अमेरिकी सेना हटने से अफगानिस्तान में गृह युद्ध की आशंका
२६ अगस्त २०१९
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप अफगानिस्तान में 18 साल से चले रहे संघर्ष को खत्म करना और वहां से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाना चाहते हैं. अमेरिका में 11 सितंबर 2001 को हुए हमले के बाद इस संघर्ष की शुरुआत हुई थी.
विज्ञापन
अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत में अफगानिस्तान से विदेशी सैनिकों को हटाने पर जोर दिया जा रहा है. लेकिन तालिबान के सूत्रों का कहना है कि इस समझौते का मतलब यह नहीं है कि अमेरिका समर्थित अफगान सरकार के साथ उनकी लड़ाई समाप्त हो जाएगी.
अमेरिका और तालिबान के अधिकारी पिछले साल से कतर में बातचीत कर रहे हैं. बातचीत का मकसद अफगानिस्तान से अमेरिकी सुरक्षाबलों की वापसी सुनिश्चित करना और लंबे समय से चल रहे संघर्ष का अंत है. हालांकि, इसके बदले में तालिबान को यह गारंटी देनी होगी कि यह अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी समूह अफगानिस्तान की धरती से कोई साजिश नहीं रचेगा.
अमेरिकी वार्ताकार तालिबान पर दबाव डाल रहे हैं कि वह काबुल सरकार के साथ तथाकथित अफगान आंतरिक वार्ता और संघर्ष विराम के लिए सहमत हो. लेकिन तालिबान के एक वरिष्ठ अधिकारी का कहना है कि ऐसा नहीं होगा. नाम न बताने की शर्त पर तालिबान कमांडर ने कहा, "हम अफगान सरकार के खिलाफ संघर्ष जारी रखेंगे और ताकत के बल पर सत्ता को हासिल करेंगे."
अमेरिकी सरकार करीब 18 साल से चले आ रहे संघर्ष को जल्द से जल्द समाप्त करना चाहती है, लेकिन अफगान अधिकारियों और अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सहयोगियों को आशंका है कि विदेशी सेना की वापसी के बाद अफगानिस्तान में एक नया गृह युद्ध शुरू हो सकता है. इससे तालिबान की सत्ता में वापसी हो सकती है और वहां इस्लामिक स्टेट समेत अन्य अंतरराष्ट्रीय चरमपंथियों को शरण मिल सकती है.
एक अन्य तालिबानी कमांडर ने कहा कि अगले एक सप्ताह में एक समझौते पर हस्ताक्षर हो सकते हैं. इस समझौते के तहत अमेरिकी सेना तालिबान पर हमले बंद कर देगी और तालिबान चरमपंथी अमेरिकी सैनिकों के खिलाफ अपनी लड़ाई समाप्त कर देंगे. तालिबानी कमांडर ने यह भी कहा कि इस समझौते के तहत अमेरिका अफगान सरकार को सहायता करना भी बंद करेगी. उसने कहा, "हमारे और अफगान सरकार के बीच संघर्ष में अमेरिका और उसकी सेना सरकार के समर्थन में नहीं आएगी." इस बीच वार्ता में शामिल अमेरिकी अधिकारियों की तरफ से इस बारे में कोई बयान नहीं मिल पाया है.
क्या कभी सुधरेगा अफगानिस्तान का हाल
पिछले 19 साल से अफगानिस्तान में अमेरिका का दखल बना हुआ है. लेकिन अब भी देश कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ कमजोर नजर आता है. हाल के आत्मघाती हमले और बम धमाके देश में आतंकवादी गुटों की मजबूत पकड़ को बयां करते हैं.
तस्वीर: picture alliance/Photoshot
चरमराती सुरक्षा व्यवस्था
पिछले कई महीनों से अफगानिस्तान कभी बम धमाके तो कभी आत्मघाती हमलों के चलते सुर्खियां बटोर रहा है. अब तक इसमें कई सौ बेकसूर अफगान लोगों की जान जा चुकी है. लेकिन देश की सुरक्षा व्यवस्था सुधरने का नाम ही नहीं ले रही. इन हमलों ने स्थानीय लोगों में निराशा भर दी है. वहीं सरकार भी सुरक्षा के मसले पर विफल साबित हो रही है.
तस्वीर: Reuters/M. Ismail
लगातार हो रहे हमले
लगातार हो रहे इन हमलों ने एक बार फिर अफगानिस्तान को दुनिया की निगाहों में ला दिया है. आतंकवादी गुट तालिबान और इस्लामिक स्टेट (आईएस) समय-समय पर इन हमलों की जिम्मेदारी लेते रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ अफगानिस्तान सरकार पर भी दबाव है कि वह तालिबान और आईएस के कब्जे वाले इलाकों में अपना शासन कायम कर सके.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Hossaini
आक्रामक नीति
हाल में ही तालिबान ने अफगानिस्तान के भीतर बेहद ही आक्रामक नीति अपनाने की घोषणा की. साथ ही राष्ट्रपति के साथ शांति वार्ता के प्रस्ताव को भी सिरे से खारिज कर दिया. आतंकवादी गुट अफगानिस्तान में सख्त इस्लामिक कानूनों को लागू करने के पक्षधर हैं. उनका आक्रामक कैंपेन अमेरिका की कड़ी सैन्य रणनीतियों का उत्तर है.
तस्वीर: Reuters
ट्रंप की अफगान नीति
अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने पिछले साल अफगानिस्तान के लिए नई रणनीति तय की थी. इसके तहत अफगान सुरक्षा बलों के प्रशिक्षण और मदद के लिए 11000 अतिरिक्त शीर्ष अमेरिकी सैनिकों की तैनाती की बात कही गई थी. इसके साथ ही ट्रंप ने तालिबान के खिलाफ लड़ाई में अफगान सैनिकों को समर्थन देने की प्रतिबद्धता जताई थी. साथ ही यह भी कहा था कि अफगानिस्तान में जरूरत के मुताबिक अमेरिका की उपस्थिति बनी रहेगी.
तस्वीर: Getty Images/AFP/B. Smialowski
अफगान शांति प्रक्रिया
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने इस साल फरवरी में तालिबान के सामने शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा था. लेकिन तालिबान ने इस ओर कोई रुचि नहीं दिखाई. और, इसे एक षड्यंत्र कहकर खारिज कर दिया. विशेषज्ञों के मुताबिक कोई भी आतंकी समूह उस वक्त बातचीत में शामिल नहीं होगा जब जमीन पर उसकी पकड़ मजबूत बनी हुई हो.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Shirzad
पाकिस्तान की भूमिका
अफगानिस्तान के धमाके, पाकिस्तान पर भी दबाव बढ़ा रहे हैं. अफगानिस्तान और अमेरिका दोनों ही पाकिस्तान पर आतंकियों को आश्रय देने का आरोप लगाते रहे हैं. लेकिन पाकिस्तान लगातार इन आरोपों का खंडन करता रहा है.
तस्वीर: DW/H. Hamraz
तालिबान के इतर
तालिबान के अलावा अफगान लड़ाकों के सरदारों की भी देश की राजनीति में अहम भूमिका है. पिछले साल, हिज्ब-ए-इस्लामी के नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार 20 साल देश से बाहर रहने के बाद अफगान राजनीति में वापस लौ़टे हैं. साल 2016 में अफगान सरकार ने हिकमतयार के साथ इस उम्मीद के साथ समझौता किया था कि ये समूह काबुल के साथ बेहतर संबंध रखेंगे.
तस्वीर: Reuters/O.Sobhani
असक्षम सरकार
अफगानिस्तान में सत्ता के लिए जारी इस लड़ाई का असर राष्ट्रपति की कुर्सी पर भी हो रहा है. मौजूदा राष्ट्रपति अशरफ गनी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता जनता के बीच लगातार घट रही है. वहीं अफगान सरकार में बढ़ते भ्रष्टाचार और भीतरी खींचतान के चलते भी आतंकवाद के खिलाफ सरकार की मुहिम कमजोर पड़ी है.
तस्वीर: Reuters/K. Pempel
8 तस्वीरें1 | 8
अफगानिस्तान में समझौते के लिए प्रयास कर रहे विशेष अमेरिकी दूत जाल्मे खलीलजाद तालिबान पर सरकार के साथ सत्ता साझेदारी वार्ता और संघर्ष विराम के लिए दबाव बना रहे हैं. अक्टूबर 2001 में जब से तालिबान को सत्ता से बेदखल किया गया है, वे तभी विदेशी सेनाओं को बाहर निकालने और अपना कट्टरपंथी शासन कायम करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. वह अफगान सरकार से बात करने को तैयार नहीं हैं. वे उसे अमेरिका की कठपुतली बताते हैं.
चरमपंथियों के नियंत्रण में अब 2001 की तुलना में ज्यादा क्षेत्र है. लड़ाई में नागरिकों के साथ-साथ काफी संख्या में लड़ाके भी मारे जा रहे हैं. वर्तमान में करीब 14 हजार अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में तैनात हैं. ये अफगान सैनिकों को प्रशिक्षण दे रहे हैं और चरमपंथियों के हमलों पर जवाबी कार्रवाई भी कर रहे हैं. वहीं नाटो और अन्य सहयोगियों के करीब छह हजार सैनिक भी अफगान सैनिकों की मदद कर रहे हैं.
एक साल से हो रही बातचीत के बावजूद संघर्ष में कमी नहीं आई है. एक अमेरिकी अधिकारी ने बताया कि अमेरिकी सेना अफगानिस्तान के सुरक्षाकर्मियों के साथ मिलकर तालिबान और इस्लामिक स्टेट के ठिकानों को ध्वस्त कर रही है. कतर में नौ दौर की वार्ता हो चुकी है. वार्ता से जुड़े सूत्रों को उम्मीद है कि इस सप्ताह के आखिर तक समझौते को अंतिम रूप दिया जा सकता है. अमेरिका अपने आधे सैनिकों को वापस बुला सकता है. उनका कहना है कि तालिबान और अफगान सेनाओं के बीच संघर्ष खत्म करने पर अलग से बात करनी होगी.
अफगानिस्तान को आजाद हुए 100 साल हो गए हैं. लेकिन यह एक पूरी सदी अफगानिस्तान को तबाही और बर्बादी के सिवाय कुछ नहीं दे पाई. जानिए इन सौ सालों में क्या हुआ.
तस्वीर: Getty Images/S. Marai
1919
तीसरे एंग्लो अफगान युद्ध के बाद अमानुल्लाह खान ने ब्रिटेन से आजादी की घोषणा की और खुद अफगानिस्तान की कमान संभाली. उन्होंने कई सामाजिक सुधार लागू करने की कोशिश की, जिनका काफी विरोध हुआ और आखिरकार उन्हें देश छोड़कर भागना पड़ा. (फोटो सांकेतिक है)
तस्वीर: Getty Images/AFP/M. Kiran
1933
जहीर शाह अफगानिस्तान के राजा बने और अगले चार दशक तक अफगानिस्तान में राजशाही रही. दूसरे विश्व युद्ध के बाद अफगानिस्तान को सोवियत संघ से आर्थिक और सैन्य मदद मिली. इस दौरान, पर्दा प्रथा को खत्म करने जैसे कई सामाजिक सुधार भी हुए.
तस्वीर: picture-alliance/CPA Media Co. Ltd
1963
दस साल तक प्रधानमंत्री रहने वाले जनरल मोहम्मद दाऊद को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया. इसके अगले साल 1964 में अफगानिस्तान में संवैधानिक राजशाही लागू की गई. लेकिन इससे देश में राजनीतिक ध्रुवीकरण और सत्ता संघर्ष की शुरुआत हो गई.
तस्वीर: AP
1973
मोहम्मद दाऊद ने जहीर शाह का तख्ता पलटा और अफगानिस्तान को एक गणतंत्र घोषित किया. वह अफगानिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने. उन्होंने सोवियत संघ को पश्चिमी ताकतों से भिड़ाने की कोशिश भी की.
तस्वीर: gemeinfrei
1978
एक सोवियत समर्थित तख्तापलट में जनरल दाऊद की हत्या कर दी जाती है. पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी सत्ता में आती है, लेकिन अंदरूनी हिंसा के चलते वह कुछ कर नहीं पाती है. उसे अमेरिका समर्थित मुजाहिदीन गुटों की तरफ से भी काफी विरोध झेलना पड़ रहा था.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
1979
दिसंबर के महीने में सोवियत सेना अफगानिस्तान पर हमला करती है और वहां एक कम्युनिस्ट सरकार को सत्ता में बैठाती है. बाबराक कारमाल को देश की बागडोर मिलती है. लेकिन सोवियत बलों से लड़ने वाले मुजाहिदीन गुटों की चुनौतियां बढ़ने लगीं. अमेरिका, पाकिस्तान, चीन, ईरान और सऊदी अरब ने मुजाहिदीन को पैसा और हथियार दिए.
तस्वीर: AFP/Getty Images
1985
मुजाहिदीन गुटों ने पाकिस्तान में आकर सोवियत बलों के खिलाफ एक गठबंधन बनाया. युद्ध की वजह से आधी अफगान आबादी विस्थापित हो गई. बहुत से लोग जान बचाने के लिए पड़ोसी ईरान और पाकिस्तान जैसे देशों में भाग गए.
तस्वीर: picture-alliance/CPA Media Co.
1986
अमेरिकी ने मुजाहिदीन को स्टिंगर मिसाइलें देनी शुरू कर दी, जिनके जरिए वे सोवियत हेलीकॉप्टर गनशिपों को मार गिरा सकते थे. इसी साल बाबराक कमाल की जगह नजीबुल्लाह को सोवियत समर्थित सरकार का प्रमुख बनाया गया.
तस्वीर: Imago Images/Russian Look
1988
अफगानिस्तान, सोवियत संघ, अमेरिका और पाकिस्तान ने एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसके बाद सोवियत सैनिकों ने अफगानिस्तान से हटना शुरू कर दिया. 1989 में सोवियत सेना पूरी तरह वहां से हट गई, लेकिन गृह युद्ध जारी रहा क्योंकि मुजाहिदीन नजीबुल्लाह सरकार को हटाना चाहते थे.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
1992
नजीबुल्लाह को सत्ता से बेदखल कर दिया गया. दरअसल सोवियत संघ ने नजीबुल्लाह सरकार को सहायता देनी बंद कर दी थी जबकि मुजाहिदीन को लगातार पाकिस्तान की मदद मिल रही थी. लेकिन नजीबुल्लाह के हटने के बाद फिर गृह युद्ध शुरू हो गया जो कहीं ज्यादा खूनी और खतरनाक था.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/Vyacheslav
1996
तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया और देश में कट्टरपंथी इस्लामी शासन लागू किया. दफ्तरों में महिलाओं के काम करने पर रोक गई और इस्लामी सजाओं का चलन शुरू हो गया जिसमें पत्थर मार कर मौत के घाट उतारना या फिर शरीर का कोई अंग काट देना भी शामिल था.
तस्वीर: Getty Images/M. Saeedi
1997
पाकिस्तान और सऊदी अरब ने तालिबान की सरकार को मान्यता दी. अब अफगानिस्तान के दो तिहाई हिस्से पर उनका नियंत्रण था. अमेरिका ने 1998 में अल कायदा नेता ओसामा बिन के कुछ ठिकाने पर हमले किए, जो उसे अमेरिका में अपने दूतावासों पर हुए हमलों का जिम्मेदार मानता था.
तस्वीर: picture-alliance/dpa
2001
ये अफगानिस्तान के हालिया इतिहास का सबसे अहम साल है. 2001 में तालिबान के सबसे बड़े विरोधी नॉर्दन एलायंस के नेता अहमद शाह मसूद की हत्या की गई. इसी साल अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले हुए. इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और तालिबान को सत्ता से बेदखल किया. जर्मन शहर बॉन में हुए समझौते के तहत हामिद करजई को अंतरिम साझा सरकार की कमान सौंपी गई.
तस्वीर: Imago/ZUMA Press
2002
नाटो के नेतृत्व वाले अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहयोग बल (आईसैफ) की तैनाती हुई. इसी साल जहीर शाह अफगानिस्तान लौटे लेकिन उन्होंने सत्ता पर कोई दावा नहीं किया. इसी साल लोया जिरगा में हामिद करजई को अंतरिम राष्ट्र प्रमुख चुना गया, जो 2014 तक अफगानिस्तान के राष्ट्रपति रहे.
तस्वीर: picture-alliance/JOKER/T. Vog
2008
राष्ट्रपति करजई ने चेतावनी दी कि अगर पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में हमले करने वाले तालिबान चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं की, तो अफगान सैनिक उनसे निपटने के लिए पाकिस्तान की सीमा में दाखिल होंगे. इसी साल काबुल में मौजूद भारतीय दूतावास पर हमले में 50 से ज्यादा लोग मारे गए. सितंबर 2008 में अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने साढ़े चार हजार अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान भेजे.
तस्वीर: Johannes Eisele/AFP/Getty Images
2009
नाटो देशों ने अफगानिस्तान में 17 हजार सैनिक तैनात करने का संकल्प किया. दिसंबर 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने अफगानिस्तान में तीस हजार और सैनिक भेजने का एलान किया जिसके बाद वहां एक लाख अमेरिकी सैनिक हो गए. उन्होंने यह भी घोषणा की कि 2011 से अमेरिकी फौज अफगानिस्तान से हटना शुरू कर देगी.
तस्वीर: Getty Images/S. Marai
2012
नाटो शिखर सम्मेलन में 2014 तक विदेशी सैनिकों के युद्धक मिशन को खत्म करने का समर्थन किया गया. फ्रांस के राष्ट्रपति ने योजना से एक साल पहले 2012 तक ही अपने सैनिक हटा लेने की घोषणा की. इसी साल टोक्यो में दानदाता सम्मेलन में अफगानिस्तान को 16 अरब डॉलर की असैन्य मदद का वादा किया गया.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/EPA/J. Rezayee
2014
इस साल अशरफ गनी अफगानिस्तान के नए राष्ट्रपति बने. लेकिन यह साल काबुल में एक बड़े हमले का गवाह बना. राजनयिक इलाके में हुए हमले में 13 विदेशी नागरिक मारे गए. इनमें अफगानिस्तान के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख भी थे. इसी साल नाटो का 13 साल से चल रहा युद्धक मिशन भी खत्म हो गया.
तस्वीर: Getty Imaes/AFP/W. Kohsar
2015
अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने कहा कि राष्ट्रपति गनी के आग्रह पर कुछ देरी से अमेरिकी सैनिकों को हटाया जाएगा. इसी साल कतर में तालिबान के प्रतिनिधियों और अफगान सरकार के बीच पहली बार शांति वार्ता हुई. तालिबान बातचीत जारी रखने पर सहमत हुआ, लेकिन लड़ाई रोकने पर नहीं.
तथाकथित इस्लामिक चरमपंथी संगठन ने नंगरहार में तोरा बोरा के पहाड़ी इलाकों पर कब्जा कर लिया. कभी अल कायदा नेता ओसामा बिन इस ठिकाने को इस्तेमाल किया करता था. इसी साल अगस्त में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा कि वह तालिबान से लड़ने के लिए और फौजी अफगानिस्तान भेज रहे हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/T. Mustafa
2019
अफगानिस्तान अपनी आजादी के 100 साल बाद भी दुनिया के सबसे अशांत और गरीब देशों में शामिल है. तालिबान से शांति वार्ता जारी है. वहां रहने वाले लोगों के लिए हालात दयनीय बने हुए हैं. अब भी बहुत से लोग दूसरे देशों में शरण ले रहे हैं.