अमेरिकी बंदी से चिंता में दुनिया
५ अक्टूबर २०१३इनमें से सारे कारण भले ही अमेरिकी विदेश नीति से सीधे न जुड़े हों लेकिन अगर इन्हें एक साथ ले लिया जाए तो यह सहयोगी देशों को संदेश देने के लिए काफी है कि अमेरिका अपने आर्थिक मसलों को सुलझाने में पहले जितना दृढ़ नहीं रहा. अमेरिका की घबराहट देख दुनिया की राजधानियों में असहजता बढ़ती जा रही है.
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के अपना एशिया दौरा रद्द करने से चिंता और गहरी हो रही है. ओबामा ने अमेरिका में ही रह कर पहले सरकारी कामबंदी और कर्ज लेने की सीमा को ना बढ़ाने की आशंका से निबटने का फैसला किया है. अगर यह सीमा नहीं बढ़ी तो अमेरिका कर्ज की किश्त चुकाने में नाकाम हो जाएगा. इतिहास में पहली बार ऐसा होगा.
ताईवान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों के लिए अमेरिका अब भी सुरक्षा स्तंभ है जो उनके लिए चीन के खिलाफ एक छतरी की तरह है. इसी तरह मध्यपूर्व में इस्राएल और अल कायदा या ईरान के कारण खुद को मुश्किल में घिरा पाने वाले अरब देशों की सुरक्षा गारंटी भी अमेरिका ही है. नेताओं और राजनयिकों से बातचीत बता रही है कि अमेरिका पर भरोसा डगमगा रहा है. ऑस्ट्रेलिया की नेशनल यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विशेषज्ञ माइकल मैकिनले कहते हैं, "अमेरिकी सरकार का लकवा, जहां संसद ने पूरे देश को बंधक बना रखा है, वास्तव में अमेरिकी के अंतरराष्ट्रीय नेता होने के दावे की खिल्ली उड़ा रहा है."
अमेरिका के राजनीतिक संकट और बड़ी आर्थिक दिक्कतों को बीच सरकार की कामबंदी और कर्ज न चुकाने की नौबत की आशंका ने पूरे यूरोप में सिहरन पैदा की है. यूरोपीय सेंट्रल बैंक के प्रमुख मारियो द्राघी 2008 की मंदी से उबरने की कोशिश में लगे महादेश के बारे में चिंता में पड़ गए हैं. द्राघी ने एक न्यूज कांफ्रेंस में कहा, "हम संकट से उबरी स्थिति को कमजोर, नाजुक और असमान देख रहे हैं." जर्मनी के प्रमुख अखबार जुडडायच त्साइटुंक ने भी अमेरिकी अव्यवस्था पर लिखा है, "इस वक्त अमेरिका अपने बजट पर संघर्ष कर रहा है और कोई नहीं जानता कि यह तीन हफ्तों में कर्ज चुकाने लायक रहेगा या नही, हालांकि एक बात साफ है कि अमेरिका राजनीतिक रूप से दिवालिया हो चुका है."
ओबामा खुद को सरकार की अव्यवस्था और विदेश नीति की चुनौतियों के बीच फंसा हुआ देख रहे हैं. इराक में लोकतंत्र बहाल करने की लंबी, क्रूर और मौटे तौर पर नाकाम कोशिश के बाद अरब वसंत से मध्यपूर्व में आए झंझावातों में घिरे हुए हैं. अफगानिस्तान में दशक भर की जंग के बाद भी नजर नहीं आती जीत उनके पांवों में बेड़ियां डाल रही है. वह एक ऐसे देश का नेतृत्व कर रहे हैं जहां लोग और ज्यादा सैन्य कार्रवाई नहीं चाहते. यूरोप आर्थिक चिंता से परेशान है तो अमेरिका के एशियाई सहयोगी सैन्य संतुलन की कोशिशों में अमेरिका के हल्के होने से चीन के बढ़ते कद की आशंका से डरे हैं.
सैन्य मामलों के जानकार एंथनी कॉर्ड्समैन कहते हैं, "मेरे ख्याल में अमेरिका को लेकर चिंता बहुत है. यह सिर्फ सीरिया से नहीं उभरा है. मिस्र में घटनाओं की शुरुआत से ही अमेरिका की जो प्रतिक्रिया रही है उसने खाड़ी और अरब देशों में बहुत चिंता पैदा की." 2011 में जब मिस्र के शासक होस्नी मुबारक की सत्ता हिलने पर अमेरिका ने मुंह मोड़ लिया तभी से खाड़ी के शासक और प्रिंस हिले हुए हैं.
अब सीरिया में बशर अल असद के साथ शुरू हुई कूटनीति एक बार फिर अरब शासकों को परेशान कर रही है. सीरिया के विद्रोहियों को सऊदी अरब, कतर और दूसरे खाड़ी देशों से ही बड़ी आर्थिक और सैन्य मदद मिल रही है. अमेरिका ने पहले कहा कि असद को सत्ता से हटना होगा लेकिन अब रूस के साथ मिल कर कूटनीतिक प्रक्रिया में जुटा है. मतलब साफ है कि असद सत्ता में फिलहाल और आगे भी बने रहेंगे. सीरियाई विद्रोहियों का कहना है कि उन्हें ऐसा महसूस हो रहा है कि अमेरिकियों ने उन्हें छोड़ दिया है. उनका यह भी कहना है कि ओबामा के लिए अब उनके मन में भरोसा और सम्मान खत्म हो गया है.
बात यहीं खत्म नहीं होती, ईरान के साथ उसके संदिग्ध परमाणु कार्यक्रम पर बातचीत शुरू होने पर इस्राएली प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहु ने संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में कहा कि उनका देश ईरान को परमाणु बम बनाने से रोकने पर अकेले ही कदम उठाने को तैयार है. नेतन्याहु ने साफ साफ कहा कि वो कूटनीति के लिए थोड़ा वक्त रुक सकते हैं लेकिन ज्यादा नहीं. इस्राएल यह कह चुका है कि ईरान ने बम बनाने की तैयारियों के लिए और वक्त हासिल करने के लिए बातचीत की राह पकड़ी है.
अमेरिका के प्रमुख सहयोगी ऑस्ट्रेलिया और जापान जैसे देश भी वहां आए ठहराव से परेशान है. तमाम राजनीतिक, आर्थिक, सैन्य परेशानियों अपना कसाव बढ़ा रही हैं और अमेरिका थमा हुआ है.
एनआर/आईबी(एपी)