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अमेरिका की जगह जर्मनी चुना

५ जुलाई २०१३

विदेश में रह कर पढ़ाई करने का सपना कई और भारतीय छात्रों की तरह अवध कुमार ने भी देखा था और उनका यह सपना तब सच हुआ जब कोलोन यूनिवर्सिटी में न्यूरोसाइंस के छेत्र में रिसर्च करने की उनकी अर्जी मंजूर हो गई.

तस्वीर: privat

अवध कुमार ने मंथन में हमें समझाया कि डिजिटल मीडिया यानी कंप्यूटर, मोबाइल फोन इत्यादि का हमारी सेहत पर किस तरह बुरा असर पड़ता है. जिस रिसर्च के लिए वह जर्मनी आए हैं, वहां तक के उनके सफर के बारे में डॉयचे वेले ने जाना खुद अवध कुमार से.

डॉयचे वेले: अपने रिसर्च कार्यक्रम के बारे में कुछ बताइए.

अवध कुमार: मेरी रिसर्च का क्षेत्र न्यूरोसाइंस है. असल में तनाव के बहुत सारे रूप होते हैं और उनका हमारे मस्तिष्क और शरीर पर अलग अलग तरह का असर पड़ता है. मेरी रिसर्च भी तनाव के कारण मस्तिष्क पर पड़ने वाले असर पर आधारित है.

आपका जर्मनी आना कैसे हुआ?

बैंग्लौर से मास्टर्स की पढ़ाई करने के बाद मैं थोड़ा अंतरराष्ट्रीय अनुभव चाहता था. जिस क्षेत्र में मैं रिसर्च कर रहा हूं उसमें जर्मनी में कई अच्छी यूनिवर्सिटी हैं. मैंने जर्मनी के कई कार्यक्रमों के लिए आवेदन डाला था और कोलोन यूनिवर्सिटी में मुझे रिसर्च करने का मौका मिला.

आपने अंतरराष्ट्रीय अनुभव की बात की, लेकिन सिर्फ जर्मनी को ही क्यों चुना?

जैसा कि मैंने कहा कि न्यूरोसाइंस में रिसर्च के लिए जर्मनी काफी मशहूर है. दूसरा कारण यह भी है कि अमेरिका में रिसर्च करने में पांच साल लग जाते हैं जबकि जर्मनी में वही रिसर्च आप तीन साल में पूरी कर सकते हैं. फंडिंग में भी कोई दिक्कत नहीं होती और पढ़ाई के लिए पर्याप्त सामग्री मिलना ज्यादा आसान होता है. यहां हर रिसर्च कार्यक्रम में आपको फेलोशिप मिलती है, इसलिए खर्च के बारे में भी सोचना नहीं पड़ता.तीन साल में रिसर्च पूरी करके आप आगे के सालों को पोस्ट डॉक्ट्रेट या फिर इंडस्ट्री में काम करके इस्तेमाल कर सकते हैं.

जर्मनी आकर आपको यहां के रहन सहन के साथ दोस्ती करने में दिक्कत तो नहीं आई?

नहीं, मैं भारत के बड़े शहरों में रह चुका हूं और मुझे वहां के बड़े शहरों का रहन सहन यूरोप से बहुत अलग नहीं लगता. मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर में हुआ था. वहां से स्कूली शिक्षा पाने के बाद मैंने मेरठ से ग्रेजुएशन और फिर बैंग्लौर से मास्टर्स की पढ़ाई की. बैंग्लौर काफी आधुनिक जीवनशैली वाला शहर है. वहां से जर्मनी आकर रहना मेरे लिए मुश्किल नहीं रहा.

और जर्मन भाषा के साथ कैसा अनुभव रहा?

जर्मन भाषा ना आना इतना बड़ा मुद्दा नहीं रहा क्योंकि मैं विज्ञान का छात्र हूं और इस क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाली शब्दावली आमतौर पर अंग्रेजी ही होती है. इसके अलावा यहां ऐसा नहीं है कि लोग अंग्रेजी बोलते या समझते ना हों. खास कर छात्र और यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर तो अंग्रेजी बोलते ही हैं. मुझे थोड़ी बहुत दिक्कत यूनिवर्सिटी के बाहर लोगों से बातचीत करने में हुई, लेकिन अब वह भी इतनी नहीं है. थोड़ी जर्मन बोलना तो मैं भी सीख ही गया हूं.

आगे क्या इरादा है, भारत वापस जाना चाहते हैं या यहीं रहना चाहते हैं?

आगे मैं अपनी पोस्ट डॉटक्ट्रेट की पढ़ाई यहीं से पूरी करना चाहूंगा. हालांकि उसके बाद मैं भारत लौट जाना चाहता हूं क्योंकि भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक है. अध्यापन के अलावा इंडस्ट्री में भी नए मौके आने की उम्मीद है. मुझे भारत में काम करने का कोई अच्छा मौका मिलेगा तो मैं जरूर लौटना चाहूंगा.

आप भारत के दूसरे छात्रों को जर्मनी के बारे में क्या बताना चाहेंगे?

मैं तो यही कहूंगा कि अगर आपकी पढ़ाई की फील्ड मेरे जैसी है तो आप जर्मनी को अपनी लिस्ट में जरूर रखें. यहां रिसर्च करने का अपना अलग ही मजा है. ना सिर्फ पढ़ाई, बल्कि यूरोप में रहना भी अपने आप में बहुत बढ़िया है. मैं अब यूरोप के लगभग पांच शहरों में घूम चुका हूं. पढ़ाई के अलावा असल जीवन से जुड़ी बहुत सारी खास बातें आपको यहां रह कर सीखने को मिलती हैं.

इंटरव्यू: समरा फातिमा

संपादन: ईशा भाटिया

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