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अफसरों को लेकर केंद्र और राज्य के बीच टकराव के मायने

समीरात्मज मिश्र
१८ दिसम्बर २०२०

पश्चिम बंगाल में बीते हफ्ते बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के काफिले पर हमले के बाद उनकी सुरक्षा में तैनात तीन आईपीएस अफसरों को लेकर पैदा हुआ प्रशासनिक और संवैधानिक संकट अब न्यायालय की चौखट तक पहुंचने वाला है.

Mamata Banerjee - Indien
तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Sarkar

जेपी नड्डा के काफिले पर हमले के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने उन तीन वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों को अचानक दिल्ली तलब करने का निर्देश दे दिया जिनके नेतृत्व में दक्षिण 24-परगना जिले में जेपी नड्डा की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी. लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इन तीनों अधिकारियों को भेजने से इनकार कर दिया.

बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा पार्टी के एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पिछले हफ्ते दक्षिण 24-परगना जिले के डायमंड हार्बर की ओर जा रहे थे. उसी समय तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने कथित तौर पर उनके काफिले पर पथराव किया जिसके बाद यह विवाद सामने आया. घटना के अगले ही दिन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य के मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को समन भेज कर 14 दिसंबर को दिल्ली हाजिर होने का निर्देश दिया लेकिन राज्य सरकार ने इन दोनों अधिकारियों को दिल्ली भेजने से इनकार कर दिया.

एक दिन बाद गृह मंत्रालय ने तीन वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों को अचानक प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली पहुंचने का निर्देश जारी कर दिया लेकिन राज्य सरकार ने इन तीनों अधिकारियों को रिलीज करने से भी मना कर दिया. राज्य सरकार का कहना है कि पश्चिम बंगाल में अधिकारियों की पहले से ही कमी है इसलिए इन अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर भेजना संभव नहीं है. इस बीच, राज्य सरकार इन अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर बुलाने संबंधी केंद्र सरकार के फैसले को कोर्ट में भी चुनौती देने की तैयारी कर रही है.

जेपी नड्डा(फाइल)तस्वीर: Prabhakarmani Tewari/DW

केंद्र और राज्य सरकार के बीच अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों को लेकर तनातनी का यह पहला मौका नहीं है. भारतीय संविधान में संघीय गणराज्य की परिकल्पना और उसकी स्थापना के बावजूद राज्यों की स्वायत्तता का पूरा ख्याल रखा गया है. अखिल भारतीय सेवाएं भी उसी कड़ी में आती हैं जहां इन अधिकारियों की नियुक्ति तो केंद्रीय स्तर पर होती है लेकिन तैनाती उनके कैडर राज्य में होती है और फिर उनके स्थानांतरण और इस तरह के दूसरी प्रशासनिक जिम्मेदारी राज्यों पर होती है.

जहां तक सवाल केंद्र सरकार और पश्चिम बंगाल सरकार के बीच पनपे मौजूदा विवाद का है तो नियमों के मुताबिक, जब तक राज्य में तैनात किसी अधिकारी को संबंधित राज्य सरकार रिलीव नहीं कर देती, तब तक केंद्र सरकार उनकी प्रतिनियुक्ति नहीं कर सकती. ऑल इंडिया सर्विसेज 1969 के नियम 7 के अनुसार राज्य सरकार के तहत काम करने वाले सिविल अधिकारियों पर केंद्र कोई एक्शन भी नहीं ले सकता. यही नहीं, यदि किसी विशेष स्थिति में एक्शन लेने की नौबत आ जाए तो इसके लिए भी केंद्र और राज्य दोनों की सहमति जरूरी होती है.

ऑल इंडिया सर्विस एक्ट के नियमों के अनुसार, हर राज्य को एक न्यूनतम संख्या में (जो उसकी काडर शक्ति का करीब 25 फीसदी होती है) आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को केंद्रीय प्रतिनियुक्ति के लिए भेजना होता है. इस संख्या को राज्य का सेंट्रल डेपुटेशन रिजर्व (सीडीआर) कहा जाता है. राज्यों में तैनात अधिकारियों की संख्या के आधार पर ही सीडीआर का कोटा तय होता है.

नियुक्ति और कार्मिक विभाग के पूर्व सचिव सत्यानंद मिश्र कहते हैं कि केंद्र ऐसे अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता, जो किसी राज्य सरकार के अधीन काम कर रहा हो. उनके मुताबिक, "केंद्र सरकार उस राज्य के अधिकारियों की संख्या कम कर सकता है यानी ज्यादा से ज्यादा अधिकारियों को केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर ले सकता है लेकिन जब तक कोई अधिकारी राज्य सरकार के अधीन है, केंद्र उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता.”

हालांकि केंद्र सरकार इस मामले को सुप्रीम कोर्ट ले जा सकती है या फिर इन अधिकारियों के पांच वर्ष या उससे अधिक के लिए केंद्र में आने पर रोक लगा सकती है लेकिन उसके पास कार्रवाई का अधिकार तब तक नहीं है जब तक कि वो राज्य सरकार के अधीन काम कर रहे हैं.

फाइल तस्वीर: Prabhakarmani Tewari/DW

यूपी में डीजीपी रह चुके रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी वीएन राय कहते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 312 के जरिए अखिल भारतीय सेवाओं की व्यवस्था की गई है जो कि देश को एक संघ बनाए रखने के लिए बेहद जरूरी है. वो कहते हैं, "इन सेवाओं के जरिए सेवा शर्तें तो केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की जाती हैं लेकिन उनकी सेवाएं केंद्र और राज्य दोनों ले सकते हैं. अखिल भारतीय सेवाओं की नियमावलियां कुछ इस तरह बनाई गई हैं कि इनके अधिकारी काफी हद तक दबाव से मुक्त रहकर अपना काम कर सकें. इसीलिए काडर आवंटित करते समय ध्यान रखा जाता है कि हर राज्य में पर्याप्त संख्या में दूसरे राज्यों के निवासी पहुंचें ताकि वो स्थानीय पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपना काम कर सकें.”

वीएन राय कहते हैं कि अक्सर यह देखा गया है कि राज्य सरकारें संवेदनशील क्षेत्रों में बाहर से आए अफसरों पर अधिक भरोसा दिखाती हैं. दरअसल, केंद्रीय सेवा के अधिकारी एक लंबा समय तो अपने निर्धारित काडर में बिताते हैं लेकिन बीच-बीच में केंद्र सरकार की प्रतिनियुक्ति पर भी आते-जाते रहते हैं. अखिल भारतीय सेवाओं में भारतीय प्रशासनिक सेवा यानी आईएएस और भारतीय पुलिस सेवा यानी आईपीएस को शामिल किया गया था लेकिन बाद में भारतीय वन सेवा यानी आईएफएस को भी इसमें शामिल कर लिया गया.

सेवा नियमावलियों के अनुसार, अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों को राज्य बिना केंद्र सरकार या संघ लोक सेवा आयोग की सलाह के सजा नहीं दे सकता. पश्चिम बंगाल के तीन आईपीएस अधिकारियों को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली रिपोर्ट करने की आज्ञा देना, प्रतिनियुक्ति पर बुलाने जैसा ही है.

वीएन राय कहते हैं, "यह आदेश कई अर्थों में अभूतपूर्व है. आदेश जारी करने से पहले राज्य सरकार की कोई सहमति नहीं ली गई. निर्धारित प्रक्रिया के तहत केंद्र और राज्य दोनों की सहमति से ही किसी अधिकारी को केंद्र की प्रतिनियुक्ति पर भेजा जाता है. इसके पीछे वजह सिर्फ राजनीतिक है, प्रशासनिक नहीं. लेकिन यह देश के संघीय ढांचे के लिहाज से ठीक नहीं है.”

दो साल पहले दिल्ली में राज्य सरकार और आईएएस अधिकारियों के बीच पनपे विवाद में भी यह सवाल उभर कर आया था कि आईएएस अधिकारी दरअसल किसके अधीन हैं. हालांकि पूर्ण राज्य का दर्जा ना होने के चलते दिल्ली में यह स्थिति कुछ अलग है लेकिन संवैधानिक जानकारों का कहना है कि जब तक अफसरों की तैनाती राज्य में होती है तो तकनीकी रूप से वो संबंधित राज्य सरकार के ही अधीन होते हैं.

यह सवाल सिर्फ कुछेक राज्यों का नहीं है बल्कि केंद्र और राज्य के संबंधों से जुड़ा हुआ है. अक्सर केंद्र और राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों की सरकारें होती हैं. ऐसी स्थिति में अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों पर केंद्र या राज्य में से किसी एक के असीमित अधिकार संघीय ढांचे की भावना के खिलाफ होंगे और जाहिर है, इसके परिणाम अच्छे नहीं होंगे.

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