अफगानिस्तान के एक सुदूर इलाके में जरीफा उस दिन को कभी नहीं भूल सकती जब इस्लामिक स्टेट के एक स्थानीय कमांडर ने अपनी वहशत से उसकी इज्जत को कुचला था.
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तीन बच्चों की मां जरीफा बताती है कि यह आईएस कमांडर कुछ लोगों को लेकर उसके घर आया है और पैसे मांगने लगा, जिन्हें देने का वादा कथित तौर पर जरीफा के पति ने किया था.
वह कहती है, "मैंने उससे कहा कि हमारे पास कोई पैसा नहीं है और अगर हमारे पास कुछ हुआ तो हम उसके पास भिजवा देंगे. लेकिन उसने मेरी एक नहीं सुनी और कहने लगा कि मुझे उसके आदमियों में से किसी एक से शादी करनी होगी और अपने पति को छोड़ कर उनके साथ जाना होगा."
जरीफा बताती है, "जब मैंने इनकार कर दिया, तो उसके साथ जो लोग आए थे वे मेरे बच्चों को दूसरे कमरे में ले गए और उसने बंदूक निकाली और कहा कि अगर मैं उसके साथ नहीं जाऊंगी तो वह मुझे मार देगा और मेरा घर हड़प लेगा. इसके बाद जो कुछ भी वह कर सकता था, उसने किया."
अफगानिस्तान में आईएस ने ऐसे जमाए पैर
अफगानिस्तान में आईएस ने ऐसे पैर जमाए
इराक और सीरिया में अपना वजूद मिटता देख तथाकथित इस्लामिक स्टेट ने अफगानिस्तान में अपने पैर पसार लिए हैं. वहां आईएस आम लोगों पर हमले करने की बजाय तालिबान से भी टकरा रहा है.
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आईएस की शुरुआत
2014 में अमेरिका और नाटो जब अफगानिस्तान में अपने युद्ध मिशन को समेट रहे थे तो आईएस ने वहां पहली बार अपने पैर जमाने की कोशिश की. हाल के सालों में कई बड़े हमले कर आईएस ने अफगानिस्तान में अपनी ताकत को लगातार बढ़ाया है.
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पाकिस्तानी लड़ाके
अफगानिस्तान में आईएस की शाखा को मुख्य रूप से पाकिस्तानी तालिबान के उन लड़ाकों ने शुरू किया जिन्हें पाकिस्तान में सैन्य अभियान के बाद भागना पड़ा था. हिंसा कम करने और शांति प्रकिया जैसे मुद्दों पर अफगान तालिबान के नेतृत्व से नाराज कई लड़ाके भी इस गुट में शामिल हो गए.
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बढ़ी ताकत
शुरू में आईएस पाकिस्तान से लगने वाले पूर्वी अफगान प्रांत नंगरहार तक ही सीमित था. लेकिन अब उसने उत्तरी अफगानिस्तान तक अपना विस्तार कर लिया है. पाकिस्तान के दक्षिणी वजीरिस्तान से निकाले गए इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान के लड़ाकों को साथ लेने से उसकी ताकत बढ़ी है.
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खोरासान प्रांत
इराक और सीरिया में जहां इस्लामिक स्टेट अपने नियंत्रण वाले इलाके को खिलाफत का नाम देता था, वहीं अफगानिस्तान में उसकी शाखा अपने इलाके को खोरासान प्रांत कहती है. खोरासान मध्य एशिया का प्राचीन नाम है जिसमें आज का अफगानिस्तान भी आता है.
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निशाने पर शिया
तालिबान की तरह ही आईएस की अफगान शाखा भी देश से अमेरिका के समर्थन वाली सरकार को बेदखल कर कट्टर इस्लामी शासन लागू करना चाहती है. लेकिन तालिबान जहां सरकारी इमारतों को निशाना बनाते हैं, वहीं आईएस के निशाने पर शिया समुदाय के हजारा लोग हैं.
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समाज में फूट
आईएस शिया लोगों को धर्म से पथभ्रष्ट मानता है. काबुल में रहने वाले सुरक्षा विश्लेषक वाहिद मुजदा कहते हैं कि जिहादी समूह आईएस अफगान समाज में सांप्रदायिक मतभेद पैदा करना चाहता है. आईएस खुद की तालिबान से अलग पहचान बनाने के लिए शिया लोगों को निशाना बना रहा है.
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बगदादी के वफादार
इस बारे में सटीक जानकारी नहीं है कि अफगानिस्तान में आईएस कितना बड़ा है. लेकिन अनुमान है कि उसके लड़ाकों की संख्या तीन से पांच हजार के बीच है. अफगानिस्तान में सक्रिय आईएस लड़ाके भी अबु बकर अल बगदादी के वफादार हैं और उसकी तरह दुनिया में मुस्लिम खिलाफत का सपना देखते हैं.
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खून से रंगे हाथ
सीरिया और इराक में आईएस को शुरू करने वाले बगदादी की तरह अफगान आईएस लड़ाकों को शियाओं से नफरत है. अफगानिस्तान की 3.5 करोड़ की आबादी में अल्पसंख्यक शिया 15 प्रतिशत है. वहीं आईएस एक सुन्नी गुट है, जिसे शियाओं के खून से हाथ रंगने में कोई हिचकिचाहट नहीं है.
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बेहाल सुरक्षा
अफगानिस्तान में आईएस की बढ़ती ताकत को देखते हुए शियाओं ने अपने धार्मिक स्थलों पर सुरक्षा व्यवस्था को बढ़ा दिया है. लेकिन देश में समूची सुरक्षा व्यवस्था डांवाडोल है. लगातार हो रहे हमलों को रोकना सुरक्षा बलों की क्षमता से बाहर दिख रहा है.
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लोगों का कितना समर्थन
अफगानिस्तान एक सुन्नी बहुल रुढ़िवादी समाज है. लेकिन वहां आईएस को ज्यादा लोगों का समर्थन प्राप्त नहीं है. हालांकि तालिबान ने कई बड़े हमले किए हैं, लेकिन कई इलाकों में वे प्रशासन भी चला रहे हैं. कुछ अफगान लोग काबुल की 'भ्रष्ट सरकार' से ज्यादा तालिबान को पसंद करते हैं.
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देसी बनाम विदेशी
दूसरी तरफ इस्लामिक स्टेट को सिर्फ बर्बर हिंसा के लिए जाना जाता है जिसकी दुनिया भर में निंदा होती है. अफगानिस्तान में आईएस को एक विदेशी संगठन के तौर पर देखा जाता है जबकि तालिबान खुद अफगान धरती पर पैदा हुए.
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शांति प्रक्रिया
तालिबान और आईएस में कई अंतर हैं. मसलन तालिबान ने कभी बगदादी के इस दावे को स्वीकार नहीं किया कि वह पूरे मुस्लिम जगत में फैली खिलाफत का नेतृत्व करता है. साथ ही तालिबान ने कई बार शांति प्रक्रिया में शामिल होने की इच्छा जताई है, जबकि आईएस पूरी तरह से इसके खिलाफ है.
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जंग का मैदान
नंगरहार प्रांत में आईएस और तालिबान एक दूसरे से लड़ते रहे हैं. रूस और कई अन्य देश आईएस के बढ़ते असर को रोकने के लिए तालिबान के साथ सहयोग के हक में हैं. लेकिन शांति वार्ता के मोर्चे पर कोई प्रगति न होने की वजह अफगानिस्तान बदस्तूर जंग का मैदान बना हुआ है.
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तालिबान के राज में रहने वाले अफगानिस्तान ने बहुत बर्बरता देखी है. लेकिन इस्लामिक स्टेट ने दुनिया में बर्बरता की नई मिसालें कायम की हैं. अपने विरोधियों के सिर कलम करने या फिर उन्हें विस्फोटकों पर बिठाने वाले आईएस के वीडियो दुनिया ने देखे हैं. लेकिन सीरिया और इराक में आईएस लड़ाके कम उम्र लड़िकयों या महिलाओं से जबरदस्ती शादियां और बलात्कार के लिए बहुत कुख्यात रहे हैं.
अफगानिस्तान में ऐसे मामले अभी तक सुनने में नहीं आए थे. अब अफगानिस्तान के पूर्वी प्रांत नंगरहार से ऐसी खबरें मिल रही हैं. 2014 में पहली बार इसी प्रांत में आईएस ने पैर जमाने शुरू किए थे. दक्षिणी प्रांत जाबुल में भी आईएस की गतिविधियां बढ़ रही हैं.
रुढ़िवादी अफगान समाज में यौन उत्पीड़न के मामले अकसर दबा दिए जाते हैं. इसलिए यह पता लगाना भी मुश्किल है कि कितने बड़े पैमाने पर चरमपंथी महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं.
जरीफा के प्रांत जोवजजान में इस्लामिक स्टेट की मौजूदगी बढ़ रही है. तुर्कमेनिस्तान से लगने वाले इस इलाके को स्मगलिंग रूट के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है जिसका फायदा आईएस भी उठा रहा है. वह विदेशी लड़ाकों के साथ साथ स्थानीय बेरोजगार अफगान युवकों को भर्ती कर अमेरिका समर्थित अफगान सैन्य बलों और तालिबान, दोनों से लोहा ले रहा है.
क्या कभी सुधरेंगे अफगानिस्तान के हालात?
क्या कभी सुधरेगा अफगानिस्तान का हाल
पिछले 19 साल से अफगानिस्तान में अमेरिका का दखल बना हुआ है. लेकिन अब भी देश कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ कमजोर नजर आता है. हाल के आत्मघाती हमले और बम धमाके देश में आतंकवादी गुटों की मजबूत पकड़ को बयां करते हैं.
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चरमराती सुरक्षा व्यवस्था
पिछले कई महीनों से अफगानिस्तान कभी बम धमाके तो कभी आत्मघाती हमलों के चलते सुर्खियां बटोर रहा है. अब तक इसमें कई सौ बेकसूर अफगान लोगों की जान जा चुकी है. लेकिन देश की सुरक्षा व्यवस्था सुधरने का नाम ही नहीं ले रही. इन हमलों ने स्थानीय लोगों में निराशा भर दी है. वहीं सरकार भी सुरक्षा के मसले पर विफल साबित हो रही है.
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लगातार हो रहे हमले
लगातार हो रहे इन हमलों ने एक बार फिर अफगानिस्तान को दुनिया की निगाहों में ला दिया है. आतंकवादी गुट तालिबान और इस्लामिक स्टेट (आईएस) समय-समय पर इन हमलों की जिम्मेदारी लेते रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ अफगानिस्तान सरकार पर भी दबाव है कि वह तालिबान और आईएस के कब्जे वाले इलाकों में अपना शासन कायम कर सके.
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आक्रामक नीति
हाल में ही तालिबान ने अफगानिस्तान के भीतर बेहद ही आक्रामक नीति अपनाने की घोषणा की. साथ ही राष्ट्रपति के साथ शांति वार्ता के प्रस्ताव को भी सिरे से खारिज कर दिया. आतंकवादी गुट अफगानिस्तान में सख्त इस्लामिक कानूनों को लागू करने के पक्षधर हैं. उनका आक्रामक कैंपेन अमेरिका की कड़ी सैन्य रणनीतियों का उत्तर है.
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ट्रंप की अफगान नीति
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पिछले साल अफगानिस्तान के लिए नई रणनीति तय की थी. इसके तहत अफगान सुरक्षा बलों के प्रशिक्षण और मदद के लिए 11000 अतिरिक्त शीर्ष अमेरिकी सैनिकों की तैनाती की बात कही गई थी. इसके साथ ही ट्रंप ने तालिबान के खिलाफ लड़ाई में अफगान सैनिकों को समर्थन देने की प्रतिबद्धता जताई थी. साथ ही यह भी कहा था कि अफगानिस्तान में जरूरत के मुताबिक अमेरिका की उपस्थिति बनी रहेगी.
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अफगान शांति प्रक्रिया
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने इस साल फरवरी में तालिबान के सामने शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा था. लेकिन तालिबान ने इस ओर कोई रुचि नहीं दिखाई. और, इसे एक षड्यंत्र कहकर खारिज कर दिया. विशेषज्ञों के मुताबिक कोई भी आतंकी समूह उस वक्त बातचीत में शामिल नहीं होगा जब जमीन पर उसकी पकड़ मजबूत बनी हुई हो.
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पाकिस्तान की भूमिका
अफगानिस्तान के धमाके, पाकिस्तान पर भी दबाव बढ़ा रहे हैं. अफगानिस्तान और अमेरिका दोनों ही पाकिस्तान पर आतंकियों को आश्रय देने का आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन पाकिस्तान लगातार इन आरोपों का खंडन करता रहा है.
तस्वीर: DW/H. Hamraz
तालिबान के इतर
तालिबान के अलावा अफगान लड़ाकों के सरदारों की भी देश की राजनीति में अहम भूमिका है. पिछले साल, हिज्ब-ए-इस्लामी के नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार 20 साल देश से बाहर रहने के बाद अफगान राजनीति में वापस लौ़टे हैं. साल 2016 में अफगान सरकार ने हिकमतयार के साथ इस उम्मीद के साथ समझौता किया था कि ये समूह काबुल के साथ बेहतर संबंध रखेंगे.
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असक्षम सरकार
अफगानिस्तान में सत्ता के लिए जारी इस लड़ाई का असर राष्ट्रपति की कुर्सी पर भी हो रहा है. मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ गनी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता जनता के बीच लगातार घट रही है. वहीं अफगान सरकार में बढ़ते भ्रष्टाचार और भीतरी खींचतान के चलते भी आतंकवाद के खिलाफ सरकार की मुहिम कमजोर पड़ी है.
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जरीफा के साथ जो कुछ हुआ उसके बाद उसे जोवजजान प्रांत के दक्षिणी जिले दरजाब का अपना घर छोड़ना पड़ा और प्रांतीय राजधानी शेबेरगान में रहने लगी. वह कहती है, "मेरा पति एक किसान था और मैं उसका और अपने पड़ोसियों का सामना नहीं कर सकती थी, इसलिए खतरे के बावजूद मैंने वह जगह छोड़ दी."
जरीफा के जैसी ही कहानी समीरा की भी है. वह भी दरजाब में अपना घर छोड़ कर अब शेबेरगान में रहती है. वह बताती है कि आईएस लड़ाके उसके घर आए और उसकी 14 साल की बहन को अपने कमांडर के पास ले गए. वह कहती है, "उसने उसके साथ शादी नहीं की. लेकिन बलात्कार किया. उसके लड़ाकों ने भी बलात्कार किया. यहां तक गांव के मुखिया ने भी मेरी बहन की इज्जत लूटी जो खुद आईएस समर्थक था."
अफीम को खत्म करता वीडियो गेम
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समीरा बताती है, "मेरी बहन 10 महीने तक आईएस लड़ाकों के पास रही. इसके बाद वह वहां से भाग निकली और अब वह हमारे पास है. लेकिन शर्मिंदगी की वजह से मैं अपने आसपास किसी से यह बता नहीं कह सकती हूं."
समीरा और जरीफा जो कहानियां बता रही हैं, ऐसी कई और कहानियां सामने आई है, क्योंकि हाल में हजारों लोग दरजाब छोड़ कर भागे हैं. तालिबान के मुख्य प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद कहते हैं, "इस्लामिक स्टेट ने दरजाब में बहुत अत्याचार किए हैं जिन्हें बयान नहीं किया जा सकता. आईएस किसी नियम कानून को नहीं मानता है और जिस तरह की कहानियां लोग बयान कर रहे हैं, उन्हें लेकर कोई शक नहीं है."
अफगानिस्तान में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिसे आईएस का प्रवक्ता कहा जाए. लेकिन अफगान अधिकारी भी दमन और उत्पीड़न से जुड़े मामलों की पुष्टि करते हैं. उनका कहना है कि अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट एक नई विचारधारा थोपने की कोशिश कर रहा है.
सीरिया में 2015 में मिले दस्तावेजों से पता चलता है कि आईएस किस तरह महिलाओं को सेक्स गुलाम बनाने के लिए कैद रखता है. अफगान रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता मोहम्मद रादमानीश कहते हैं, "यह पूरी तरह हमारी संस्कृति और परंपराओं के खिलाफ है." वह कहते हैं कि दरजाब अकेली जगह नहीं है जहां से इस्लामिक स्टेट के हाथों बलात्कार और महिलाओं को यौन गुलाम बनाए जाने की रिपोर्टें मिली हैं.
दरजाब में रहने वाली एक महिला कामिला कहती है कि उनके इलाके से आईएस लड़ाके तीन लड़कियों को अपने साथ ले गए. वह बताती है, "जब ये लोग हमारे इलाके में आए तो सबको पता था कि आईएस यहां पर क्या करने आया है."
कामिला के मुताबिक, "वे किसी घर से एक लड़की या महिला को चुनते हैं और उसे अपने साथ ले जाते हैं. पहले वे कहते हैं कि हमें इनसे शादी करनी है. लेकिन जब वे ले जाते हैं तो फिर उनका बलात्कार किया जाता है."
एके/एनआर (रॉयटर्स)
इराक से इन्होंने आईएस को समेटा
इन्होंने इराक से आईएस को समेट दिया..
अगस्त 2014 में जब इराक में हैदर अल अबादी ने नई सरकार बनायी तो बहुत से लोगों को यकीन था कि वह नाकाम रहेंगे. असल में यह वह दौर था जब इस्लामिक स्टेट की ताकत लगातार बढ़ रही थी. लेकिन तीन साल में अबादी ने पासा पलट दिया.
तस्वीर: picture-alliance
मिशन पॉसिबल
जिसे बहुत से लोग मिशन इंपॉसिबल करार दे चुके थे, उसे हल्की सफेद दाढ़ी रखने वाले इराकी पीएम अबादी ने संभव कर दिया. उन्होंने इराकी सेना को फिर से खड़ा किया और अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों की मदद से आईएस के कब्जे वाले 90 फीसदी हिस्से से उसे भगा दिया है. अबादी ने देश के उत्तरी हिस्से में कुर्द पेशमर्गा लड़ाकों से भी विवादित हिस्सों को फिर से हासिल किया है.
चुनौतियां
मध्य पूर्व मामलों के जानकार फनर हदाद कहते हैं, "अबादी के बारे में माना जाता था कि वह कमजोर हैं, कड़े फैसले नहीं ले सकते और उनका रवैया कुछ ज्यादा ही मेलमिलाप वाला है." जब उन्होंने नूरी अल मालिकी से सत्ता की बागडोर ली तो जिहादी खतरों के अलावा उनके सामने बेहताशा भ्रष्टाचार, लचर बुनियादी ढांचा और तेल के गिरते दामों जैसी चुनौतियां थीं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/A. Al-Rubaye
मोर्चे पर पीएम
अबादी ने इन चुनौतियों को स्वीकार किया और फिर वह मोर्चों पर जाकर और सैनिकों के साथ खड़े होकर सैन्य कामयाबियों का एलान करते रहे. इराकी व्यवस्था को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए भी उन्होंने कई सुधार किये. इन सभी कदमों पर उन्हें इराकी जनता का समर्थन भी मिला है.
तस्वीर: Reuters
सोशल मीडिया पर सक्रिय
अबादी सोशल मीडिया पर भी बहुत सक्रिय हैं. फेसबुक पर उन्हें 25 लाख लोग फॉलो करते हैं. उनके एक समर्थक ने हाल में फेसबुक पर लिखा, "वह इराक के इतिहास में सबसे अच्छे प्रधानमंत्री हैं. वह बोलते कम हैं और काम ज्यादा करते हैं."
तस्वीर: Ali Al-Saadi/AFP/Getty Images
सुन्नियों में भी लोकप्रिय
जानकार भी कहते हैं, जिन क्षेत्रों में इराक के दूसरे प्रधानमंत्री नाकाम रहे, अबादी ने वहां कामयाबी के झंडे गाड़े. इराक में एक हालिया सर्वे में पाया गया है कि 75 प्रतिशत लोग शिया प्रधानमंत्री अबादी का समर्थन करते हैं. यहां तक इराक के अल्पसंख्यक सुन्नी समुदाय में भी वह लोकप्रिय हैं.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/R. Jensen
शुरुआती जिंदगी
दावा पार्टी के सदस्य अबादी का जन्म 1952 में बगदाद में हुआ, लेकिन इराक में सद्दाम हुसैन के शासनकाल के दौरान ज्यादातर समय अबादी निर्वासन में रहे. ब्रिटेन में रह कर उन्होंने मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल की.
तस्वीर: Reuters/Hadi Mizban
सद्दाम का दौर
अबादी के दो भाइयों को सद्दाम हुसैन के शासन में गिरफ्तार कर मौत की सजा दी गयी. उनका कसूर बस इतना था कि वह दावा पार्टी के सदस्य थे. इसी आरोप में उनके तीसरे भाई को दस साल तक जेल में रखा गया. दावा पार्टी सद्दाम के शासन का विरोध करती थी.
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इराक वापसी
2003 में जब सद्दाम को सत्ता से बेदखल किया गया तो अबादी इराक लौटे. तानाशाही सरकार के पतन के बाद बनी अंतरिम सरकार में अबादी को संचार मंत्री की जिम्मेदारी सौंपी गयी. 2006 में वह संसद के सदस्य बने और उन्हें अर्थव्यवस्था, निवेश और पुर्ननिर्माण समिति और वित्त समिति का चेयरमैन बनाया गया.
तस्वीर: Reuters/Saudi Press Agency
अहम जिम्मेदारी
जुलाई 2014 में अबादी को संसद का डिप्टी स्पीकर बनाया गया. इसके एक महीने बाद ही उन्हें सरकार बनाने का मौका मिला. तीन साल में शायद उनकी सबसे बड़ी कामयाबी देश की सेना और पुलिस को फिर से खड़ा करना है, जो दशकों से लचर अवस्था में थी. वह हजारों सैनिकों और सुरक्षाकर्मियों में जोश का संचार करने में कामयाब रहे.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/H. Al-Assadee
लंबा सफर
अबादी के नेतृत्व में इराकी सुरक्षा बलों ने इराक में आईएस के कब्जे वाले 90 फीसदी हिस्से को मुक्त करा लिया है. यह आईएस की "खिलाफत" के लिए बहुत बड़ा झटका है. इसी कामयाबी ने अबादी को आम लोगों के बीच लोकप्रियता दिलायी है. लेकिन इराक को स्थिर करने के राह में अभी उन्हें लंबा रास्ता तय करना होगा.