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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानहानि कानून

२ नवम्बर २०१४

सुप्रीम कोर्ट मानहानि संबंधी कानून की संवैधानिक वैधता पर विचार करने के लिए तैयार हो गया है. कुलदीप कुमार का कहना है कि तर्कसंगत आरोपों और कीचड़ उछालने की नीयत से लगाए गए बेबुनियाद आरोपों के बीच फर्क करना होगा.

तस्वीर: picture-alliance/dpa

सुप्रीम कोर्ट ने अंततः मानहानि संबंधी कानून की संवैधानिक वैधता पर विचार करने का मन बना ही लिया. गुरुवार को जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस यूयू ललित की सदस्यता वाली खंडपीठ ने भारतीय जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यन स्वामी की याचिका पर सुनवाई करने का निर्णय लिया जिसमें उन्होंने आरोप लगाया था कि मानहानि संबंधी कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटते हैं और संविधान के अनुच्छेद 19(2) की भावना के विरुद्ध हैं, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मुनासिब प्रतिबंध लगाने की व्यवस्था की गई है. दरअसल स्वामी पर ऑल इंडिया अन्ना द्रमुक की महासचिव और तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता ने मानहानि के पांच मुकदमे ठोंके हुए हैं.

मानहानि संबंधी कानून का कैसा दुरुपयोग होता है, इसका पता इसी बात से चल जाता है कि 2004 में तमिलनाडु सरकार ने अंग्रेजी दैनिक ‘द हिन्दू' के खिलाफ मानहानि के 125 मुकदमें दायर किए थे. इसके पहले जब तमिल पत्रिका ‘नखीरन' में अपराधी ऑटो शंकर की आत्मकथा प्रकाशित होने वाली थी, तब भी उसके संपादक आरआर गोपाल के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया गया था क्योंकि आत्मकथा में कई आईएएस और आईपीएस अफसरों के अपराधियों के साथ संबंधों का खुलासा किया गया था. दोनों ही मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमों को खारिज करते हुए कहा था कि उचित समय पर मानहानि संबंधी कानून की समीक्षा की जानी चाहिए. वह समय अब आया है.

मीडिया और सार्वजनिक गतिविधियों से जुड़े लोगों को अक्सर मानहानि की धमकी का सामना करना पड़ता है. ऊपर से तुर्रा यह है कि यदि मानहानि का मामला किसी मंत्री या सरकारी अफसर द्वारा चलाया जा रहा हो, तो उसका खर्च भी सरकार ही उठाती है. सुप्रीम कोर्ट का ध्यान इस बात की ओर भी गया है कि ऐसे मुकदमों का खर्च सरकारी कोष द्वारा क्यों वहन किया जाए? अदालत ने माना है कि हालांकि स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी अपने आप में परम मूल्य नहीं हैं, लेकिन लोकतंत्र में उनका महत्व है और सरकार की आलोचना करने के अधिकार को कुचला नहीं जाना चाहिए.

मानहानि का मुकदमा अक्सर ऐसे लोग ही दायर करते हैं जिनके हाथ में धन या शासन या दोनों की सत्ता होती है. आम राजनीतिक कार्यकर्ता या मीडियकर्मी के पास न इतने साधन होते हैं और न समय जो वह इन शक्तिशाली लोगों का सामना कर सके और कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटे. इसलिए शक्तिसम्पन्न व्यक्तियों से टकराने की हिम्मत आसानी से नहीं आती क्योंकि मानहानि के मुकदमे की तलवार सिर पर लटकी रहती है. वर्ष 2004 में ‘द हिन्दू' जैसे प्रतिष्ठित समाचारपत्र के खिलाफ तमिलनाडु की सरकार द्वारा मानहानि के 125 मुकदमे दायर करना क्या अपने आप में इस बात का प्रमाण नहीं है कि मानहानि संबंधी कानून का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन के लिए दुरुपयोग किया जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की समीक्षा करने का निर्णय लेकर एक स्वागत योग्य कदम उठाया है.

पिछले कई वर्षों के दौरान धार्मिक भावनाओं के आहत होने के आधार पर लेखकों, इतिहासकारों, चित्रकारों आदि के खिलाफ मुकदमे चलाए जाने की प्रवृत्ति बहुत पुष्ट हुई है. भारत के शीर्षस्थ चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन तो देश के अलग-अलग शहरों में दायर इन मुकदमों से तंग आकर देश ही छोड़कर चले गए थे और फिर मृत्युपर्यंत वे भारत लौट नहीं पाए. पेंगुइन जैसे प्रतिष्ठित प्रकाशक इन मुकदमों से डरकर पुस्तकें वापस ले रहे हैं. अन्य प्रकाशक स्वीकृत पुस्तकों को छापने पर पुनर्विचार कर रहे हैं. क्या अब समय नहीं आ गया जब सुप्रीम कोर्ट को इन कानून की भी समीक्षा करनी चाहिए क्योंकि इनका दुरुपयोग भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए किया जा रहा है?

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