विदेशी नागरिकों को नागरिकता देने के मुद्दे पर पूर्वोत्तर राज्य असम की राजनीति में उबाल आ गया है. केंद्र सरकार ने जुलाई में नागरिकता अधिनियम, 1955 के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए विधेयक पेश किया था.
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मूल रूप से असम में आने वाले हिंदू बंगालियों को नागरिकता देने के मकसद तैयार नागरिकता (संशोधन) विधेयक सत्तारुढ़ भाजपा के लिए गले की हड्डी बनता जा रहा है. राज्य के ताकतवर छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (आसू) समेत कोई तीन दर्जन संगठन इसका विरोध कर रहे हैं. कोई 15 साल तक यहां सत्ता में रही कांग्रेस असम समझौते को लागू करने की मांग कर रही है. इसके तहत वर्ष 1971 से पहले असम आने वालों को ही नागरिकता देने का प्रावधान है. ताजा विधेयक में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले हिंदुओं को भी नागरिकता देने का प्रावधान है. लेकिन इसका जबरदस्त विरोध शुरू हो गया है. असम की राजनीति पहले से ही बांग्लादेशी घुसपैठ के इर्द-गिर्द घूमती रही हैं. इसी मुद्दे पर अस्सी के दशक में असम आंदोलन भी हो चुका है.
जुलाई में नागरिकता अधिनियम, 1955 के कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिए पेश विधेयक फिलहाल संसद की स्थायी समिति के पास विचारधीन है. प्रस्तावित संशोधन के मुताबिक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से बिना किसी वैध कागजात के भाग कर आने वाले गैर-मुसलमान आप्रवासियों को भारत की नागरिकता दे दी जाएगी. इसके दायरे में ऐसे लोग भी शामिल होंगे जिनका पासपोर्ट या वीजा खत्म हो गया है. प्रस्तावित संशोधन के बाद अब उनको अवैध नागरिक या घुसपैठिया नहीं माना जाएगा.
शरणार्थियों को रोकने के लिए सीमा पर बाड़तस्वीर: S. Rahman/Getty Images
असम में विरोध
राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के अलावा ताकतवर छात्र संगठन अखिल असम छात्र संघ (आसू) और असम में सोनोवाल की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार की सहयोगी रही असम गण परिषद (अगप) के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत नागरिकता अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन के खिलाफ मुखर हैं. राज्य के साहित्यिक संगठनों और बुद्धिजीवियों ने भी इसके खिलाफ आवाज उठाते हुए अंदेशा जताया है कि इससे असम के स्थानीय लोगों पर पहचान का संकट पैदा हो जाएगा.
आसू के मुख्य सलाहकार समुज्जवल भट्टाचार्य कहते हैं, "इस विधेयक के पारित होने के बाद असम में बांग्लादेशी शरणार्थियों की बाढ़ आ जाएगी. यह राज्य पहले से ही शरणार्थियों के बोझ से कराह रहा है." आसू समेत 37 संगठनों ने प्रस्तावित विधेयक को असम समझौते की भावना और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ करार दिया है. भट्टाचार्य कहते हैं, "25 मार्च, 1971 के बाद बांग्लादेश से आने वाले किसी भी व्यक्ति को असम स्वीकार नहीं करेगा. वह चाहे हिंदू हो या मुसलमान." उनका आरोप है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य के लोगों की पहचान की रक्षा के लिए नेशनल सिटीजंस रजिस्टर (एनआरसी) को अपडेट करने का काम चल रहा है. इसी दौरान धार्मिक आधार पर नागरिकता अधिनियम में संशोधन के लिए नया विधेयक तैयार करने से बीजेपी की मंशा साफ होती है. इस विधेयक के पारित होने की स्थिति में दूसरे देशों से आने वाले तमाम हिंदुओं को नागरिकता मिल जाएगी और उनका नाम भी एनआरसी में शामिल करना होगा. इससे राज्य में जातीय संतुलन गड़बड़ा जाएगा.
जर्मनी में शरणार्थियों की मदद
जर्मनी आने वाले शरणार्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है. देश भर में उनकी अलग अलग तरह से मदद की जा रही है. लोगों में शरणार्थियों की मदद करने की तैयारी इस समय जैसी पहले कभी नहीं थी.
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किताबें
जड़ों से उखड़े शरणार्थियों की जिंदगी पटरी पर लाने की जरूरत है. आर्किटेक्ट गुंटर राइषर्ट शरणार्थी बच्चों को लिखने का अभ्यास करा रहे हैं. न्यूरेमबर्ग में उन्होंने शरणार्थियों के लिए देश का पहला पुस्तकालय खोला है. वे यहां बिना फीस दिए जर्मन सीख सकते हैं और किताबें ले सकते हैं. राइषर्ट इस साल के अंत तक देश भर में 50 लाइब्रेरी बनाना चाहते हैं.
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दुभाषिया
शरणार्थी जर्मन नहीं जानते. उन्हें मदद के लिए दुभाषिए की जरूरत है. आर्ट स्टूडेंट नतालिया छुट्टी के सामय बर्लिन के रिफ्यूजी रजिस्ट्रेशन सेंटर में दुभाषिए का काम करती हैं. वहां उसके अलावा करीब 100 दुभाषिए काम करते हैं. पहले भी वह परामर्श केंद्रों पर अरबी और रूसी भाषा के दुभाषिए का काम कर चुकी हैं. वह लोगों के साथ जॉब सेंटर जाती है, डॉक्टर से बात करने में मदद देती हैं और घर देखने में भी साथ जाती हैं.
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वेलकम ग्रुप
हिल्डेगार्ड नीस-नाख्त्सहाइम ब्रांडेनबुर्ग प्रांत के एक छोटे शहर में रिफ्यूजी होम के सामने रहती हैं. जब यहां 2013 की गर्मियों में पहले 180 शरणार्थी आए तो उन्होंने अपने पति हॉर्स्ट के साथ एक वेलकम ग्रुप बनाया. वे जहां भी हो सके अलग अलग देशों से आए लोगों की मदद करते हैं. दफ्तर का काम हो, डॉक्टर के पास जाना हो या कोई और जरूरत, वे साथ जाते हैं. शरणार्थियों को कॉफी-केक के लिए भी आमंत्रित किया जाता है.
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इंटरनेट की सुविधा
जर्मनी आने वाले शरणार्थियों की एक चिंता घर के लोगों के साथ संपर्क में बने रहने की भी है. स्वेन बोरषर्ट और उनके साथियों ने फ्रायफुंक पहलकदमी की है. वे डॉर्टमुंड में शरणार्थियों के रहने की जगह में मुफ्त में इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध कराते हैं. वे रिफ्यूजी होम में वाईफाई रूटर लगाते है. इसका खर्च चंदे से उठाया जाता है. इस बीच डॉर्टमुंड के 400 शरणार्थी बिना कोई खर्च किए इंटरनेट का इस्तेमाल कर सकते हैं.
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रोजमर्रा की मदद
कारोला लांगे सेक्सनी प्रदेश के एक छोटे शहर में शरणार्थियों की मदद करने वाले ग्रुप में है. वे और उनकी करीब 40 साथी शरणार्थियों की मदद करती हैं. उनकी पहल का मकसद है कि शरणार्थी फुर्सत का समय उचित तरीके से बिताएं. वे कहती हैं, "लोगों के पास कुछ करने को नहीं है. यह उनकी सबसे बड़ी समस्या है. वे बस इंतजार करते रहते हैं." वे बताती हैं कि शरणार्थी कितने चाव से जर्मन सीखते हैं और फिर काम करना चाहते हैं.
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हॉटलाइन
बर्लिन की राहत संस्था गुटे टाट डॉट डीई काफी समय से राजधानी में शरणार्थियों की मदद कर रही है. अब उसने शरणार्थियों की मदद करने वाले अवैतनिक कर्मियों के समन्वय का काम हाथ में लिया है. यह संस्था अब एक टेलिफोन हॉटलाइन चला रही है. जो लोग शरणार्थियों की मदद करना चाहते हैं वे इस हॉटलाइन पर इसके बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं.
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नेटवर्क
जर्मनी में शरण चाहने वालों में पढ़े लिखे प्रोफेशनल लोग भी होते हैं. उनकी मदद के लिए फ्रैंकफर्ट में छात्रों ने एक संस्था बनाई है ताकि वे जल्द से जल्द यूनिवर्सिटी से जुड़ सकें और बाद में नौकरी भी पा सकें. नेटवर्क एकैडमिक एक्सपीरिएंस वर्ल्डवाइड (एईडब्ल्यू) जर्मन सीखने में भी मदद करता है. टिम श्वार्त्स और सीरिया के एक शरणार्थी की तरह लोग साथ मिलकर सीखते हैं.
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रूअर पर पहल
राइनहार्ड येलेस मुइलहाइम अन डेय रूअर में एक छोटी कंपनी चलाते हैं. एक साल पहले उन्होंने एक इराकी शरणार्थी परिवार की मदद के लिए फेसबुक पर आह्वान किया था. फेसबुक पर की गई अपील इस बीच शरणार्थी पहलकदमी मुइलहाइम में स्वागत बन गई है. उसका अपना गोदाम है. नाबेलिया वहां चंदे में मिले सामान को छांट रही हैं. जो सही हालत में है उसे शरणार्थियों को दे दिया जाता है.
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खेल से चंदा
निकोल सानाकिस और कोर्नेलिउस काउप 10 अगस्त को लॉन्गबोर्ड लेकर टूर पर निकले. उन्होंने पांच दिनों में डुसेलडॉर्फ से हैम्बर्ग की बीच 444 किलोमीटर की दूरी तय की. इस दौरान उन्होंने लोगों से शरणार्थियों को मदद देने की अपील की. नतीजा 7000 यूरो के चंदे के रूप में सामने आया. यह धन उन्होंने शरणार्थी सहायता संगठन स्टे को दे दिया.
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प्रसिद्ध लोग
जर्मनी के प्रमुख अभिनेता टिल श्वाइगर जैसे प्रमुख लोग शरणार्थियों की मदद के लिए काफी कुछ कर रहे हैं. श्वाइगर शरणार्थियों के लिए एक घर बना रहे हैं. उनकी साथी अभिनेत्री सैरा कॉच लोगों की स्थिति का जायजा लेने के लिए खुद बर्लिन में रिफ्यूजी रजिस्ट्रेशन सेंटर गईं. वोलंटियर के तौर पर उन्होंने शरणार्थियों को खाना और पीने का सामान बांटा.
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शरणार्थियों का साथ
ब्रांडेनबुर्ग के जर्मन सांसद मार्टिन पात्सेल्ट ने जुलाई से एरिट्रिया के दो शरणार्थियों को अपने घर में ठहरने की जगह दी है. वे उनका ख्याल भी रख रहे हैं. पात्सेल्ट की पत्नी दोनों को जर्मन सिखाती हैं. पात्सेल्ट परिवार का कहना है कि दोनों नए मेहमान खूब खिलखिलाकर हंसते हैं. उनके साथ घर में खुशियों का माहौल आया है.
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सैनिक छावनी
उत्तरी फ्रीसलैंड के सीथ गांव में जुलाई में एक पुरानी छावनी को शरणार्थियों का रजिस्ट्रेशन सेंटर बना दिया गया. वहां करीब 600 लोगों को ठहराया जा रहा है. दर्जनों लोगों ने छावनी को रहने लायक बनाने में मदद की ताकि यहां बच्चों वाले परिवार भी रह सकें. ब्रिगेटे वाटका चंदे में मिले नैपी को छांटकर रख रही हैं.
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विधेयक पर विवाद
इन संगठनों की दलील है कि शरणार्थियों की भीड़ से राज्य के स्थानीय लोगों का अस्तित्व पहले से ही खतरे में हैं. इस विधेयक के पारित होने के बाद तो यहां शरणार्थियों की बाढ़ आ जाएगी. पूर्व मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत का कहना है कि राज्य में अब और शरणार्थियों को रखने की क्षमता नहीं है. प्रदेश कांग्रेस का आरोप है कि केंद्र और राज्य की बीजेपी सरकारों ने नेशनल सिटीजंस रजिस्टर (एनआरसी) को बेमानी बना दिया है. प्रफुल्ल महंत कहते हैं, "लोकसभा चुनावों से पहले बीजेपी ने सत्ता में आने की स्थिति में राज्य से अवैध बांग्लादेशी नागरिकों को खदेड़ने का वादा किया था. लेकिन विडंबना यह है कि अब वही पार्टी गैर-मुसलमान आप्रवासियों को नागरिकता देने की वकालत कर रही है." वह कहते हैं कि यह ऐतिहासिक असम समझौते के प्रावधानों का खुला उल्लंघन है. ध्यान रहे कि छात्र नेता के तौर पर महंत ने भी उक्त समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. उसके बाद ही असम में वर्ष 1985 में उनकी अगुवाई में असम गण परिषद की सरकार सत्ता में आई थी.
लेकिन वित्त मंत्री हिमंत विश्वशर्मा का सवाल है कि आखिर अत्याचार के शिकार हिंदू कहां जाएंगे? उनके पास तो मुसलमानों और ईसाइयों की तरह पाकिस्तान या अमेरिका जाने का भी विकल्प नहीं है. उनकी दलील है कि अगर पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और पंजाब को उक्त प्रावधानों पर कोई आपत्ति नहीं है तो असम पर शरणार्थियों का बोझ पड़ने की बात कह कर विवाद क्यों फैलाया जा रहा है? राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि बांग्लादेश से लगी सीमा सील कर सीमा पार से होने वाली घुसपैठ पूरी तरह रोकने के वादे के साथ सत्ता में आई भाजपा के लिए उक्त विधेयक खतरे की घंटी बन सकता है. लेकिन भाजपा के रणनीतिकार ऐसा नहीं मानते. उनकी दलील है कि विधेयक में कहीं भी इसका जिक्र नहीं है कि तमाम हिंदू शरणार्थियों को असम में ही बसाना होगा. आने वाले दिनों में यह एक प्रमुख मुद्दे के तौर पर उभर सकता है.