करने का वक्त करीब आ रहा है.
विशेषज्ञ अमेरिका में फैले कोरोना वायरस को इसकी वजह बताते हैं. कोरोना वायरस के चलते अमेरिका में अब तक 1,00,000 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. ट्रंप प्रशासन एक अभूतपूर्व हेल्थ इमरजेंसी का सामना कर रहा है. अमेरिका की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है. युद्धग्रस्त इलाके में तैनात अमेरिकी सैनिक भी कोरोना वायरस की चपेट में आ सकते हैं.
अमेरिका पर सबसे बड़े आतंकी हमले के साथ ही वॉशिंगटन ने तय किया था कि अफगानिस्तान में घुसकर अल कायदा और तालिबान को साफ कर दिया जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हो सका. क्या है अफगान युद्ध का लेखा जोखा.
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आम अफगान नागरिक
2009 से अगस्त 2019 तक 32,000 आम नागरिक मारे गए. 60,000 से ज्यादा घायल हुए. विस्थापितों की तादाद लाखों में है.
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अमेरिकी और गठबंधन सेना की क्षति
अफगान युद्ध में अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय सहयोग सेना (आईसैफ) के 3,459 सैनिक मारे गए.
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अफगान आर्मी लहूलुहान
2014 से अगस्त 2019 तक अफगान सेना के 45,000 जवान इस युद्ध में मारे जा चुके हैं.
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अमेरिका का खर्च
अक्टूबर 2001 से मार्च 2019 तक अफगान युद्ध में अमेरिका ने 760 अरब डॉलर खर्च किए.
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तालिबान को कितना नुकसान
18 साल से जारी युद्ध में तालिबान के 31,000 से ज्यादा लड़ाके मारे गए.
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बड़े निशाने
अफगान युद्ध में अमेरिका को अल कायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को मारने में सफलता मिली. बिन लादेन के अलावा तालिबान के कई बड़े कमांडर भी मारे गए.
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तालिबान अब भी मजबूत
अफगान सरकार और संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक अमेरिका की अगुवाई वाली गठबंधन सेनाओं के हमले में तालिबान से ज्यादा आम नागरिक मारे गए. ऐसे हमलों ने अमेरिका के प्रति नफरत और तालिबान के प्रति सहानुभूति पैदा करने का काम किया.
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इस्लामिक स्टेट का एंगल
अफगानिस्तान में अब इस्लामिक स्टेट भी सक्रिय है. देश के पूर्व में पाकिस्तान से सटी सीमा पर कुनार के जंगलों में इस्लामिक स्टेट की पकड़ मजबूत हो चुकी है. आईएस 2015 से वहां है. कहा जा रहा है कि तालिबान अगर कमजोर हुआ तो इस्लामिक स्टेट ताकतवर होगा.
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अशांत भविष्य
युद्ध और गृह युद्ध में फंसे अफगानिस्तान का भविष्य डगमग ही दिखता है. देश में विदेशी ताकतों की छत्रछाया में सक्रिय रहने वाले कई धड़े हैं. इन धड़ों के बीच शांति की उम्मीदें कम ही हैं. भू-राजनीतिक स्थिति के चलते ये देश पाकिस्तान, भारत, चीन, रूस, अमेरिका और ईरान के लिए अहम बना रहता है.
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कोरोना तो बहाना है
लेकिन कुछ विश्लेषक सैनिकों की इस जल्द वापसी के लिए कोरोना वायरस को जिम्मेदार नहीं मानते. अफगान सुरक्षा विशेषज्ञ अतीकउल्लाह अमरखाइल कहते हैं, "अफगानिस्तान सरकार शांति प्रक्रिया को लेकर बहुत ज्यादा प्रगति नहीं कर रही है और अमेरिका का सब्र टूट रहा है. वॉशिंगटन अधिकारियों को इस बात के साफ संकेत देना चाहता है कि हालात कैसे ही हों, वो यह देश छोड़ देगा.”
अमेरिका और तालिबान के समझौते में अफगान सरकार शामिल नहीं है. समझौता बीते तीन महीनों में कई हिचकोले खा चुका है. अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार तालिबान कैदियों को रिहा करने में हिचकिचा रही है. और तालिबान ने भी अफगान सुरक्षा बलों पर अपने हमले रोके नहीं हैं.
वॉशिंगटन स्थित थिंक टैंक, विल्सन सेंटर के दक्षिण एशिया के एक्सपर्ट मिषाएल कुगेल्मन कहते हैं, "अगर शांति प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ेगी तो आपसी अफगान वार्ता शुरू नहीं होगी, फिर मुझे लगता है कि ट्रंप प्रशासन मध्यस्थता की कोशिशें बंद कर देगा, खुद को इसमें कम शामिल करेगा और मुमकिन है कि जल्द ही वहां से अपनी सेना भी वापस बुला लेगा.”
वह कहते हैं, "राष्ट्रपति ट्रंप कोरोना वायरस का हवाला देते हुए एलान करेंगे कि वह अपनी सेना को तालिबान के हमलों और महामारी के जोखिम के सामने ऐसे नहीं रख सकते.”
अमेरिकी रणनीति का असर
सेना को जल्द निकालने के संकेत देकर अमेरिका अफगान सरकार और विद्रोहियों को बातचीत के लिए मजबूर करने की कोशिश कर रहा है. काबुल और विद्रोही गुटों के बीच आपसी भरोसा बढ़ाने के कुछ कदम उठाए जा रहे हैं.
मई में ईद के मौके पर तालिबान ने तीन दिन के संघर्ष विराम का एलान किया. अफगान राष्ट्रपति ने इस कदम की तारीफ की और "सद्भावना” के तौर पर करीब 2000 तालिबान बंदियों को रिहा किया.
गनी अपने धुर राजनीतिक विरोधी अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह के साथ मतभेद कम करने में कुछ हद तक सफल हुए हैं. अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह ने 2019 के चुनावों को खुद को विजेता घोषित किया था, तब से वह समानान्तर सरकार भी चला रहे थे. अंतराराष्ट्रीय मध्यस्थता के बीच हाल ही में गनी और अब्दुल्लाह ने सत्ता साझा करने का एक समझौता भी किया. इसके तहत अब्दुल्लाह अफगानिस्तान की हाई काउंसिल फॉर पीस का नेतृत्व करेंगे और गनी राष्ट्रपति बने रहेंगे.
अफगान सरकार ने तालिबान के साथ बातचीत के लिए एक टीम भी गठित की है. अब्दुल्लाह कहते हैं कि, "काबुल किसी भी समय बातचीत शुरू करने के लिए तैयार है.”
अफगानिस्तान को आजाद हुए 100 साल हो गए हैं. लेकिन यह एक पूरी सदी अफगानिस्तान को तबाही और बर्बादी के सिवाय कुछ नहीं दे पाई. जानिए इन सौ सालों में क्या हुआ.
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1919
तीसरे एंग्लो अफगान युद्ध के बाद अमानुल्लाह खान ने ब्रिटेन से आजादी की घोषणा की और खुद अफगानिस्तान की कमान संभाली. उन्होंने कई सामाजिक सुधार लागू करने की कोशिश की, जिनका काफी विरोध हुआ और आखिरकार उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा. (फोटो सांकेतिक है)
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1933
जहीर शाह अफगानिस्तान के राजा बने और अगले चार दशक तक अफगानिस्तान में राजशाही रही. दूसरे विश्व युद्ध के बाद अफगानिस्तान को सोवियत संघ से आर्थिक और सैन्य मदद मिली. इस दौरान, पर्दा प्रथा को खत्म करने जैसे कई सामाजिक सुधार भी हुए.
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1963
दस साल तक प्रधानमंत्री रहने वाले जनरल मोहम्मद दाऊद को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया. इसके अगले साल 1964 में अफगानिस्तान में संवैधानिक राजशाही लागू की गई. लेकिन इससे देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण और सत्ता संघर्ष की शुरुआत हो गई.
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1973
मोहम्मद दाऊद ने जहीर शाह का तख्ता पलटा और अफगानिस्तान को एक गणतंत्र घोषित किया. वह अफगानिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने. उन्होंने सोवियत संघ को पश्चिमी ताकतों से भिड़ाने की कोशिश भी की.
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1978
एक सोवियत समर्थित तख्तापलट में जनरल दाऊद की हत्या कर दी जाती है. पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में आती है, लेकिन अंदरूनी हिंसा के चलते वह कुछ कर नहीं पाती है. उसे अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन गुटों की तरफ से भी काफी विरोध झेलना पड़ रहा था.
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1979
दिसंबर के महीने में सोवियत सेना अफगानिस्तान पर हमला करती है और वहां एक कम्युनिस्ट सरकार को सत्ता में बैठाती है. बाबराक कारमाल को देश की बागडोर मिलती है. लेकिन सोवियत बलों से लड़ने वाले मुजाहिदीन गुटों की चुनौतियां बढ़ने लगीं. अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और सऊदी अरब ने मुजाहिदीन को पैसा और हथियार दिए.
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1985
मुजाहिदीन गुटों ने पाकिस्तान में आकर सोवियत बलों के खिलाफ एक गठबंधन बनाया. युद्ध की वजह से आधी अफगान आबादी विस्थापित हो गई. बहुत से लोग जान बचाने के लिए पड़ोसी ईरान और पाकिस्तान जैसे देशों में भाग गए.
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1986
अमेरिकी ने मुजाहिदीन को स्टिंगर मिसाइलें देनी शुरू कर दी, जिनके जरिए वे सोवियत हेलीकॉप्टर गनशिपों को मार गिरा सकते थे. इसी साल बाबराक कमाल की जगह नजीबुल्लाह को सोवियत समर्थित सरकार का प्रमुख बनाया गया.
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1988
अफगानिस्तान, सोवियत संघ, अमेरिका और पाकिस्तान ने एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके बाद सोवियत सैनिकों ने अफगानिस्तान से हटना शुरू कर दिया. 1989 में सोवियत सेना पूरी तरह वहां से हट गई, लेकिन गृह युद्ध जारी रहा क्योंकि मुजाहिदीन नजीबुल्लाह सरकार को हटाना चाहते थे.
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1992
नजीबुल्लाह को सत्ता से बेदखल कर दिया गया. दरअसल सोवियत संघ ने नजीबुल्लाह सरकार को सहायता देनी बंद कर दी थी जबकि मुजाहिदीन को लगातार पाकिस्तान की मदद मिल रही थी. लेकिन नजीबुल्लाह के हटने के बाद फिर गृह युद्ध शुरू हो गया जो कहीं ज्यादा खूनी और खतरनाक था.
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1996
तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया और देश में कट्टरपंथी इस्लामी शासन लागू किया. दफ्तरों में महिलाओं के काम करने पर रोक गई और इस्लामी सजाओं का चलन शुरू हो गया जिसमें पत्थर मार कर मौत के घाट उतारना या फिर शरीर का कोई अंग काट देना भी शामिल था.
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1997
पाकिस्तान और सऊदी अरब ने तालिबान की सरकार को मान्यता दी. अब अफगानिस्तान के दो तिहाई हिस्से पर उनका नियंत्रण था. अमेरिका ने 1998 में अल कायदा नेता ओसामा बिन के कुछ ठिकाने पर हमले किए, जो उसे अमेरिका में अपने दूतावासों पर हुए हमलों का जिम्मेदार मानता था.
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2001
ये अफगानिस्तान के हालिया इतिहास का सबसे अहम साल है. 2001 में तालिबान के सबसे बड़े विरोधी नॉर्दन एलायंस के नेता अहमद शाह मसूद की हत्या की गई. इसी साल अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले हुए. इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और तालिबान को सत्ता से बेदखल किया. जर्मन शहर बॉन में हुए समझौते के तहत हामिद करजई को अंतरिम साझा सरकार की कमान सौंपी गई.
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2002
नाटो के नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहयोग बल (आईसैफ) की तैनाती हुई. इसी साल जहीर शाह अफगानिस्तान लौटे लेकिन उन्होंने सत्ता पर कोई दावा नहीं किया. इसी साल लोया जिरगा में हामिद करजई को अंतरिम राष्ट्र प्रमुख चुना गया, जो 2014 तक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति रहे.
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2008
राष्ट्रपति करजई ने चेतावनी दी कि अगर पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में हमले करने वाले तालिबान चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की, तो अफगान सैनिक उनसे निपटने के लिए पाकिस्तान की सीमा में दाखिल होंगे. इसी साल काबुल में मौजूद भारतीय दूतावास पर हमले में 50 से ज्यादा लोग मारे गए. सितंबर 2008 में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने साढ़े चार हजार अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान भेजे.
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2009
नाटो देशों ने अफगानिस्तान में 17 हजार सैनिक तैनात करने का संकल्प किया. दिसंबर 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अफगानिस्तान में तीस हजार और सैनिक भेजने का एलान किया जिसके बाद वहां एक लाख अमेरिकी सैनिक हो गए. उन्होंने यह भी घोषणा की कि 2011 से अमेरिकी फौज अफगानिस्तान से हटना शुरू कर देगी.
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2012
नाटो शिखर सम्मेलन में 2014 तक विदेशी सैनिकों के युद्धक मिशन को खत्म करने का समर्थन किया गया. फ्रांस के राष्ट्रपति ने योजना से एक साल पहले 2012 तक ही अपने सैनिक हटा लेने की घोषणा की. इसी साल टोक्यो में दानदाता सम्मेलन में अफगानिस्तान को 16 अरब डॉलर की असैन्य मदद का वादा किया गया.
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2014
इस साल अशरफ गनी अफगानिस्तान के नए राष्ट्रपति बने. लेकिन यह साल काबुल में एक बड़े हमले का गवाह बना. राजनयिक इलाके में हुए हमले में 13 विदेशी नागरिक मारे गए. इनमें अफगानिस्तान के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख भी थे. इसी साल नाटो का 13 साल से चल रहा युद्धक मिशन भी खत्म हो गया.
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2015
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि राष्ट्रपति गनी के आग्रह पर कुछ देरी से अमेरिकी सैनिकों को हटाया जाएगा. इसी साल कतर में तालिबान के प्रतिनिधियों और अफगान सरकार के बीच पहली बार शांति वार्ता हुई. तालिबान बातचीत जारी रखने पर सहमत हुआ, लेकिन लड़ाई रोकने पर नहीं.
तथाकथित इस्लामिक चरमपंथी संगठन ने नंगरहार में तोरा बोरा के पहाड़ी इलाकों पर कब्जा कर लिया. कभी अल कायदा नेता ओसामा बिन इस ठिकाने को इस्तेमाल किया करता था. इसी साल अगस्त में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि वह तालिबान से लड़ने के लिए और फौजी अफगानिस्तान भेज रहे हैं.
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2019
अफगानिस्तान अपनी आजादी के 100 साल बाद भी दुनिया के सबसे अशांत और गरीब देशों में शामिल है. तालिबान से शांति वार्ता जारी है. वहां रहने वाले लोगों के लिए हालात दयनीय बने हुए हैं. अब भी बहुत से लोग दूसरे देशों में शरण ले रहे हैं.