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अयोध्या: मीडिया पर हमले का वो दिन

५ दिसम्बर २०१२

एक समाचार पत्रिका के फोटोग्राफर के रूप में राजेन्द्र कुमार अयोध्या गए थे. 6 दिसंबर1992 को राम जन्म भूमि परिसर में. राजेन्द्र ने जैसे ही फोटो क्लिक करना चाही, कार सेवको ने उन पर धावा बोल दिया.

तस्वीर: DW/S. Waheed

पहले उनका कैमरा तोड़ा गया, उन्होंने दूसरा निकाला तो उसे भी तोड़ दिया और उन को घायल कर दिया. इस घटना में उनका एक जबड़ा बुरी तरह जख्मी हो गया थे जिसका करीब 6 महीने तक इलाज चला. अभी भी उन्हें बोलने में कुछ दिक्कत होती है.

उस दिन की घटना की जब जब याद आती है तो कैसा महसूस करते हैं....

कुछ घटनाएं कभी नहीं भूलती हैं और दिल के किसी कोने में घर बना लेती हैं. 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में राम जन्मभूमि परिसर का पूरा इलाका जिस नफरत, उन्माद और जूनन की गिरफ्त में था, इसकी एक-एक याद आज भी मेरे जहन में है. आज भी अयोध्या का वह विध्वंस शरीर में सिहरन पैदा कर देता है. उस दिन की यादें आज भी में मेरे जहन में चलती रहती है.

अयोध्या: जानिए कब क्या हुआ..

कैसे हुआ उस दिन ये सब, क्या घटना क्रम याद है.

ढांचे को इतनी जल्दी और इतने नियोजित ढंग से गिरा दिया जाएगा इसका अंदाज हमें सुबह नहीं था, मैं अपने साथियों के साथ मानस भवन की छत पर पहुंचा. वहां मौजूद विहिप कार्यकर्त्ताओ ने बताया कि लालकृष्ण आडवाणी सहित तमाम नेता रामकथा कुंज में दस बजे के करीब पहुंचेंगे. आप लोग यहां एकत्र हो गए जन सैलाब का फोटो लीजिये. कुछ देर बाद हम अपने दो साथियों के साथ करीब 50 मीटर दूर सीता रसोई की15 फुट ऊंची छत पर गए. वहां से देखा कि रामजन्म मंदिर के चबूतरे पर पूजा -अर्चना चल रही थी. करीब साढे दस बजे शेषावतार मंदिर के पास कारसेवकों ने उत्पात मचाना शुरू किया. ढांचे के पीछे भी कारसेवकों ने पत्थर बरसाना शुरू किया और देखते ही देखते सामने के मैदान में भगदड़ मच गई. मैं सीता रसोई की छत से नीचे उतरा और ढ़ांचे के उस ओर भागा जहां से कारसेवक ढ़ांचे पर पत्थर बरसा रहे थे. रामकथा कुंज में नेताओं के भाषण सुन रहे हजारों लोग भी उस तरफ आ गए. इन्हें देख पत्थर बरसा रहे कारसेवकों का हौसला बुलंद हुआ और वह लोग पत्थर बरसाते हुए ढांचे की तरफ भागे. पुलिस बल ने इन्हें रोकने का कोई प्रयास नहीं किया, फिर क्या था, कारसेवक ढांचे के गुबंद तक पहुंच गए और फिर ढांचे के गुबंद पर पहुंचने की होड़ सी लग गई और फोटोग्राफरों में फोटो खींचने की.

मार पीट और पत्रकारों को को खदेड़ने का सिलसिला कैसे शुरू हुआ .

अचानक केसरिया कपड़े पहने विहिप व भाजपा के कार्यकर्ता और कारसेवक फोटोग्राफरों को फोटो खींचने से रोकने लगे. क्यूंकि1990 में मस्जिद के गुम्बद पर चढ़े कारसेवकों के फोटो लगातार दो साल तक छपते रहे थे. इस बार ये लोग कोई सुबूत छोड़ना नहीं चाहते थे, इसीलिए फोटोग्राफरों को रोक रहे थे. लेकिन कोई रुका नहीं तो मारपीट शुरू कर दी. कैमरे तोड़ने लगे. मेरा भी कैमरा तोड़ डाला और कुछ कारसेवकों ने मुझे और मेरे साथियों को मारना शुरू कर दिया. पत्रकारों के साथ भी यही किया किया. विदेशी फोटोग्राफर और पत्रकार भी पिटते दिखाई दिए. दिन के करीब 12 बजे मैंने देखा कि रामजन्मभूमि मंदिर के आसपास न तो कोई पुलिसकर्मी मौजूद है और न ही कोई फोटोग्राफर.हर तरफ कारसेवक ही कारसेवक हैं और सब के सब विवादित ढांचे को तोड़ने में व्यस्त हैं.

तस्वीर: AFP/Getty Images

यानी पुलिस का एक तरह से सहयोग रहा कारसेवकों को

निश्चित रूप से

इस घटना के बाद भी फोटो तो खींचे ही गए और ख़बरें भी बाहर आईं .

देखिये मार पीट, उपद्रव हिंसा और दहशत. अरे दहशत तो इतनी थी कि रघु राय जैसे फोटोग्राफर ज़मीन पर पड़े अपने किट बैग को उठा नहीं पा रहे थे जबकि वो उनके एकदम पास में ही पड़ा था. हर तरफ अफरा तफरी और रास्ते बंद थे. महिला पत्रकारों के साथ भी अभद्रता की गई और पुलिस कुछ कर नहीं रही थी तो उस बीच किसी का कैमरा किसी के हाथ लगा और किसी की डायरी किसी के हाथ.जिसको जहां रास्ता मिला भाग लिया , उसी में कुछ लोग फैजाबाद निकल गए और फोटो-खबरें भेज दी.

क्या उस घटना को भूल पाने की कोशिश की

ये भुलाई ही नहीं जा सकती क्यूंकि जो कुछ हुआ वो कल्पना से परे था. आज समझ में आता है कि कैसे उन्माद भड़काया गया. स्वामी धर्मेन्द्र को मैंने सबसे उत्तेजक बातें कहते हुए सुना कि ढांचे के मलबे को वो बाबर की अस्थियां बता रहा था कि इन्हें ले जाइये , अब समझ में आता है कि अगर वो ये न कहते तो ढांचे का मलबा हटाने में काफी समय लगता और तत्काल वहां पर राम लला मंदिर बन नहीं पाता, तो काफी चीज़ें बाद में समझ में आईं.

प्रस्तुति: एस वहीद, लखनऊ

संपादनः अनवर जे अशरफ

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