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अब नागालैंड भी बनाएगा मूल निवासियों का रजिस्टर

प्रभाकर मणि तिवारी
२ जुलाई २०१९

असम में एनआरसी की कवायद पर विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है. इस बीच, पड़ोसी नागालैंड ने भी एनआरसी का अपना स्थानीय संस्करण शुरू करने का फैसला किया है.

Pressebilder "Lost musicians of India"
तस्वीर: Souvid Datta

इसी 10 जुलाई से नागालैंड में शुरू होने वाली इस कवायद का मकसद स्थानीय और बाहरी लोगों की शिनाख्त करना है. राज्य में अक्सर बाहरी लोगों पर स्थानीय निवासी का प्रमाणपत्र हासिल करने के आरोप लगते रहे हैं. राज्य सरकार ने इस पूरी कवायद के लिए 60 दिनों की समयसीमा तय की है.

रजिस्टर आफ इंडीजीनस इनहैबिटेंट्स आफ नागालैंड (आरआईआईएन) नामक यह अभियान पूरी तरह एनआरसी के तौर पर ही काम करेगा. बाद में लोग अपने दावे और आपत्तियां भी दाखिल कर सकेंगे. हर पांच साल बाद इस रजिस्टर का आंकड़ा अपडेट किया जाएगा. लेकिन सामाजिक कार्यकर्ताओं ने नागालैंड को असम के एनआरसी विवाद से सबक लेते हुए इस मामले में फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने को कहा है.

बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ से पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्य कमोबेश प्रभावित रहे हैं. इसके अलावा दूसरे राज्यों से इलाके में आकर बसने वालों की लगातार बढ़ती तादाद की वजह से कई इलाकों में मूल निवासी ही अल्पसंख्यक बनते जा रहे हैं.

बीते दिनों अरुणाचल प्रदेश में भी स्थायी आवास प्रमाणपत्र यानी पीआरसी के मुद्दे पर बड़े पैमाने पर हिंसा और आगजनी हुई थी. ईसाई-बहुल नागालैंड दशकों से उग्रवाद से प्रभावित रहा है. वैसे, स्थानीय कानूनों के मुताबिक बाहरी लोग इस राज्य में न तो जमीन खरीद सकते हैं और न ही कारोबार कर सकते हैं. लेकिन इन लोगों ने इन नियमों को भी ठेंगा दिखा दिया है. ऐसे लोग कहीं स्थानीय महिलाओं से विवाह कर उनके नाम पर कारोबार कर रहे हैं तो कहीं सरकारी अधिकारियों के साथ मिलीभगत के चलते मूल निवासी का प्रमाणपत्र हासिल कर काम कर रहे हैं.

राज्य में समय-समय पर बाहरी बनाम स्थानीय विवाद भी सिर उभारता रहा है. यह इलाके का अकेला ऐसा राज्य है जहां दूसरे राज्यों से आकर रहने व काम करने वालों को हिंदुस्तानी कहा जाता है. इससे साफ है कि आजादी के बाद देश में विलय के बावजूद राज्य के लोग खुद को भारत का निवासी नहीं मानते.

क्या है यह प्रक्रिया

नागालैंड में शुरू होने जा रहे अभियान को नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) का स्थानीय संस्करण कहा जा रहा है. रजिस्टर आफ इंडीजीनस इनहैबिटेंट्स ऑफ नागालैंड (आरआईआईएन) पर नागालैंड के गृह आयुक्त आर रामकृष्णनन बताते हैं, "इस कवायद का मकसद बाहरी लोगों को मूल निवासी का प्रमाणपत्र हासिल करने से रोकना है.” राज्य में पहले से ही आरोप लगते रहे हैं कि बाहर से यहां आकर बसने वाले लोग भी स्थानीय निवासी का प्रमाणपत्र हासिल कर रहे हैं.

गृह आयुक्त का कहना है कि इसके लिए कई टीमों का गठन किया जाएगा जो गांव-गांव जाकर आंकड़े जुटाएगी. इनमें संबंधित व्यक्ति के वोटरकार्ड, पैन कार्ड और आधार कार्ड से संबंधित आंकड़े भी शामिल होंगे. 11 सितंबर को इस सूची के मसविदे का प्रकाशन किया जाएगा. उसके बाद 10 अक्तूबर तक दावों व आपत्तियों की प्रक्रिया चलेगी. 10 दिसंबर को अंतिम सूची प्रकाशित कर दी जाएगी. गृह आयुक्त ने बताया, "इसके पूरा होने के बाद सिर्फ राज्य के मूल निवासियों को होने वाले बच्चों को ही जन्म प्रमाणपत्र के साथ मूल निवासी का प्रमाणपत्र जारी किया जाएगा. रजिस्टर तैयार होने के बाद पहले के तमाम प्रमाणपत्रों को रद्द कर सभी मूल निवासियों को बार कोड वाले नए प्रमाणपत्र जारी किए जाएंगे जिनमें संबंधित व्यक्ति का पूरा ब्यौरा दर्ज होगा. हर पांच साल पर इस डाटा को नई तस्वीरों और आंकड़ों के साथ अपडेट करने का भी प्रावधान है.”

आशंकाएं

लेकिन सरकार के इस एलान के बाद बाहरी लोगों में आशंकाएं बढ़ गई हैं. इसकी दो वजहें हैं. पड़ोसी असम में जारी एनआरसी की कवायद के तहत 41 लाख लोगों के नाम सूची से बाहर होने की वजह से राज्य में भारी विवाद चल रहा है. नागालैंड सरकार की पहल में साफ नहीं है कि जिन लोगों के पास फर्जी प्रमाणपत्र होंगे या जो लोग बाहरी पाए जाएंगे, उनका क्या होगा.

असम में वर्ष 1951 में पहली बार एनआरसी तैयार किया गया था. उस समय नागालैंड भी असम का ही हिस्सा था. वह वर्ष 1962 में अलग राज्य बना. उसके बाद वहां भी बांग्लादेश से अवैध आप्रवासियों का आना शुरू हो गया था. असम में एनआरसी के मसविदे से 40 लाख लोगों के नाम बाहर होने के बाद से ही नागालैंड सरकार ने ऐसे लोगों के राज्य में घुसने का अंदेशा जताया था. उन चिंताओं की वजह से ही अब उसने अपना अलग रजिस्टर बनाने की योजना बनाई है. लेकिन सामाजिक संगठनों का कहना है कि नागालैंड की जमीनी परिस्थिति असम से अलग है.

अलग राज्य बनने के बाद से ही उग्रवाद से जूझ रहे इस राज्य में शांति प्रक्रिया शुरु हुए भी दो दशक बीते चुके हैं. सामाजिक कार्यकर्ता डी.के. रियो कहते हैं, "असम के मामले से साफ है कि राज्य में भी यह कवायद कई नए विवादों को जन्म देगी. अब जब दो दशकों के बाद राज्य में शांति बहाली की प्रक्रिया अंतिम चरणों में है, इस नई कवायद से अशांति ही फैलेगी.” वैसे, भी नागालैंड वर्षों से अशांत क्षेत्र रहा है. केंद्र सरकार ने इसी सप्ताह राज्य को और छह महीने के लिए अशांत क्षेत्र घोषित किया है. राज्य के सबसे बड़े व्यापारिक शहर दीमापुर में एक व्यापारी अपना नाम नहीं छापने पर शर्त पर कहते हैं, "यहां हम पहले से ही उग्रवादी टैक्स समेत कई समस्याओं से जूझ रहे थे. अब यह कवायद एक नए विवाद को जन्म देगी.”

लेकिन 'द ज्वायंट कमेटी ऑन प्रीवेंशन ऑफ ईलीगल इमीग्रेंट्स' (जेसीपीआई) के संयोजक के गोफेतो चाफी कहते हैं, "नागा लोग अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं. ऐसे में यह कवायद जरूरी है. हम लंबे अरसे से इसकी मांग करते रहे हैं.” वह कहते हैं कि मूल निवासियों वाले रजिस्टर में लोगों के नाम शामिल करने की कटऑफ तारीख एक दिसंबर, 1963 होनी चाहिए.

राजनीतिक पर्यवेक्षक इस पूरे ऑपरेशन को खतरे की घंटी मानते हैं. पूर्वोत्तर की राजनीति पर गहरी पकड़ रखने वाले हेमचंद्र डेका कहते हैं, "सरकार का यह फैसला आश्चर्यजनक है. असम के एनआरसी की तरह इस प्रक्रिया पर भी विवाद तय है. सरकार को एनआरसी की गड़बड़ियों से सबक लेकर ही आगे बढ़ना चाहिए ताकि राज्य में नए सिरे से अशांति नहीं पैदा हो.”

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