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अभिव्यक्ति की आजादी को सरकार से खतरा

मारिया जॉन सांचेज
१ जनवरी २०१९

वर्ष 2018 के अंतिम दिन जारी हुई एक विस्तृत रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भारत में लगभग सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्ति की आजादी पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है.

Symbolbild Journalisten in Krisengebiet
तस्वीर: gemeinfrei

'फ्री स्पीच कलेक्टिव' की एक विस्तृत रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भारत में लगभग सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्ति की आजादी पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है.

रिपोर्ट में बताया गया है कि देश की केंद्र सरकार अभिव्यक्ति की आजादी को संरक्षण देने के बजाय दमनकारी नियमन और निगरानी रखने की प्रणालियों का इस्तेमाल करके और अधिक खतरे में डाल रही है और कमोबेश मुख्य सेंसर की भूमिका निभा रही है.

मीडियाकर्मियों की हत्याएं और उन पर हमले जारी हैं, खबरों पर प्रतिबंध लगता रहता है, और असहमति प्रकट करने वाले मीडियाकर्मियों, सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा अन्य नागरिकों के खिलाफ दायर किए जाने वाले कानूनी नोटिसों, मानहानि के मुकदमों और राजद्रोह के मुकदमों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही है.

पूरे वर्ष इंटरनेट पर भी कड़े प्रतिबंध लगते रहे हैं और दुनिया भर में कहीं भी उसे इतनी अधिक बार बंद नहीं किया गया जितना भारत में किया गया. हाल ही में भारत सरकार ने दस एजेंसियों को किसी भी नागरिक के डिजिटल उपकरणों में जमा सामग्री की जांच करने का अधिकार दे दिया है.

इस रिपोर्ट को 'फ्री स्पीच कलेक्टिव' नामक समूह ने तैयार किया है और इसे तैयार करने में अनुभवी पत्रकारों की शिरकत रही है. इसकी लेखिका गीता सेशु और सम्पादक लक्ष्मी मूर्ति हैं और इसे तैयार करने में एशलिन मैथ्यू, गीता सेशु, मालिनी सुब्रमण्यम, लक्ष्मी मूर्ति और शोन सतीश का योगदान रहा है.

इस रिपोर्ट को पुष्ट प्रमाणों के आधार पर तैयार किए जाने का दावा किया गया है. इसके आधार पर भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जो खाका खींचा गया है, वह बहुत भयावह है. पिछले वर्ष अपनी ड्यूटी निभाते समय सात पत्रकार मारे गए. गत वर्षों में मारे गए पत्रकारों के मामलों में भी अभी तक किसी दोषी को सजा नहीं हुई है.

मीडियाकर्मियों और नागरिकों पर वर्ष 2018 में 27 हमले हुए जिनमें से कुछ जानलेवा भी थे. पत्रकारों के घरों पर पेट्रोल बम फेंके गए. पत्रकारों को परेशान किए जाने और उन्हें धमकी दिए जाने के मामलों में बढ़ोतरी हुई और महिला पत्रकारों को ऑनलाइन तंग किए जाने की घटनाएं भी लगातार जारी हैं. कम से कम दस पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया जबकि तीन विदेशी पत्रकारों समेत छह अन्य को अलग-अलग अवधि के लिए जेल में रखा गया.

प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर प्रसारित होने वाली खबरों पर अंकुश लगाने और फिल्मों एवं नाटकों के प्रदर्शनों के खिलाफ प्रदर्शन और तोड़फोड़ करने की कम से कम 114 घटनाएं घटीं. रिपोर्ट में अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने की कोशिशों का विस्तार से वर्णन किया गया है और उनके ठोस उदाहरण दिए गए हैं.

यूं तो भारत में वैचारिक असहिष्णुता का इतिहास काफी पुराना है और किसी की पार्टी की सरकार के कार्यकाल को इससे मुक्त नहीं कहा जा सकता. इसके साथ ही यह भी सही है कि पिछले पांच-छह वर्षों के दौरान इसमें अभूतपूर्व ढंग से वृद्धि हुई है.

स्वाधीनता प्राप्ति के बाद के आरंभिक दशकों में सरकार की ओर से कभी-कभार किसी पुस्तक या फिल्म पर प्रतिबंध लगाने की घटना होती थी, लेकिन 1980 के दशक के मध्य में आए हिंदुत्व के उभार के साथ-साथ ही इस असहिष्णुता में भी उभार आया.

जब गोविंद निहलाणी ने भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस' पर इसी नाम का टीवी धारावाहिक बनाया तो हिन्दुत्ववादी संगठनों ने उसके दूरदर्शन पर प्रसारण का विरोध किया. उसका प्रसारण तभी संभव हो पाया जब भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता केवल रतन मलकानी ने उसे हरी झंडी दिखाई. इस घटना से स्पष्ट हो गया कि ताकतवर राजनीतिक गुटों या दलों के दबाव के आगे देश के सेंसर बोर्ड के फैसले का भी कोई अर्थ नहीं है क्योंकि किसी फिल्म को दिखाया जाए या ना दिखाया जाए, यह फैसला करना  सेंसर बोर्ड की जिम्मेदारी है. कुछ समय पहले ‘पद्मावत' फ़िल्म को लेकर भी इसी तरह की जबर्दस्ती, आक्रामकता और असहिष्णुता देखने में आयी थी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और उनकी पार्टी की राज्य सरकारों ने इस प्रकार के लोकतंत्रविरोधी प्रदर्शनों और बलपूर्वक अपनी राय थोपने के प्रयासों पर अंकुश लगाने के लिए कुछ भी नहीं किया. नतीजतन केवल प्रेस की ही नहीं, किसी भी प्रकार की असहमति की आजादी खतरे में पड़ गयी है. ताजा रिपोर्ट सप्रमाण आज की स्थिति का वास्तविक जायजा प्रस्तुत करती है. अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों में है. यदि वह खतरे में पड़ती है तो फिर देश में लोकतंत्र के भविष्य के बारे में भी आश्वस्ति होना संभव नहीं है.

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