सालों से मिल रही सैन्य मदद अगर अचानक बंद हो जाए तो किसी भी देश की आर्थिक सेहत को झटका लग सकता है. लेकिन पाकिस्तान के साथ तुरंत ऐसा नहीं होगा.
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साल 2018 के पहले ट्वीट में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान को दी जा रही सैन्य सहायता बंद करने की घोषणा की. इसका असर पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर कितना पड़ेगा उस पर विश्लेषकों की अलग-अलग राय है. पर्यवेक्षकों के मुताबिक, अमेरिकी रोक का असर पाकिस्तान की आर्थिक सेहत पर बेहद ही सीमित होगा. इनका मानना है कि इसका एक बड़ा कारण चीन हो सकता है. चीन, पाकिस्तान का बेहद ही करीबी नजर आता है. लेकिन पर्यवेक्षक यह भी मानते हैं कि अगर अमेरिका ने पाकिस्तान से अपना कर्ज वापस मांग लिया तब पड़ोसी देश के लिए समस्या गहरा सकती है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान पर आंतकवाद की उपेक्षा का आरोप लगाया था. साथ ही कहा था कि पाकिस्तान उन आतंकवादियों को अपने देश में पनाह देता है जिन्हें हम अफगानिस्तान में ढूंढ रहे हैं. इन्ही कारणों का हवाला देते हुए ट्रंप ने पाकिस्तान की मदद को रोकने की घोषणा की. पाकिस्तान के एक वरिष्ठ अधिकारी ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया कि अमेरिका के इस कदम के बाद, पाकिस्तान की तकरीबन 2 अरब डॉलर की फंडिंग दांव पर लग गई है.
क्या है अमेरिकी मदद का मतलब
साल 2018 की शुरुआत में अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पाकिस्तान को दी जाने वाली 25.5 करोड़ डॉलर की सैन्य मदद रोक दी. इसके पहले अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र के बजट में कटौती की. जानते हैं इस अमेरिकी मदद के बारे में.
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क्या है अमेरिकी मदद
अमेरिका की वर्तमान विदेशी सहायता प्रणाली को 1961 के विदेशी सहायता अधिनियम के तहत तैयार किया गया था. इसका मकसद दुनिया भर में अमेरिकी सरकार की ओर से उठाए गए सहायता प्रयासों को ठीक से लागू करना था. अमेरिका में इस मदद को "दुनिया के साथ संसाधन वितरण" कहा जाता है.
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किस क्षेत्र में दी जाती है
इस सहायता में केवल विदेशी सैन्य और रक्षा मदद ही शामिल नहीं होती बल्कि तकनीकी, शैक्षिक और अन्य सहयोग भी शामिल होता है. यह मदद विदेशी सरकारों, सैन्य बल, कारोबारी समूह या चैरिटेबल समूह मसलन संयुक्त राष्ट्र या अन्य गैर सरकारी संगठन को दी जा सकती है.
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कितनी मदद देता है अमेरिका
कुछ अध्ययनों के मुताबिक अमेरिका कुल संघीय बजट का 1.3 फीसदी हिस्सा बतौर मदद देता है. लेकिन मदद का आंकड़ा हर साल बदलता रहता है. जानकारों के मुताबिक द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं को बड़े स्तर पर मदद दी.
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कब हुआ मदद में इजाफा
1990 के दशक में ऐसी ही मदद सोवियत संघ को दी गई जो बाद में कम कर दी गई. 9/11 के हमलों के बाद मदद की सीमा बढ़ाई गई. विशेषज्ञों के मुताबिक जॉर्ज डब्ल्यू बुश द्वारा इराक और अफगानिस्तान में दी जाने वाली मदद और वैश्विक स्वास्थ्य कार्यक्रम के चलते इसमें बढ़ोत्तरी हुई.
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कैसे किया जाता है खर्च
साल 2015 के आंकड़ों मुताबिक, कुल मदद का 38 फीसदी हिस्सा दीर्घकालीन विकास सहायता के रूप में दिया जाता है. यह विश्व के उन गरीब देशों के दी जाती है जिनकी अर्थव्यवस्था तो कमजोर है ही साथ ही स्वास्थ्य मानकों में भी पिछड़े हुए हैं.
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संयुक्त राष्ट्र का हिस्सा
इसका 15 फीसदी हिस्सा विश्व बैंक और संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रम में भी जाता है. इसके अतिरिक्त 35 फीसदी हिस्सा सैन्य और सुरक्षा सहायता है, 16 फीसदी हिस्सा मानवीय मदद मसलन भूकंप, सूखा, युद्ध आदि और 11 फीसदी राजनीतिक मदद के रूप में शामिल है.
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कौन करता है मदद का प्रबंधन
अमेरिकी विदेशी सहायता के प्रबंधन में तकरीबन 21 एजेंसियां शामिल हैं. लेकिन 1961 के कानून मुताबिक अमेरिकी सरकार ने यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फॉर इंटररनेशनल डेवलपमेंट (यूएसएआईडी) बनाई. यह एक एक अर्ध-स्वतंत्र एजेंसी है जो राष्ट्रपति, आंतरिक मंत्रालय और राष्ट्रीय सुरक्षा काउंसिल के निर्देशों के तहत काम करती है. हालांकि इसके अलावा तमाम अन्य एजेंसियां भी विदेशों में दी जाने वाली मदद का प्रबंधन करती हैं.
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किन देशों को मिलती हैं मदद
दुनिया के 200 से भी ज्यादा देशों को अमेरिका मदद देता है. साल 2015 के आंकड़ों मुताबिक, सबसे अधिक मदद पाने मुख्य देश हैं, अफगानिस्तान, इस्राएल, इराक, मिस्र और जॉर्डन. वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट मुताबिक अफगानिस्तान को मदद का बड़ा हिस्सा सुरक्षा कारणों से मिलता है, वहीं इस्राएल को सैन्य मदद दी जाती है. मिस्र और इराक को भी सुरक्षा के लिहाज से दी मदद दी जाती है.
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अफ्रीका भी सूची में
अमेरिका से विकास के लिए जिन देशों को मदद मिलती है उनमें शीर्ष 10 में अफ्रीकी देश आते हैं. कुछ हिस्सा संयुक्त राष्ट्र और अन्य संस्थाओं को भी जाता है.
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कितना बड़ा दानी है अमेरिका
विदेशियों को मदद से लिहाज से देखा जाए तो अमेरिका सबसे बड़ा दानी है. इसके बाद दूसरे स्थान पर ब्रिटेन और तीसरे पर जर्मनी, चौथे पर फ्रांस और पांचवे पर जापान का नंबर आता है.
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सूत्रों के मुताबिक पिछले कुछ सालों में अमेरिकी मदद में की जा रही कटौती के बावजूद पाकिस्तान की आर्थिक सेहत पर चीन के चलते कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ा. सूत्रों की मानें तो हाल के कदमों का नकारात्मक असर, मार्जिनल या बेहद ही कम समय तक परेशान करने वाला रहेगा. पाकिस्तानी उच्च अधिकारी के मुताबिक, "देश को अर्थव्यवस्था के मुकाबले मिलने वाली आर्थिक मदद कोई बहुत बड़ी नहीं है. इसका मतलब है कि दबाव सीमित है."
पाकिस्तान के पूर्व वित्त मंत्री हफीज पाशा ने बताया कि साल 2001 में, अफगानिस्तान में अमेरिकी कार्रवाई शुरू होने के बाद, देश को मिलने वाली मदद में इजाफा हुआ था. उन्होंने बताया, "साल 2010 में पाकिस्तान को अमेरिका ने 3-4 अरब डॉलर तक की मदद पहुंचाई. लेकिन इसके बाद से मदद में भारी गिरावट देखी गई और साल 2017 के दौरान यह गिरकर 75 करोड़ डॉलर पर आ गई." पाशा कहते हैं कि अगर इस आंकड़े की अर्थव्यवस्था के आकार से तुलना की जाए तो यह बेहद ही छोटा नजर आता है.
वॉशिंगटन के हथियार
सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा भंडार वाले देश
आर्थिक विकास और मुद्रा संकट की घड़ी में विदेशी मुद्रा भंडार बहुत काम आता है. इसके बूते देशों की साख तय होती है, अंतरराष्ट्रीय कर्ज की अदायगी होती है.
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10. यूरोजोन
344 अरब डॉलर
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9. ब्राजील
360 अरब डॉलर
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8. दक्षिण कोरिया
370 अरब डॉलर
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7. भारत
386 अरब डॉलर
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6. हॉन्ग कॉन्ग
393 अरब डॉलर
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5. ताईवान
441 अरब डॉलर
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4. सऊदी अरब
489 अरब डॉलर
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3. स्विट्जरलैंड
773 अरब डॉलर
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2. जापान
1188 अरब डॉलर
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1. चीन
3081 अरब डॉलर
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उधर अमेरिकी अधिकारियों ने भी समाचार एजेंसी एएफपी से बातचीत में पाकिस्तान के खिलाफ उठाए जा सकने वाले अन्य कदमों की ओर इशारा किया. मसलन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से दिए जाने वाला उधार.
विश्व बैंक के वरिष्ठ अर्थशास्त्री मोहम्मद वहीद के मुताबिक, "पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था फिलहाल स्थिर है और बढ़ रही है." उन्होंने कहा कि इस बीच पाकिस्तान को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उसे विश्व बैंक, आईएमएफ और एशियाई विकास बैंक की ओर से पैसा मुहैया कराया जाता है. ये सभी वे संस्थाएं हैं जिन्हें अमेरिका से पैसा मिलता है. वहीद के मुताबिक फिलहाल पाकिस्तान के सामने ढांचागत समस्याएं है मसलन कर राजस्व में कमी, व्यापार घाटे की वृद्धि. उन्होंने कहा कि सरकार को इन समस्याओं पर जल्द ही काबू पाना होगा.
विश्लेषकों की राय में पाकिस्तान के विदेशी मुद्रा भंडार में लगातार कमी आ रही है और ऐसे में अगर देश आर्थिक मोर्चे पर वृद्धि करना चाहता है तो उसे अन्य देशों से पूंजी उधार लेनी होगी. रक्षा विश्लेषक रहीमुल्ला यूसुफजई को लगता है कि अमेरिका संयुक्त राष्ट्र, आईएमएफ, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक आदि में अपने रसूख का इस्तेमाल पाकिस्तान के खिलाफ कर सकता है.
चीन का साथ
पाकिस्तान की आर्थिक सलाहकारी परिषद में अर्थशास्त्री अशफाक हसन ने कहा, "पाकिस्तान को अमेरिका के साथ की जरूरत है, क्योंकि अमेरिका दुनिया की इन बड़ी संस्थाओं में बड़ा हिस्सा रखता है." हसन ने साल 1998 में पाकिस्तान पर आईएमएफ की ओर से लगाए गए 2 करोड़ डॉलर के जुर्माने का भी जिक्र किया. लेकिन अमेरिका के 9/11 हमलों के बाद आईएमएफ ने पाकिस्तान को तकरीबन 13.5 करोड़ डॉलर की राशि जारी की थी. क्योंकि उस वक्त पाकिस्तान, अफगानिस्तान में तालिबान और अल कायदा के खिलाफ छेड़ी गई अमेरिकी सैन्य कार्रवाई में साझेदार था. लेकिन, अब पाकिस्तानी अधिकारी चीन के साथ अपनी दोस्ती पर अधिक भरोसा दिखा रहे हैं.
पाकिस्तानी नेता मुशाहिद हुसैन सईद ने चीन की ओर इशारा कर कहा कि अगर अमेरिका हमें डराता है, धमकाता है या हम पर आरोप लगाता है तो हमारे पास और भी विकल्प है. सईद ने कहा मदद बंद कर देना एक नाकाम फॉर्मूला है.
भारत के अलावा और कहां कहां चलता है रुपया
रुपया सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि कई और भी देशों की मु्द्रा है. हालांकि इनमें हर देश के रुपये की कीमत डॉ़लर के मुकाबले अलग अलग है. चलिए डालते हैं ऐसे ही देशों पर एक नजर.
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भारत
रुपया शब्द संस्कृत के रूप्यकम् शब्द से निकला है जिसका अर्थ होता है चांदी का सिक्का. रुपये का इतिहास सदियों पुराना है. आजादी के पहले तक अंग्रेज सरकार के रुपया के अलावा कई रियासतों की अपनी मुद्राएं थी. जैसे हैदराबादी रुयया, त्रावणकोर रुपया या फिर कच्छ कोरी. लेकिन 1947 में आजादी मिलने के बाद पूरे देश में एक मुद्रा लागू की गयी.
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पाकिस्तान
बंटवारे के बाद पाकिस्तान ने शुरू में ब्रिटिश इंडिया के नोट और सिक्के ही इस्तेमाल किये थे, बस उन पर पाकिस्तान की मुहर लगा दी थी. 1948 से पाकिस्तान में नये नोट और सिक्के बनने लगे. भारत में जिस तरह नोटों पर महात्मा गांधी की तस्वीर होती है, वहीं पाकिस्तान में देश के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना हर नोट पर दिखते हैं.
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श्रीलंका
श्रीलंका की मुद्रा का नाम भी रुपया ही है. 1825 में ब्रिटिश पाउंड श्रीलंका की आधिकारिक मुद्रा बना. इससे पहले वहां सीलोनीज रिक्सडॉलर नाम की मुद्रा चलती थी. अंग्रेजी राज में दशकों तक ब्रिटिश पाउंड श्रीलंका की मुद्रा बना रहा जिसे उस वक्त सीलोन कहा जाता है. लेकिन 1 जनवरी 1872 को वहां रुपया को आधिकारिक मुद्रा के तौर पर अपनाया गया.
भारत के पड़ोसी देश नेपाल में 1932 में रुपया को आधिकारिक मुद्रा बनाया गया. इससे पहले वहां चांदी की मुहर चलती थी. शुरु में नेपाली भाषा में रुपये को भी मोहर कहा जाता था. नेपाल का केंद्रीय बैंक नेपाल राष्ट्र बैंक देश की मुद्रा को नियंत्रित करता है. नेपाल में सबसे बड़ा नोट एक हजार रुपये का होता है.
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मॉरिशस
मॉरिशस में पहली बार 1877 में नोट छापे गये थे. शुरू में वहां पांच, दस और 50 रुपये के नोट छाप गये. 1919 में एक रुपये के नोट भी छापे जाने लगे. मॉरिशस में बड़ी संख्या में भारतीय मूल के लोग बस हैं. इसीलिए किसी भी नोट पर उसका मूल्य भोजपुरी और तमिल भाषा में भी दर्ज होता है.
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इंडोनेशिया
इंडोनेशिया की मुद्रा रुपियाह है जिसका मूल रुपया या रूप्य ही है. अनाधिकारिक रूप से इंडोनेशिया में रुपियाह के लिए पेराक शब्द का इस्तेमाल भी होता है जिसका मतलब स्थानीय भाषा में चांदी होता है. डॉलर के मुकाबले कम कीमत होने की वजह से इंडोनेशिया में बड़े नोटों का चलन है. वहां सबसे बड़ा नोट एक लाख रुपियाह का है.
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सेशल्स
हिंद महासागर में बसे देश सेशल्स की मुद्रा भी रुपया ही है. 1914 में वहां सबसे पहले रुपये के नोट और सिक्के छापे गये थे. सेशेल्स भी पहले ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन था. 1976 में उसे आजादी मिली. समंदर में बसा यह देश अपनी खूबसूरती के कारण दुनिया भर के सैलानियों को अपनी तरफ खींचता है.