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अमीरों के चोचलों से मुफ्त की दावत

२२ जनवरी २०१२

कूड़े के ढेर से खाना चुनते लोग गरीब मुल्कों में खूब दिखते हैं पर जर्मनी जैसे देशों में भी यह हो रहा है. पैसे वालों की उम्दा खाना खाने की सोच कुछ समझदार लोगों को मुफ्त में खाना खिला रही है.

तस्वीर: Fotolia/koi88

शनिवार आधी रात के बाद कानून पढ़ रहे 24 साल के आलेक्सांद्र हैम्बर्ग में अपने छोटे से अपार्टमेंट से बाहर आ कर घूमने निकलते हैं. उस जगह की ओर जहां स्थानीय सुपरमार्केट कूड़े के कंटेनर रखते हैं. रोज का राशन उन्हें यहीं मिलता है.

तस्वीर: picture-alliance/Bildagentur Huber

आलेक्स परिवार का नाम सामने नहीं आने देना चाहते पर हर रोज वे कूड़े के ढेर में से चुनकर अपने खाने लायक चीजें निकाल लेते हैं. इस कंटेनर में सुपरमार्केट के अलावा जर्मन परिवारों और रेस्तराओं का भी कूड़ा पहुंचता है. आलेक्स कहते हैं, "निश्चित रूप से मैं ऐसा करता हूं क्योंकि मुझे मुफ्त में खाना मिल जाता है. वैसे इसके साथ यह भी सच है कि मैं ऐसा इसलिए भी करता हूं क्योंकि ऐसा खाना जो खाया जा सकता है, उसे फेंकना गैरजिम्मेदाराना और अनैतिक है."

भोजन और कृषि संगठन के मुताबिक पिछले साल औसतन हर जर्मन नागरिक ने साल भर में 105 किलो खाना कूड़ेदान में डाला. खाने पीने की चीजों का खराब होने के बारे में लोगों की चिंता उचित है लेकिन जानकारों का मानना है कि इन चीजों के पैकेट पर लिखी एक्सपायरी डेट की वजह से भी ज्यादा गलतफहमियां पैदा हो रही हैं. सुपरमार्केट या राशन की दुकानों में ज्यादा बड़े आलू, ज्यादा मुड़े खीरे या फिर चीज और दही को एक्सपायरी के बाद कूड़ेदान में डालने के लिए छांट कर निकाल लिया जाता है.

तस्वीर: picture alliance/ZUMA Press

हैम्बर्गर टेबल नाम की समाजसेवी संस्था से जुड़े क्लाउस हेर्दा कहते हैं, "लोग ज्यादा से ज्यादा मात्रा में उच्च स्तर की खाने पीने की चीजें खरीदना चाहते हैं. अगर सुपरमार्केट उच्च स्तर का सामान नहीं बेचेंगे तो लोग दूसरी जगह जाएंगे उन्हें खरीदने के लिए." हैम्बर्गर टेबल गरीब लोगों के लिए खाना इकट्ठा करती है. हेर्दा का कहना है कि लोग पैकेट पर लिखी गई सलाह को चेतावनी के रूप में लेते हैं जो ठीक नहीं है.

लोगों के इस रवैये के कारण स्टोर मालिकों को बड़ी मात्रा में खाने पीने की चीजें फेंकनी पड़ती हैं जो कि वास्तव में उस वक्त भी खाने लायक होती हैं. नतीजा यह होता है कि हजारों टन सेब, केला, कॉफी, दही, चीनी और दूसरी चीजें कूड़ेदान तक पहुंच जाती हैं. पूरे देश का यही हाल है. आलेक्स इसे फेंकने की प्रवृत्ति कहते हैं, "ये पागलपन है. मैं अब खाने पर पैसा खर्च नहीं करता. जब में दूसरे लोगों का फेंका हुआ खाना देखता हूं तो अमीर लोगों के पागलपन का एहसास होता है."

तस्वीर: picture alliance/dpa

बर्लिन में रहने वाले 22 साल के रफाएल फेल्मर भी लोगों की इस प्रवृत्ति का फायदा उठाते हैं. वह अपनी साथी नीफेस और चार महीने की बेटी अल्मा लूसिया केवल इसी तरह का खाना खाते हैं. फेल्मर कहते हैं, "हम खास दुकानों की फेंकी ऑर्गेनिक खाने से अपना काम चलाते हैं. हम खाने पर एक सेंट भी खर्च नहीं करते."

हफ्ते में तीन या चार बार ज्यादातर आधी रात के वक्त फेल्मर आस पास के सुपरमार्केट के चक्कर लगाते हैं. उनके पास एक साइकिल पर एक बड़ा पीठ पर लादने वाला बैग, हाथों में ग्लव्स और एक सिर पर पहनी जा सकने वाली लाइट होती है इसी के सहारे वो अपना राशन जमा कर ले आते हैं. बातचीत के दौरान फेल्मर ने निकारागुआ की एक कॉफी पीते हुए उसका पैकेट भी दिखाया जो अभी बिल्कुल सही स्थिति में था.

फेंका हुआ खाना जमा करना और उन्हें खाना इतनी सामान्य बात होती जा रही है कि आलेक्स और रफाएल जैसे लोगों ने इसके लिए एक नया शब्द भी गढ लिया है. ये लोग इसे कॉन्टेनर्न कहते हैं इसका मतलब होता है, फूड कंटेनरों को लूटना. लोगों को इस बारे में जागरूक करने के लिए ये लोग इंटरनेट पर मुहिम भी चला रहे हैं. सुपरमार्केट इसे सामान्य रूप से लूटपाट का दर्ज देता हैं और उन्होंने अपने कूड़ेदानों में ताला बंद करना भी शुरू कर दिया है. आलेक्स और फेल्मर जैसों को दूर रखने के लिए सुपरमार्केट मालिक सिक्योरिटी गार्ड भी रखने लगे हैं.

जर्मन शहर ड्यूसेलडॉर्फ की एक बेकरी चेन हर महीने 12 टन ब्रेड फेंक देती है. इन लोगों ने अब खाने की चीज फेंकने का एक नया तरीका इजाद किया है. बेकरी के मालिक कहते हैं, "हम खराब ब्रेड को बेकिंग के लिए ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर लेते हैं. अगर देश की सारी बेकरियां यही करने लगे तो जर्मनी दो परमाणु बिजली घरों को बंद करने लायक उर्जा पैदा कर लेगा."

अब तक खाने की इस बर्बादी का राजनीति पर कोई असर नहीं हुआ है. उपभोक्ताओं मामलों के मंत्रालय ने बस इतना एलान किया है कि वो इस समस्या के सही स्वरूप और गंभीरता का आकलन करने के लिए एक रिसर्च कराएंगे.

जर्मनी का यह रवैया दूसरे देशों के मुकाबले कोई बहुत अलग नहीं है. दुनिया में पैदा होने वाले खाने का एक तिहाई हर साल बेकार चला जाता है. एफएओ के रिसर्च के मुताबिक केवल अमीर देशों के लिए यह मात्रा करीब 23 करोड़ टन है. रिसर्च से यह भी पता चला है कि सुपरमार्केट की ज्यादा से ज्यादा बेचने की नीति भी इसके लिए जिम्मेदार है. अकसर ग्राहकों को एक खरीदो, तीन पाओ जैसी योजनाओं के जरिये जरूरत से ज्यादा खरीदने के लिए लुभाया जाता है. बाद में यही सब चीजें कूड़ेदान तक पहुंचती हैं.

रिपोर्टः आईपीएस/एन रंजन

संपादनः ओ सिंह

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