भारत की 'भूत जोलकिया' को दुनिया की सबसे तीखी मिर्च माना जाता है. लेकिन अमेरिका की 'कैरोलाइना रीपर' ने इसे काफी पीछे छोड़ दिया है और गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करा लिया है.
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अमेरिका की पकर बट पेपर कंपनी इसे उगा रही है. यह मिर्च काफी हद तक भूत जोलकिया जैसी ही दिखती है. आगे से मोटी और पीछे से बिच्छू की पूंछ जैसी. यह दुनिया की सबसे तीखी मिर्च है या नहीं इस पर काफी वक्त से विवाद रहा है. पिछले चार साल से इस पर टेस्ट होते रहे हैं. अब आखिरकार गिनीज बुक ने सभी विवाद खत्म करते हुए इसे अपनी सूची में जगह दे दी है.
लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि किसी भी मिर्च के बारे में यह बात साफ साफ नहीं कही जा सकती, क्योंकि तीखापन मिर्च के जेनेटिक ढांचे पर निर्भर करता है और इस बात पर भी कि उसे कहां उगाया जा रहा है. भारत, थाईलैंड और एशिया के अन्य देशों में आम तौर पर मिर्च काफी तीखी होती है, जबकि ठंडे देशों में ऐसा नहीं है. यही वजह है कि भूत जोलकिया के अलावा भारत की नागा मिर्च और दोरसे नागा भी दुनिया की सबसे तीखी मिर्चों में शुमार है.
कैसे नापा जाता है तीखापन
2012 में साउथ कैरोलाइना की विनथ्रॉप यूनिवर्सिटी ने इस मिर्च के गुच्छे में 15,69,300 एसएचयू यानि स्कोवील हीट यूनिट पाई. किसी भी चीज के तीखेपन को एसएचयू में ही मापा जाता है. शून्य का मतलब फीकापन. एसएचयू जितना ज्यादा, तीखापन भी उतना ही खतरनाक. एक आम मिर्च का एसएचयू करीब 5,000 होता है. टेस्ट किए गए गुच्छे में एक मिर्च तो ऐसी भी थी जिसमें 22 लाख एसएचयू पाया गया. बाजार में मिलने वाले पेपर स्प्रे में करीब 20 लाख एसएचयू होता है.
फार्मेसिस्ट विलबर स्कोवील ने करीब सौ साल पहले तीखापन नापने का यह तरीका इजाद किया था. इसके लिए उन्होंने चीनी और पानी का एक घोल तैयार किया और फिर उसमें मिर्च का रस मिलाया. फिर वह उसे चखते और तब तक घोल में चीनी बढ़ाते रहते जब तक मिर्च का स्वाद पूरी तरह खत्म ना हो जाए. जाहिर है कि मिर्च जितनी ज्यादा तीखी होगी, घोल में उतनी ही ज्यादा चीनी की जरूरत होगी और ऐसे तैयार हुई एसएचयू यूनिट.
अजीब नाम वाले लजीज खाने
केक का नाम मधुमक्खी का डंक या फिर गरीब शूरवीर? पहली नजर में ये नाम अजीब से लगते हैं, लेकिन जैसे ही इन्हें चखते हैं तो पता चलता है कि इनका स्वाद है बहुत जानदार... टेस्ट करेंगे?
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मुकेफुक
यह एक खास तरह की कॉफी है. असल में यह नाम फ्रेंच शब्दों मोका फॉ से बना है. जिसका मतलब होता है नकली कॉफी. फ्रांको प्रशिया युद्ध के दौरान इसे काफी इस्तेमाल किया जाता था.
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स्पेगेटी आइसक्रीम
आइसक्रीम में नूडल सुनकर अटपटा जरूर लग सकता है लेकिन ये वो नूडल नहीं जो पास्ता में इस्तेमाल होता है. वनीला आइसक्रीम को ही मशीन से इस तरह पतले छल्लों में निकाला जाता है कि वह नूडल जैसी दिखती है. यह गर्मियों में जर्मनी में खासी पसंदीदा चीज है.
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काल्टर हुंड
इसका मतलब है कोल्ड डॉग, हालांकि यह नाम भर है. जर्मनी में कुत्ता खाने का चलन नहीं है. यह चॉकलेट में बनी बटर कुकी है.
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नकली खरगोश
देखने में हेयर या खरगोश की पीठ जैसा. इसमें प्याज, आलू और अंडों से लेकर आप और कुछ भी डाल सकते हैं. और जब यह बेक हो जाता है तो सॉस के साथ परोसा जाता है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद के मुश्किल वक्त में यह काफी बनाया जाता था. और अक्सर इसमें सस्ता मांस इस्तेमाल किया जाता.
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बीनेनश्टिष
कहना मुश्किल है कि बादाम, पुडिंग और वैनिला से बने इस केक को बीनेनश्टिष यानि मधुमक्खी का डंक क्यों कहते हैं. माना जाता है कि 15वीं शताब्दी में जब लिंज के सैनिकों ने हमला किया तो आंडेरनाख के सैनिक शहद निकाल रहे थे. उन्होंने सैनिकों पर मधुमक्खी के छत्ते फेंक दिए. जिससे उन्हें भागना पड़ा तब आंडरनाख वालों ने केक बनाकर जश्न मनाया.
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माउलटाषेन
जर्मनी में स्वाबिया के दक्षिणी इलाकों में श्रद्धालु होली थर्सडे और गुड फ्राइडे को मांस नहीं खाते हैं. लेकिन शौकीन लोग कोई ना कोई रास्ता खोज ही लेते हैं. मैदे की परत के अंदर उन्होंने मांस रख कर इस पकवान की शुरुआत की. लेकिन इसका नाम कहां से आया पता नही.
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आर्मेर रिटर...
...जिसका मतलब है गरीब शूरवीर. इसे तैयार करने के लिए बासी ब्रेड को दूध, अंडे, चीनी और वैनिला के घोल में डाल कर पैन में तला जाता है. यह नाम मध्यकाल में आया जब मांस खाना सिर्फ अमीरों के बस की बात थी और गरीब सिर्फ ब्रेड से ही काम चलाते थे.
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बेआम्टेनश्टिपे (सरकारी मुलाजिमों के लिए)
जर्मन भाषा में श्टिप्पेन शब्द का अर्थ है डिप करना. और बेआम्टे यानी सरकारी मुलाजिम. यह सॉस आलू की कतलियों के साथ परोसा जाता है. शुरुआत में यह खाना भी गरीब लोग ही खाते थे. यह तब की बात है जब सरकारी मुलाजिम ज्यादा पैसे वाले नहीं हुआ करते थे. बेआम्टेनश्टिपे का मतलब है सरकारी मुलाजिम का खाना.
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हाल्वर हान
यानि आधा मुर्गा. लेकिन इसमें मुर्गी जैसा कुछ नहीं बस ब्रेड का रोल है जिसमें चीज और मक्खन भरा होता है. जर्मनी में राइन नदी के पास वाले इलाकों में यह लगभग हर रेस्तरां में मिल जाएगा.
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अब मशीनें यह काम करती हैं और वैज्ञानिकों को अपनी जीभ जलाने की जरूरत नहीं पड़ती. दरअसल मिर्च में एक कैपसेसीनॉयड नाम का रसायन होता है, जो तीखेपन के लिए जिम्मेदार होता है. अब वैज्ञानिक इस रसायन को मिर्च से अलग कर लेते हैं और फिर लिक्विड क्रोमैटोग्राफी नाम की तकनीक से इसकी सही मात्रा को जांच लेते हैं. इसके बाद एक फार्मूला इसे एसएचयू में बदल देता है.
कैरोलाइना रीपर के मालिक एड करी इस रिकॉर्ड से बहुत खुश हैं. 50 साल के एड करी के दोस्तों का कहना है कि वे उन्हें जब से जानते हैं तब से मिर्च को ले कर उनकी दीवानगी को देख रहे हैं. अमेरिका में जहां लोग बहुत मसालेदार खाना नहीं खाते हैं, वहां तीखा पसंद करने वालों की संख्या बढ़ रही है. पिछले पांच साल में तीखी मिर्च की खपत आठ फीसदी बढ़ गयी है.