यूरोपीय संघ में पहले बिजली के आम बल्बों पर रोक लगी और अब हैलोजन को भी बाजार से हटाने की तैयारी है. उम्मीद है कि एलईडी के इस्तेमाल से बिजली की खपत कम की जा सकेगी.
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बिजली की खपत को कम करने के लिए यूरोपीय संघ अब हैलोजन बल्ब पर प्रतिबंध लगा रहा है. हालांकि इन बल्बों पर प्रतिबंध दो साल पहले ही लग जाना चाहिए था, लेकिन बेहतर विकल्प को बाजार में लाने के लिए इसे थोड़ी और मोहलत दे दी गई. 1 सितंबर 2018 से यूरोपीय संघ के बाजारों में हैलोजन की सप्लाई रोक दी जाएगी.
इनकी जगह अब एलईडी यानी लाइट एमिटिंग डायोड को तरजीह दी जाएगी. यूरोपीय आयोग का कहना है कि एलईडी की तुलना में हैलोजन बल्ब पांच गुना ज्यादा बिजली की खपत करते हैं. इस लिहाज से एलईडी के इस्तेमाल से यूरोपीय संघ में एक साल में कुल उतनी बिजली बचाई जा सकेगी जितनी कि पुर्तगाल में साल भर में इस्तेमाल होती है.
हालांकि सीलिंग लाइ्टस, फ्लडलाइट्स और डेस्क लैंप पर फिलहाल हैलोजन के प्रतिबंध का असर नहीं होगा. इन्हें अपवाद माना जाएंगा. साथ ही जिन दुकानों के पास हैलोजन बल्ब रखे हैं, उन्हें इन्हें बेचने की भी अनुमति होगी. इसके अलावा बिजली की खपत को बचाने के लिए यूरोपीय संघ कई इलेक्ट्रिकल उत्पादों के इको-डिजाइन बनाने पर काम कर रहा है. इनमें शावर हेड, वैक्यूम क्लीनर, अवन और हॉटप्लेट्स जैसे कई उत्पाद शामिल हैं.
बिजली की खपत से परेशान एयरपोर्ट
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रोशनी के अन्य विकल्पों की तुलना में एलईडी लाइटें महंगी होती हैं लेकिन 2010 से 2017 के बीच इनके दामों में करीब 75 फीसदी की गिरावट देखी गई है. जर्मन संस्था 'फ्रेंड्स ऑफ द अर्थ' के मुताबिक अगर 10 साल तक एक हैलोजन बल्ब का दिन में तीन घंटे इस्तेमाल किया जाए, तो इसकी कुल लागत 160 यूरो तक आाएगी. वहीं एलईडी के इस्तेमाल से महज 28 यूरो का खर्च होगा. इस लिहाज से देखा जाए तो महंगे एलईडी बल्ब खरीदना भी फायदे का सौदा ही साबित होगा.
संगठन की एनर्जी एक्सपर्ट इर्मेला कोलाको का इस बारे में कहना है, ''अगर बिजली की खपत कम करने वाले विकल्प इस्तेमाल किए जाएं, तो उपभोक्ता काफी पैसे बचा सकते हैं.'' जर्मन इलेक्ट्रिकल इंडस्ट्री असोसिएशन से जुड़े युर्गन वार्डोर्फ बताते हैं कि खास कर पिछले दो-तीन सालों में एलईडी लाइटों की तकनीक काफी बेहतर हुई है, "अब एलईडी को अलग अलग रंगों में इस्तेमाल भी किया जा सकता है और इन्हें स्मार्टफोन से भी कंट्रोल किया जा सकता है.''
एलईडी लाइटों का बाजार तेजी फलफूल रहा है. जर्मन मार्केट रिसर्च इंस्टीट्यूट जीएफके के आंकड़ें बताते हैं कि 2014 में जहां यह 38 फीसदी था, वहीं 2017 में यह बढ़कर 61 फीसदी पहुंच गया. उधर, हैलोजन बल्बों का बाजार 16.7 फीसदी से घटकर 12 फीसदी रह गया.
ब्रसेल्स स्थित यूरोपीय आयोग में ऊर्जा के बेहतर इस्तेमाल पर लगातार काम हो रहा है. केतली, हैंड ड्रायर, लिफ्ट आदि बिजली से चलने वाले कई उत्पादों पर शोध चल रहे हैं.
वीसी/आईबी (डीपीए)
एलईडी की रोशनी से घट जाती है तारों की चमक!
एलईडी की रोशनी से घट जाती है तारों की चमक!
एलईडी लाइट ऊर्जा की बड़ी बचत करती हैं. इनकी रोशनी ज्यादातर नीली और ठंडी होती है. इसका मतलब है कि शहरों के ऊपर का आकाश ज्यादा से ज्यादा चमकीला हो रहा है, और ऐसी स्थिति को लाइट पॉल्यूशन या फिर रोशनी प्रदूषण कहते हैं.
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साफ आकाश
इस तरह का नजारा देखने के लिए ज्यादातर लोगों को काफी लंबी दूरी तय करनी पड़ेगी. सभ्यता से दूर कहीं समंदर किनारे या फिर पहाड़ों में. जहां कहीं इंसान हैं वहां रोशनी के कृत्रिम स्रोत भी मौजूद हैं. ये आकाश को चमकादार बनाते हैं और इसका नतीजा यह होता है कि सितारों की चमक फीकी पड़ जाती है. सितारे हल्के होते होते एक दिन नजरों से दूर हो जाते है.
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सस्ती और चमकदार रोशनी वाली एलईडी
नये जमाने के लैम्प अब ज्यादा ऊर्जा की खपत नहीं करते. इसलिए अब लोग उनका जम कर इस्तेमाल करते हैं. जाहिर है कि इसके कुछ दूसरे नतीजे भी होंगे. एलईडी की रोशनी में अक्सर कोल्ड ब्लू वेवलेंथ की रोशनी होती है. यह वे तरंगें हैं जो रोशनी के प्रदूषण को तेज करती हैं.
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संरक्षित क्षेत्र में बिजली बंद
यूरोपीयन सदर्न ऑब्जर्वेटरी यानि ईएसओ चिली के विशेष संरक्षित क्षेत्र में हैं. यहां घरों के बाहर कृत्रिम रोशनी जलाने की मनाही है. ईएसओ इंसानी बस्तियों से काफी दूर है. हालांकि शहर के पास मौजूद वेधशालाओं यानि ऑबर्जर्वेटरी को प्रकाश के उत्सर्जन से जूझना पड़ता है. यही वजह है कि शहरों में रोशनी का प्रदूषण रोकने के लिए पीली गर्म रोशनी स्ट्रीट लाइट के रूप में इस्तेमाल की जाती है.
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पहले...
जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइंसेज, द लाइबनित्स इंस्टीट्यूट और द यूनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर एंड बॉल्डर के रिसर्चरों ने अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से मिले आंकड़ों और तस्वीरों का इस्तेमाल कर परिवर्तन को जानने की कोशिश की. यह नजारा 2010 में आईएसएस कैलगरी/कनाडा से लिया गया.
तस्वीर: GFZ Potsdam
... और बाद में
वही नजारा 2015 में. कोई भी देख सकता है कि लाइटिंग सिस्टम ने पूरे शहर में क्या बदलाव कर दिया है. कुछ सड़क और जुड़ गये हैं. वैज्ञानिक जिस रेडियोमीटर का इस्तेमाल प्रकाश की तीव्रता नापने के लिए करते हैं, वह नीले स्पेक्ट्रम की रोशनी सही तरीके से नहीं बता पा रहा है. इसका मतलब है कि जितना पता चल पा रहा है, उससे कहीं ज्यादा तेज है रोशनी.
तस्वीर: GFZ Potsdam
बढ़ती जा रही है रोशनी
यह उपकरण वीजिबल इन्फ्रारेड इमेजिंग रेडियोमीटर है. इसका रिजॉल्यूसन 750 मीटर था. इसके आंकड़े बता रहे हैं कि कृत्रिम स्रोत से आ रही रोशनी की तीव्रता हर साल करीब 2.2 फीसदी की दर से बढ़ी है 2012 से 2016 के बीच.
तस्वीर: NASA
रोशनी का अर्थव्यवस्था से क्या लेना?
दुनिया भर में रोशनी बढ़ने को मोटे तौर पर देशों के जीडीपी में इजाफे से जुड़ा माना जाता है. उभरती अर्थव्यवस्थाओं में इन दोनों चीजों को बहुत तेजी से बढ़ते देखा जा सकता है.
तस्वीर: NASA/GSFC/Craig Mayhew & Robert Simmon
रोशनी बदल देती है भीतरी घड़ी को
कृत्रिम रोशनी जानवरों और पेड़ पौधों की जिंदगी बदल देती है. शहरों में रहने वाले परिंदों के सोने का अभ्यास बदल गया है. कृत्रिम रोशनी में रहने वाले पौधों के विकास की अवधि बढ़ जाती है.
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स्मार्ट लैम्प
सवाल अब भी कायम है, क्या शहरों में पूरी रात स्ट्रीट लाइट को जलाए रखने की जरूरत है? भले ही एलईडी बहुत ज्यादा बिजली खर्च नहीं करती लेकिन हमें उन्हें जब जरूरत ना हो तो बंद कर देना चाहिए. जो रोशनी हलचल से चालू हो जाए उसे विकल्प बनाया जा सकता है. आपात स्थिति के लिए थोड़ी कम चमकीली रोशनी भी चल सकती है.