अब जापान से क्यों उलझ रहा है चीन?
८ अगस्त २०२०जापान की यह चिंताएं ज्यादातर सेनकाकू द्वीपसमूह और उसके आसपास के क्षेत्र पर उसकी संप्रभुता को लेकर रहीं हैं. हाल के कुछ वर्षों में चीन की पूर्वी चीन सागर में बढ़ी गतिविधियों को लेकर जापान परेशान और सशंकित रहा है.
रिपोर्टों के मुताबिक कुछ दिनों पहले ही चीन ने जापान को धमकी दी वह सेनकाकू के इर्द-गिर्द मछली पकड़ने वाली अपनी दर्जनों नौकाएं भेजेगा और परोक्ष रूप से चुनौती दे दी कि अगर जापान में दम है तो उन्हें पकड़ ले. आशंका व्यक्त की जा रही है कि आने वाले कुछ हफ्तों में चीन वाकई में ऐसा कदम उठा सकता है. चीन पिछले कई महीनों ने सेनकाकू क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बनाए हुए है.
सेनकाकू द्वीपसमूह पर जापान का संप्रभु नियंत्रण है लेकिन चीन और ताइवान भी इस पर अपना दावा रखते हैं. चीन सेनकाकू द्वीपसमूह को द्याओयू और ताइवान इसे त्याओयुताई द्वीपसमूह की संज्ञा देता है. पांच द्वीपों और तीन बड़े चट्टानी स्थानों (रॉक्स) वाले निर्जन सेनकाकू द्वीपसमूहों पर जापान का ही नियंत्रण रहा है.
जापानी भाषा में ‘सेनकाकू' का मतलब है - जागरूकता/ज्ञानी पुरुष. इस नाम की कहानी हमें 1884 में ले जाती है, जब एक जापानी फुकुओका व्यापारी कोगा तात्सुशिरो ने इस द्वीपसमूह को खोजा और सरकार से इसे पट्टे पर लेने की आज्ञा मांगी. कोगा साहब की जागरूकता ने जापान को एक नया द्वीपसमूह दिलाया, तो उनके ज्ञानी पुरुष होने और इस जागरूकता पर ही द्वीपसमूह का नाम पड़ना स्वाभाविक था.
किसका दावा सही
बहरहाल, 1895 में जापान की तत्कालीन सरकार ने इसे अपने नियंत्रण में ले लिया और यह जापान का हिस्सा बन गया. यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि जापान ने हमेशा से ही ईमानदारी से इस बात को रखा कि इस निर्जन द्वीपसमूह पर किसी का अधिकार नहीं था (जिसे अंतरराष्ट्रीय कानून की भाषा में हम ‘टेरा नलिस' के नाम से जानते हैं) और उसने अपने एक नागरिक के जरिए इस पर संप्रभु अधिकार पाया.
चीनी भाषा में द्याओयू का मतलब है मछली पकड़ने का क्षेत्र. चीन का कहना है कि द्याओयू का वर्णन चीन के 15वीं शताब्दी के स्रोतों में है लेकिन विश्वसनीय ढंग से चीन इसका प्रमाण नहीं दे पाया है. अगर सिर्फ नाम की उत्पत्ति को ही देख लें तो स्पष्ट है कि संभवतः चीनी मछुआरे इस क्षेत्र में मछलियां पकड़ने जाते रहे होंगे. लेकिन ‘वो साल दूसरा था, ये साल दूसरा है'.
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आधुनिक विश्व व्यवस्था राष्ट्र राज्यों और उनकी अखंड संप्रभुता और उससे जुड़े प्रमाणों पर खड़ी है. 1970 के दशक तक चीन ने जापान की सेनकाकू पर संप्रभुत पर सवाल भी नहीं उठाया था. लेकिन चीन की सेनकाकू में दिलचस्पी तब से बढ़ी जब इस क्षेत्र में तेल होने की सम्भावना व्यक्त की गई. चीन के लिए यह द्वीपसमूह और उसके आसपास का क्षेत्र इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह शिपिंग लेन के रास्ते में पड़ता है, और मछलियों के मामले में तो यह सबसे उर्वर स्थानों में है ही.
कोरोना का फायदा
जापान सरकार ने अपने हाल ही में सार्वजनिक किए रक्षा श्वेतपत्र में कहा है कि पूर्वी चीन सागर में चीन लगातार अपनी नौकाएं और जहाज भेजकर न सिर्फ जापान की संप्रभुता को चोट पहुंचा रहा है बल्कि इससे वह अपनी सत्ता स्थापित करने की अनाधिकार चेष्टा भी कर रहा है.
रक्षा श्वेतपत्र में जापान सरकार ने कहा कि कोविड-19 महामारी के दौरान चीन की आक्रामकता तेजी से बढ़ी है. जापान ने चीन पर यह भी आरोप लगाया है कि कोविड-19 महामारी के दौरान चीन ने ना सिर्फ जापान की सीमा में अतिक्रमण किया है बल्कि प्रॉपगैंडा और दुष्प्रचार के माध्यम से दूसरे देशों को दिग्भ्रमित भी किया है.
चीन के ऊपर कमोबेश यही आरोप अन्य देशों ने भी लगाए हैं. देखा जाए तो भारत के साथ भी चीन ने यही किया है. लद्दाख क्षेत्र में अतिक्रमण भी चीन की सेना ने कोविड-19 के दौरान भी किया. खास तौर पर तब, जब भारत में कोविड-19 महामारी ने जोर पकड़ना शुरू किया.
चीन की इस अप्रत्याशित आक्रामकता ने जापान, वियतनाम, इंडोनेशिया, और भारत जैसे देशों की मुश्किलें बढा दी हैं. चीन की आक्रामक और अत्याधुनिक हथियारों से लैस सेना के आगे जापान की सेना कमजोर दिखती है. ऐसे में जापान की सेना के लिए अमेरिकी सेना फिर एक बार आशा की किरण बन कर उभरी है.
अमेरिका का वादा
इसी हफ्ते जापान में अमेरिकी सेना के प्रमुख कमांडर लेफ़्टिनेंट जनरल केविन स्नाइडर ने पूर्वी चीन सागर में चीन की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखने और किसी भी अप्रिय हिंसक स्थिति में जापान की सैन्य मदद करने का वादा किया है. अमेरिका और जापान 1960 (पहला मसौदा 1951 में मंजूर हुआ था) में हुई एक सैन्य संधि के माध्यम से जुड़े हैं जिसके तहत जापान पर हुए किसी भी हमले की स्थिति में अमेरिका उसकी तत्काल सैन्य सहायता करेगा. हालांकि लेफ्टिनेंट जनरल स्नाइडर यह कहने में नहीं चूके कि अमेरिकी सरकार की इस विवाद पर कोई आधिकारिक नीति नहीं है लेकिन वह जापान की संप्रभुता और अखंडता पर हमले की स्थिति में जापान का साथ देगा.
जापान की सैन्य जरूरतों के मद्देनजर अमेरिका की सेना ने जापान में लंबे समय से अपनी उपस्थिति बना रखी है. इनमें से एक महत्वपूर्ण बेस है ओकिनावा हवाई बेस. यह महज इत्तेफाक ही है कि ओकिनावा भी पूर्वी चीन सागर में है. जापान की एयर सेल्फ डिफेंस फोर्स (जेएएसडीएफ) पूर्वी चीन सागर में चीनी हवाई अतिक्रमण को रोकने में लगातार कार्यरत है लेकिन चीन के मुकाबले उसके पास क्षमता और सैन्यबल दोनों ही कम है. चीन इसी का फायदा उठा कर लगातार जापान के हवाई क्षेत्र में अतिक्रमण करता रहता है.
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अपना दबदबा बनाने के लिए चीन ने 23 नवंबर 2013 को पूर्वी चीन सागर में एयर डिफेंस इडेंटिफिकेशन जोन (एडीआईजेड) की घोषणा की. सेनकाकू द्वीपसमूह और उसके आसपास के क्षेत्र भी इसके अंतर्गत आते हैं. एडीआईजेड की घोषणा का सीधा मतलब यह था कि दूसरे देशों के हवाई जहाजों को अब पूर्वी चीन सागर के हवाई क्षेत्र में घुसने से पहले चीनी एजेंसियों को अपना फ्लाइट प्लान और रेडियो फ्रीक्वेंसी बतानी होगी. चीन एडीआईजेड का पालन करवा कर इस क्षेत्र में अपना कब्जा कायम करना चाहता है.
भारत हो या पूर्वी चीन सागर या कि दक्षिण चीन सागर, हर विवादित क्षेत्र में चीन की कमोबेश एक जैसी रणनीति रही है. लगातार और बारंबार छोटे छोटे अतिक्रमण करना, प्रतिरोध होने पर वापस अपने क्षेत्र में वापस चले जाना लेकिन मौका पाते ही फिर से अतिक्रमण करने की कार्रवाई करना. इस प्रक्रिया से चीन ने अपने विरोधियों पर एक सामरिक और मानसिक दबाव भी बना रखा है.
चीन की बढ़ती सैन्य ताकत की वजह से इन क्षेत्रों में चीन के मुकाबले दूसरे देशों की सैन्य क्षमताएं भी फीकी पड़ रही हैं. यही वजह है कि आज इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अमेरिका की मजबूत उपस्थिति और पकड़ की जरूरत जापान जैसे कई देशों ने पहले से ज्यादा महसूस की है.
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