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अफ्रीका में अभी भी हैं औपनिवेशिक कानून

१९ जुलाई २०१९

पहले उपनिवेश रहे देश बहुत सारी समस्याओं के लिए औपनिवेशिक शासन को जिम्मेदार ठहराते हैं. लेकिन बहुत से अफ्रीकी देशों में अभी भी औपनिवेशिक कानून लागू हैं. रवांडा अब उन्हें एक साथ ही खत्म करना चाहता है.

Ghana Oberrichterin Georgina Wood
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Utomi Ekpei

अफ्रीकी देश रवांडा औपनिवेशिक काल के करीब 1000 कानूनों को खत्म करने जा रहा है. ये वे कानून हैं जो 1885 में औपनिवेशिक शासन के शुरु होने से 1962 में आजादी मिलने तक बनाए गए थे. इनमें कानून, अध्यादेश और शाही आदेश शामिल हैं. रवांडा के संविधान मंत्री इवोड उवीजेयीमाना ने कहा है, "ये शर्मिंदगी की बात है कि औपनिवेशिक कानून अभी भी लागू हैं." उन्होंने कहा कि जिस तरह रवांडा अपनी आर्थिक आजादी के लिए लड़ रहा है उसी तरह वह अपनी कानूनी आजादी के लिए भी लड़ेगा. अप्रैल 2019 में सरकार ने कानूनी धाराओं को निरस्त करने के बिल को मंजूरी दी थी, जून के अंत में इसे संसद में पेश किया गया है.

आज भी औपनिवेशिक कानून

रवांडा कोई अपवाद नहीं है. बर्लिन के हुम्बोल्ट यूनिवर्सिटी में अफ्रीकी इतिहास के प्रोफेसर आंद्रेयास एकर्ट कहते हैं, "बहुत से अफ्रीकी देशों ने औपनिवेशिक काल में बने कानूनों के बड़े हिस्से को अपना लिया." हालांकि उनमें संशोधन और सुधार किए गए लेकिन बहुत से अफ्रीकी शासकों ने अपनी सत्ता को पुख्ता करने के लिए आजादी के फौरन बाद पुराने औपनिवेशिक कानूनों को ही अपना लिया. हैम्बर्ग के गीगा इंस्टीट्यूट में अफ्रीका विशेषज्ञ माल्टे लियर्ल का कहना है कि ये कानून कम संसाधनों के साथ लोगों को नियंत्रण में रखने और ज्यादा से ज्यादा कच्चे मालों को निर्यात करने के लिए बनाए गए थे. लियर्ल ने डॉयचे वेले को बताया, "औपनिवेशिक राज्यों के राजनीतिक संस्थान और कानून आजाद देश के आर्थिक उत्थान और लोकतांत्रिक सहभागिता पर लक्षित नहीं थे."

रवांडा के राष्ट्रपति पॉल कागामेतस्वीर: picture-alliance/C. Ndegeya

घाना के जजों की पोशाक इसका साधारण उदाहरण है कि औपनिवेशिक कानूनी परंपरा आज भी जीवित है. ब्रिटिश जजों की ही तरह वे आज भी क्लासिकल विग पहनते हैं. लेकिन इससे ज्यादा गंभीर उदाहरण भी हैं.  माल्टे लियर्ल कहते हैं, "बहुत से देशों में अभी भी ऐसे औपनिवेशिक कानून हैं जो लोगों की जिंदगी मुश्किल बनाते हैं या अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव करते हैं." बहुत से अफ्रीकी देशों में अभी भी समलैंगिकता को अपराध बताने वाले औपनिवेशिक कानून हैं. इसकी वजह से प्रभावित लोगों को काफी मुश्किलें झेलनी पड़ती है. एक और उदाहरण तंजानिया में पहचान का कानून है. खासकर देहाती इलाकों में लोगों को पहचान पत्र बनाने में मुश्किल होती है क्योंकि वहां कोई सरकारी दफ्तर नहीं है.लेकिन ये कानून पुलिस को लोगों को परेशान करने का अधिकार देता है. इसी तरह औपनिवेशिक काल का जादू टोने पर प्रतिबंध वाला कानून तंजानिया में परंपरागत चिकित्सा करने वाले लोगों को अपराधी बनाता है.

कानून के ना होने का खतरा

इतिहासकारों का कहना है कि रवांडा में औपनिवेशिक कानूनों का बहुत बुरा असर हुआ है. उनके अनुसार औपनिवेशिक कानूनों ने 1994 में रवांडा में नरसंहार को संभव बनाया. 1930 के दशक में बेल्जियम के औपनिवेशिक शासकों ने पहचान पत्र का नियम लागू किया जिसमें लोगों को अपनी जाति लिखनी होती थी कि वे हूतू हैं या टुत्सी. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इसकी वजह से लोगों में विभाजन हुआ. इसके बावजूद ये सवाल उठ रहा है कि सभी औपनिवेशिक कानूनों को खत्म करना क्या उचित है. कुछ सांसदों को डर है कि उसकी वजह से कानून में कमियां रह जाएंगी. केन्या के वकील मार्टिन ऊलू का कहना है कि 1885 से 1962 तक के सभी कानूनों को समाप्त करने पर शून्य पैदा हो जाएगा. उनका कहना है, "जरूरी ये देखना होगा कि क्या काम करता है और क्या काम नहीं करता है."

जजों की औपनिवेशिक पोशाकतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/B. Curtis

इसके लिए हर कानून की अलग से समीक्षा करनी होगी. ऐसे कानून, जो लोगों के हित में हैं, कोई समस्या पैदा नहीं करते. ऐसे कानून जो उपनिवेश समर्थकों के हित में हैं, उन्हें समाप्त किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, "यदि उनका मकसद जनता की आजादी छीनना था, तो एक आजाद मुल्क को ऐसे कानून नहीं रखना चाहिए." 90 के दशक में दक्षिण अफ्रीका की संविधान सभा को सलाह देने वाले कानूनविद् उलरिष कार्पेन की भी यही राय है. उनका मानना है कि बहुत से कानून तकनीकी चरित्र के हैं. वे कहते हैं, "खामियों वाले कानून हमेशा कानून नहीं होने से बेहतर है." रवांडा में यूं भी पुराने सा खतरनाक कानूनों को खत्म करने की सुविधा है. जर्मनी की तरह वहां भी एक संक्रमणकालीन पाराग्राफ है. उसमें लिखा है कि पुराने कानून यदि संविधान का हनन नहीं करते तो वैध हैं. यदि कोई कानून संविधान सम्मत नहीं है तो उसे संवैधानिक अदालत में चुनौती दी जा सकती है और अदालत के फैसले के अनुसार उसमें संशोधन किया जा सकता है.

रिपोर्ट: क्लेरिसा हैरमन

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