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अफवाह और लिंचिंग का बेकाबू तंत्र

शिवप्रसाद जोशी
१७ जुलाई २०१८

व्हट्सऐप और सरकारें लगभग हाथ खड़ा कर चुकी हैं, मॉब लिंचिंग और अफवाहों के आगे कानून व्यवस्था बेबस नजर आ रही है. पूरी दुनिया में आशंका, सवाल, हैरानी और डर है कि आखिर भारत में ये हो क्या रहा है?

Indien - Protest gegen Hass und Mob Lynchen
तस्वीर: Imago/Hundustan Times

एक देश के रूप में ये पहली बार नहीं है कि भारत का सर शर्म से झुक रहा है लेकिन एक भीषण डर और स्तब्धता जरूर पहली बार है. और इसकी वजह है भीड़तंत्र का उभार. पीट पीट कर मार डालने वाली नफरत और बात बेबात भड़क उठती हिंसा. जनवरी 2017 से लेकर जुलाई 2018 तक बच्चा चोरी की अफवाह के बाद भीड़ की हिंसा के 69 मामले सामने आये हैं जिनमें 33 लोगों को भीड़ ने मार डाला और करीब 100 को घायल किया. हालात की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि अकेले इसी साल अब तक 24 लोग मारे गये. जुलाई में पहले छह दिनों में भीड़ की हिंसा के नौ मामले हुए और पांच लोग मारे गये. इस तरह सिर्फ अफवाहों से बेगुनाहों की जानें जा रही हैं. 2014 से मार्च 2018 तक सरकार के मुताबिक देश के नौ राज्यों में विभिन्न वजहों से हुई मॉब लिंचिंग के 40 मामलों में 45 लोग मारे गये और 200 से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गये. लेकिन गैर आधिकारिक आंकड़े अधिक हैं.

तस्वीर: Imago/Hundustan Times

सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि बच्चा चोरी की वारदातों का अफवाहों से कोई संबंध नहीं है. जिस राज्य में बच्चा चोरी की वास्तविक वारदातें ज्यादा हुई हैं वहां अफवाहों से पैदा हिंसा या मरने वालों की संख्या अपेक्षाकृत उतनी नहीं है जितना कि उन इलाकों में जहां सिर्फ अफवाहों ने भीड़ को उकसाया. मिसाल के लिए कर्नाटक के जिस इलाके में पिछले दिनों जिस युवा इंजीनियर को जान गंवानी पड़ी वहां तो ऐसी कोई वारदात हुई ही नहीं थी, फिर भी वहां पर भीड़ जमा हो गई. इन अफवाहों के पीछे सिर्फ भय या आशंका का हाथ नहीं है, ये एक अधिक खूंखार और घिनौनी साजिश का हिस्सा जान पड़ती है, इसमें स्वार्थ, लालच, प्रतिहिंसा और किन्हीं आगे के खतरनाक उद्देश्यों की पूर्ति की बू आती है. लोकतंत्र को कुचलने पर आमादा ये भीड़तंत्र अदृश्य रूप से फैल रहा है. बच्चा हो या बीफ- शक में या अफवाह में या किसी भी तरह की अन्य संदिग्ध स्थिति बनाकर भीड़ घेर सकती है और जान से मार सकती है. आज की इस भीड़ और उसके हमलों का पैटर्न देखें तो पता चलता है कि ये भीड़ दरअसल उसी भीड़ की एक छिटकी हुई परत है जो कुछ साल पहले गोरक्षा और लव जेहाद के नाम पर अल्पसंख्यकों और दलितों पर टूटी थी. 

व्हट्सऐप ने तो कुछ दिनों पहले अखबारों में एक पेज का बड़ा सा विज्ञापन और कुछ टिप्स देकर एक तरह से अपनी जिम्मेदारी निभा दी. कुछ तकनीकी उपाय भी उसने विचार किए हैं. लेकिन उसे पता है कि इनक्रिप्टेड मैसेजों की एक लंबी श्रृंखला में कौन सा मैसेज अफवाह है या फर्जी है- ये पता चल पाना कठिन है. फिर तो यही रास्ता बचेगा कि सरकार जैसा कहे वैसा ही करें. उसका फिलहाल ये प्रस्ताव है कि संदेशों की निगरानी के तहत कौन क्या लिख बोल रहा है- सारा मेटाडैटा सरकार को उपलब्ध हो. सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों ऐसे किसी प्रस्ताव को नागरिक अधिकारों के लिहाज से अनुचित बताया था. व्हट्सऐप और फेसबुक के प्रौद्योगिकी दिग्गजों को कोई न कोई रास्ता जरूर निकालना होगा. अगर वे लाइक्स और अन्य शोभाओं और आकर्षणों से अपनी यूजर संख्या करोड़ों अरबों में कर सकते हैं तो वे ऐसा सिस्टम भी जरूर निर्मित कर सकते हैं जो यूजर को निरंकुश उपद्रवी बनाने से रोक दे.

तस्वीर: Getty Images/P. Singh

सरकारों को क्या करना है- सिर्फ इतना ही कि निर्धारित कानूनों का सख्ती से अमल कराएं. पुलिस तंत्र को मुस्तैद, आत्मनिर्भर और फैसलों में स्वतंत्र बनाएं. आधुनिक साजोसामान और सुरक्षा दें- पुलिस दबंगई भीड़ के सामने डर और याचना में तब्दील हो जाती है. कानून के डर से ज्यादा सम्मान की जरूरत है. जागरूक करने वाले संगठन, व्यक्ति, राजनीतिक दल जो भी जैसे भी निस्वार्थ भाव से नागरिकों के बीच सघन और निरंतर जागरूकता अभियान चलाएं. बहुसंख्यकवादी, सांप्रदायिक और स्वार्थपूर्ण राजनीति के लिए क्या कहें. उससे तो ये अपील भी नहीं की जा सकती कि बस करो, देश को इतना खून और नफरत और डर और हिंसा से मत डुबोओ. एक निर्णायक लड़ाई देरसबेर नागरिकों को ऐसी राजनीति के खिलाफ भी लडऩी होगी. 

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