अब भी भाग रहे हैं मिल्खा
४ जुलाई २०१३रोम ओलंपिक में भले ही मिल्खा सिंह को पदक न मिला हो लेकिन उस दौड़ की चर्चा आज भी होती है. मिल्खा ने फिनिश लाइन पार करने से पहले ही मुड़ कर दूसरे प्रतियोगियों को देखा और इस चक्कर में पदक छूट गया. खुद मिल्खा सिंह उसे "रोम में गिरा पदक" बताते हैं. खुद पर बन रही फिल्म और अपने खेल जीवन पर मिल्खा ने डॉयचे वेले संवाददाता नॉरिस प्रीतम के साथ खुल कर बात की.
डॉयचे वेलेः आपने भाग मिल्खा भाग देखी है. कैसी लगी.
मिल्खा सिंहः इस फिल्म ने एक बार फिर मुझे मेरा पूरा जीवन याद दिला दिया. कैसे में विभाजन के बाद पाकिस्तानी हिस्से से भाग कर भारत पहुंचा और किस तरह गुरबत के दिन काटे. उसके बाद कैसे मैं सेना में शामिल हुआ और किस तरह मेरा एथलेटिक्स का जीवन शुरू हुआ. इसके बाद कार्डिफ का राष्ट्रमंडल खेल और रोम ओलंपिक. फरहान अख्तर ने मेरा कैरेक्टर निभाने के लिए बहुत मेहनत की है और इससे बड़ी तारीफ क्या हो सकती है कि मेरी पत्नी को फरहान की वजह से मेरी जवानी याद आ गई.
डॉयचे वेलेः अगर इस फिल्म से हट कर बात करें, तो बाकी फिल्मों से आपका कैसा रिश्ता रहा है.
मिल्खा सिंहः मैंने तो पिछले 50 साल से भी ज्यादा से कोई फिल्म नहीं देखी है.
डॉयचे वेलेः कुछ समय पहले पान सिंह तोमर पर भी फिल्म बनी थी. आप तो पान सिंह के साथ भागते भी थे.
मिल्खा सिंहः जी हां, पान सिंह जबरदस्त एथलीट थे. कई साल पहले मुझे मेरे पुराने साथी रंजीत सिंह भाटिया का दिल्ली से फोन आया. रंजीत भारत की तरफ से रोम ओलंपिक में मैराथन भाग चुके हैं. उन्होंने कहा कि दिल्ली आओ, तुम्हें एक पुराने दोस्त से मिलवाना है. मैं दिल्ली में डिफेंस कॉलोनी में उनके घर गया तो देखा कि रंजीत के साथ एक बुजुर्ग लेकिन लंबा तगड़ा और खुली दाढ़ी वाला शख्स बैठा है. मैंने बिलकुल नहीं पहचाना, लेकिन जैसे ही उसने बातचीत के लिए मुंह खोला मैं समझ गया कि वह पान सिंह ही था. बस, फिर क्या था, हम दोनों गले मिल कर खूब रोए और बहुत बातें कीं. यह उस समय की बात है, जब वह डाकू बन गया था.
डॉयचे वेलेः फिल्म का नाम कैसा लगा, भाग मिल्खा भाग.
मिल्खा सिंहः मुझे लगता है कि प्रसून जोशी ने बहुत सोच समझ कर यह नाम रखा है. क्योंकि यह फिल्म सिर्फ एक एथलीट की कहानी नहीं है, बल्कि एक ऐसे इंसान की जिंदगी का सफर है, जिसने गुरबत, परेशानी, ऊंचा, नीचा सब देखा है. और यह नाम मेरी जिंदगी के उस हिस्से को दर्शाता है, जो शायद सबसे मुश्किल था. मैं शायद 14-15 साल का था, जब भारत बंटा और हम पाकिस्तान से भाग रहे थे, तो हर तरफ यही सुन रहे थे कि भागो, भागो. मेरे पिता ने भी ऐसा ही कहा था. इसलिए यह नाम ठीक लगा.
डॉयचे वेलेः आपके बारे में लोग जानते हैं, लेकिन आपके बाकी रिश्तेदारों के बारे में नहीं.
मिल्खा सिंहः हम 15 भाई बहन थे लेकिन कुछ तो पहले ही बीमारी की वजह से खत्म हो गए. कुछ को मार दिया गया. मेरी एक बहन इशार कौर मेरे साथ थी. उसका जीवन भी काफी परेशानी में कटा. उसके ससुराल वाले उस पर काफी ज्यादती करते थे. पैसे की तरफ से वैसे ही हमारी जिंदगी खराब थी. मुझे याद है कि एक बार मैं बिना टिकट बस में सफर करता पकड़ा गया. मुझे तिहाड़ जेल भेज दिया गया. मेरी बहन ने घर वालों से छिप कर किसी तरह अपने बूंदे बेच कर मुझे छुड़वाया.
डॉयचे वेलेः क्या उन्होंने कभी आपको दौड़ते देखा.
मिल्खा सिंहः जी हां, मैं दिल्ली में एक चैंपियनशिप में नेशनल स्टेडियम में 100 मीटर रेस में हिस्सा ले रहा था. वह सीढ़ियों पर बैठी थी. जैसे ही रेस शुरू करने के लिए राइफल चलाई गई, वह नीचे भागी. उसने समझा कि किसी ने मुझे गोली मार दी. रेस जीत कर जब मैं फिनिश लाइन पर लेटा था, तो वह चिल्ला चिल्ला कर रोने लगी. उसे लगा कि मैं खत्म हो गया हूं.
डॉयचे वेलेः हालांकि आप मीडिया में भी छाए रहे हैं. लेकिन एक दफा आपने किसी मीडिया वाले की पिटाई कर दी थी.
मिल्खा सिंहः दरअसल हुआ यह कि इंडियन एक्सप्रेस के एक पत्रकार वरनन राम थे, जो खेलों पर बहुत अच्छा लिखते थे. एक दिन उन्होंने लिख दिया कि मैं अनफिट हूं. दूसरे दिन जब वह नेशनल स्टेडियम आए, तो कुछ खिलाड़ियों ने उन्हें धक्का दे दिया. मैं वहां था, तो मेरा नाम भी शामिल हो गया.
डॉयचे वेलेः और एक दफा आपने अपने दोस्त और प्रतिद्वंद्वी माखन सिंह के साथ भी तकरार की.
मिल्खा सिंहः हुआ यह कि मैं 1964 के टोक्यो ओलंपिक में हिस्सा लेकर लौटा था. तभी एक चैंपियनशिप में माखन सिंह ने मुझे हरा दिया. उसके बाद वह शोर मचाने लगे कि मैंने मिल्खा को हरा दिया. मैं बर्दाश्त नहीं कर सका और जी जान से प्रैक्टिस करने लगा. दूसरे चैंपियनशिप में मैंने माखन को हराया और फिर फिनिश लाइन के पास उससे पूछा, "कहो, कैसा लगा." बस, इतना ही हुआ.
डॉयचे वेलेः आप लगभग 80 साल के हो चुके हैं. आज भी उतना ही व्यस्त रहते हैं और फिट भी हैं, जितना 40-50 साल पहले. इसका क्या राज है.
मिल्खा सिंहः मेरा ख्याल है कि अनुशासन सबसे जरूरी चीज है. मैं अभी भी सुबह जॉगिंग के लिए जाता हूं. कभी कभी गोल्फ खेलता हूं. आजकल के एथलीटों में अनुशासन की कमी है. जितनी सुविधाएं खिलाड़ियों को आज मिलती हैं, अगर मुझे मिली होती, तो मैं पक्का ओलंपिक में पदक जीतता.
डॉयचे वेलेः आपकी कोई ऐसी मुराद, जो पूरी न हुई हो.
मिल्खा सिंहः भगवान ने मुझे सब कुछ दिया है. आज मेरे पास पैसा और आराम है, जिसके लिए कभी मैं तड़पता था. इज्जत है और बच्चे भी जिंदगी में अच्छा कर रहे हैं.
इंटरव्यूः नॉरिस प्रीतम
संपादनः अनवर जे अशरफ