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अब थक चली है मोदी लहर

मारिया जॉन सांचेज
३१ मई २०१८

लोकसभा उपचुनाव के नतीजों के आधार पर यकीन के साथ कहा जा सकता है कि अब मोदी लहर थकती नजर आ रही है. विधानसभा की 10 सीटों पर हुए उपचुनाव में उसके हिस्से में केवल एक ही सीट आई है.

Indien Wahlen 2014 BJP Narendra Modi Rangoli
तस्वीर: Reuters

2014 से लेकर 2017 के अंत तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के विज्ञापनों पर 3,755 करोड़ रुपये खर्च किए गए. यह सभी जानते हैं कि मोदी सरकार का हर काम सिर्फ नरेंद्र मोदी के नाम पर होता है और उन्हीं को उसका श्रेय दिया जाता है. स्वाधीन भारत के इतिहास में शायद ही किसी प्रधानमंत्री की ऐसी एकल छवि बनाई गई जिसके तहत हर जगह केवल प्रधानमंत्री का ही चित्र, केवल उनके ही उद्धरण और केवल उनका ही वर्चस्व नजर आए. 

एक समय था जब हिन्दी फिल्म जगत में माना जाता था कि पहले नंबर पर अमिताभ बच्चन हैं और अगला नंबर दस से शुरू होता है, यानी एक और दस के बीच कोई नहीं है. पिछले चार सालों के दौरान ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनती गई है जिसमें केवल वित्तमंत्री अरुण जेटली के अलावा और किसी भी केंद्रीय मंत्री की कोई हैसियत नजर नहीं आती.

नरेंद्र मोदी से पहले शायद ही किसी प्रधानमंत्री ने राज्य विधानसभा के चुनावों और लोकसभा एवं विधानसभा के उपचुनावों में इतना अधिक प्रचार किया हो. इसे देखते हुए यह स्वाभाविक है कि जब जीत का सेहरा उनके सर पर बंधेगा, तो हार की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होगी. इसी तरह पूरी केंद्र सरकार के कामकाज के लिए एकमात्र उन्हें ही जवाबदेह माना जाएगा. 

2014 के लोकसभा चुनाव के समय नरेंद्र मोदी ने इतने लंबे-चौड़े वादे कर डाले कि उनमें से एक भी पूरा होता नजर नहीं आ रहा है. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और हिन्दू-मुस्लिम कार्ड खेलकर, कहीं औरगंजेब तो कहीं टीपू सुलतान, कहीं अलाउद्दीन खिलजी तो कहीं मुहम्मद अली जिन्ना के मुद्दे उछाल कर चुनाव जीतने की रणनीति भी इसीलिए भोथरी होती जा रही है क्योंकि अंततः रोटी, कपडा और मकान की समस्या ही लोगों की मूल समस्या है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना लोकसभा उपचुनाव और नूरपुर विधानसभा उपचुनाव ने यह सिद्ध कर दिया है कि हिन्दू-मुस्लिम कार्ड आर्थिक सवालों के सामने अंततः नाकाम होता है. यहां गन्ना बनाम जिन्ना का मुद्दा बनाया गया जिसमें गन्ना जिन्ना पर हावी पाया गया. यहां के किसानों ने चीनी मिलों को पिछले वर्षों में जो गन्ना दिया है, मिलों ने उसका भुगतान नहीं किया है. अब यह राशि लगभग साढ़े 13,500 करोड़ रुपये तक पहुंच गई है और इस क्षेत्र में किसान आत्महत्या करने लगे हैं. ऐसे में 2013 के दंगों और फिर कैराना में मुस्लिम गुंडागर्दी के कारण हिन्दुओं के पलायन की झूठी खबरों के सहारे जाट किसानों के परंपरागत सौहार्द्र को तोड़कर ही भारतीय जनता पार्टी जीत पाई थी. अब वह सौहार्द्र काफी कुछ लौट आया है.

इसके अलावा कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के बाद जैसी अभूतपूर्व और पुख्ता एकता गैर-बीजेपी दलों ने दिखाई थी, उससे भी अधिक पुख्ता एकता उन्होंने कैराना और नूरपुर में दिखाई जिसके कारण बीजेपी के उम्मीदवारों को सहानुभूति का वोट भी नहीं मिल सका जबकि कैराना में उसकी प्रत्याशी मृगांका सिंह पिछले चुनाव में जीतने वाले हुकुम सिंह की बेटी और नूरपुर में प्रत्याशी अवनि सिंह पिछले चुनाव में जीतने वाले लोकेंद्र सिंह की पत्नी थीं. हुकुम सिंह और लोकेंद्र सिंह के देहांत के कारण उपचुनाव हुआ था.

मतदान के एक दिन पहले राष्ट्रीय राजमार्ग के एक छोटे-से टुकड़े के उद्घाटन के बहाने प्रधानमंत्री ने कैराना से सटे बागपत में रोड शो किया और अपने भाषण में गन्ना तथा अन्य मुद्दों की भी चर्चा की जबकि उनकी चर्चा का सड़क के उद्घाटन से कोई संबंध नहीं था. इसके बाबजूद बीजेपी की हार हुई.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इन नतीजों का असर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में पूरे राज्य पर पड़ेगा, जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गढ़ गोरखपुर में भी बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा है. केरल हो या झारखंड, बिहार हो या पंजाब, कहीं से भी बीजेपी के लिए अच्छी खबर नहीं है. उसे चार में से सिर्फ एक लोकसभा सीट पर सफलता मिली है. विधानसभा की 10 सीटों पर हुए उपचुनाव में उसके हिस्से में केवल एक ही सीट आई है.

दरअसल जिस तरह मुजफ्फरनगर के दंगों को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाया गया, उसी तरह कैराना और नूरपुर के चुनाव को विपक्षी एकता की प्रयोगशाला समझा गया. यह प्रयोग सफल रहा इसलिए देशव्यापी विपक्षी एकता की राह खुल गई है. मोदी लहर कमजोर होती दिख रही है. इसलिए इस प्रयोग को 2019 के लोकसभा चुनाव में तो दुहराया जाएगा ही, उसके पहले होने वाले मध्यप्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भी इस पर अमल किया जाएगा. यह देश की राजनीति में एक नई शुरुआत होगी.

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