येरुशलम को इस्रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के मुद्दे पर अरब देशों के राजदूतों ने भारत से अपनी स्थिति साफ करने को कहा है. भारत की चुप्पी क्या फलस्तीन के मुद्दे पर सरकार के "रुख में बदलाव" का संकेत है?
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राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने दशकों पुरानी अमेरिकी नीति को बदल कर येरुशलम को इस्रायल की राजधानी के रुप में मान्यता दे दी जिसे लेकर फलस्तीन में गुस्सा है. ट्रंप की अमेरिकी दूतावास को भी तेल अवीव से येरुशलम ले जाने की योजना है.
अमेरिका के सहयोगी ब्रिटेन और फ्रांस समेत दुनिया के तमाम देशों ने ट्रंप के फैसले की आलोचना की है लेकिन भारत ने अब तक किसी का पक्ष नहीं लिया है. इसकी बजाय भारत के विदेश मंत्रालय ने एक संक्षिप्त बयान जारी कर कहा कि भारत अपनी स्थिति पर कायम है और वह किसी भी तीसरे पक्ष से स्वतंत्र है. बयान में येरुशलम का कोई जिक्र नहीं था जिसके बाद घरेलू स्तर पर इसे अपर्याप्त, ढुलमुल और फलस्तीन विरोधी कहा गया.
इस्रायल का कहना है कि पूरा येरुशलम उसकी राजधानी है. फलस्तीनी पूर्वी येरुशलम को भविष्य के अपने स्वतंत्र राष्ट्र की राजधानी बनाना चाहते हैं. ट्रंप के फैसले ने उन्हें अलग थलग करने के साथ ही द्विराष्ट्र के सिद्धांत पर उनका देश बनने की उम्मीदों को भी ध्वस्त कर दिया है.
पिछले हफ्ते दिल्ली में सऊदी अरब समेत कई अरब देशों के राजदूतों ने विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर से मुलाकात कर अरब लीग की इस मुद्दे पर हुई बैठक के बारे में जानकारी दी. 9 दिसंबर को हुई बैठक में अमेरिका के फैसले की आलोचना की गई. राजदूतों ने भारत से इस मामले पर अपना रुख साफ करने को कहा. एमजे अकबर ने उन्हें कोई भरोसा नहीं दिया और सूत्रों का कहना है कि भारत सरकार फिलहाल येरुशलम पर कोई बयान नहीं देने जा रही है. नाम जाहिर ना करने की शर्त पर समाचार एजेंसी रॉयटर्स को एक राजनयिक ने बताया, "अकबर ने कोई वादा नहीं किया." अकबर के साथ बैठक में सऊदी अरब, मिस्र, सोमालिया और फलस्तीनी प्रशासन के राजदूत मौजूद थे. इसके अलावा इलाके के कई दूसरे देशों के राजदूत भी बैठक में शामिल थे.
भारत फलस्तीन का शुरुआती और मुखर समर्थक रहा है. गुटनिरपेक्ष आंदोलन के समय से ही उसने इस बात का समर्थन किया है हालांकि इसके साथ ही वह इस्रायल के साथ भी समझौते करता रहा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में भारत का रुख इस्रायल की तरफ झुकता जा रहा है. सरकार ने सैन्य सहयोग के साथ ही आंतरिक सुरक्षा के मामले में भी सहयोग पर से पर्दा उठा दिया है. इसी साल जुलाई में नरेंद्र मोदी इस्रायल के दौरे पर गए जो किसी भारतीय प्रधानमंत्री की यहां की पहली यात्रा थी. लेकिन मोदी फलीस्तीनी अथॉरिटी के मुख्यालय रामल्लाह नहीं गए. आमतौर पर दोनों पक्षों की तरफ संतुलन दिखान के लिए अंतरराष्ट्रीय नेता दोनों जगहों का दौरा करते हैं.
भारत इस्रायल संबंधों के विशेषज्ञ और जवाहर लाल नेहरु के प्रोफेसर पीआर कुमारस्वामी कहते हैं कि इस साल फलस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास के भारत दौरे के बाद से ही भारत के रूख में "बड़ा परिवर्तन" दिख रहा है. कुमारस्वामी ने कहा, "फलस्तीनी राष्ट्रपति के साथ खड़े प्रधानमंत्री मोदी ने फलस्तीन के साथ भारत का समर्थन जताया लेकिन इसके साथ ही बड़ी सावधानी से पूर्वी येरुशलम के बारे में कोई सीधी बात कहने से साफ बच गए."
इस्राएल के लिए आखिर क्यों इतना अहम है येरुशलम?
अमेरिका ने इस्राएल की राजधानी के रूप में येरुशलम को मान्यता दे दी. अमेरिका सहित कई देशों ने अपने दूतावास भी येरुशलम में शिफ्ट कर दिए हैं. येरुशलम ईसाई, यहूदी और इस्लाम धर्म का पवित्र शहर है.
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क्यों है झगड़ा
इस्राएल पूरे येरुशलम पर अपना दावा करता है. 1967 के युद्ध के दौरान इस्राएल ने येरुशलम के पूर्वी हिस्से पर कब्जा कर लिया था. वहीं फलस्तीनी लोग चाहते हैं कि जब भी फलस्तीन एक अलग देश बने तो पूर्वी येरुशलम ही उनकी राजधानी बने. यही परस्पर प्रतिद्वंद्वी दावे दशकों से खिंच रहे इस्राएली-फलस्तीनी विवाद की मुख्य जड़ है.
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जटिल मामला
विवाद मुख्य रूप से शहर के पूर्वी हिस्से को लेकर ही है जहां येरुशलम के सबसे महत्वपूर्ण यहूदी, ईसाई और मुस्लिम धार्मिक स्थल हैं. ऐसे में, येरुशलम के दर्जे से जुड़ा विवाद राजनीतिक ही नहीं बल्कि एक धार्मिक मामला भी है और शायद इसीलिए इतना जटिल भी है.
टेंपल माउंट या अल अक्सा मस्जिद
पहाड़ियों पर स्थित परिसर को यहूदी टेंपल माउंट कहते हैं और उनके लिए यह सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है. यहां हजारों साल पहले एक यहूदी मंदिर था जिसका जिक्र बाइबिल में भी है. लेकिन आज यहां पर अल अक्सा मस्जिद है जो इस्लाम में तीसरा सबसे अहम धार्मिक स्थल है.
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बातचीत पर जोर
पूरे येरुशलम पर इस्राएल का नियंत्रण है और यही से उसकी सरकार भी चलती है. लेकिन पूर्वी येरुशलम को अपने क्षेत्र में मिला लेने के इस्राएल के कदम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता नहीं मिली है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय चाहता है कि येरुशलम का दर्जा बातचीत के जरिए तय होना चाहिए. हालांकि सभी दूतावास तेल अवीव में हैं.
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इस्राएल की कोशिश
इस्राएल लंबे समय से येरुशलम को अपनी राजधानी के तौर पर मान्यता दिलाना की कोशिश कर रहा था. यहीं इस्राएली प्रधानमंत्री का निवास और कार्यालय है. इसके अलावा देश की संसद और सुप्रीम कोर्ट भी यहीं से चलती है और दुनिया भर के नेताओं को भी इस्राएली अधिकारियों से मिलने येरुशलम ही जाना पड़ता है.
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बाड़
येरुशलम के ज्यादातर हिस्से में यहूदी और फलस्तीनी बिना रोक टोक घूम सकते हैं. हालांकि एक दशक पहले इस्राएल ने शहर में कुछ अरब बस्तियों के बीच से गुजरने वाली एक बाड़ लगायी. इसके चलते हजारों फलस्तीनियों को शहर के मध्य तक पहुंचने के लिए भीड़ भाड़ वाले चेक पॉइंट से गुजरना पड़ता है.
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इस्राएली अमीर, फलीस्तीनी गरीब
शहर में रहने वाले इस्राएलियों और फलस्तीनियों के बीच आपस में बहुत कम संवाद होता है. यहूदी बस्तियां जहां बेहद संपन्न दिखती हैं, वहीं फलस्तीनी बस्तियों में गरीबी दिखायी देती है. शहर में रहने वाले तीन लाख से ज्यादा फलस्तीनियों के पास इस्राएल की नागरिकता नहीं है, वे सिर्फ 'निवासी' हैं.
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हिंसा का चक्र
इस्राएल और फलस्तीनियों के बीच बीते 20 वर्षों में हुई ज्यादातर हिंसा येरुशलम और वेस्ट बैंक में ही हुई है. 1996 में येरुशलम में दंगे हुए थे. 2000 में जब तत्कालीन इस्राएली प्रधानमंत्री एरिएल शेरोन टेंपल माउंट गये, तो भी हिंसा भड़क उठी.
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हालिया हिंसा
हाल के सालों में 2015 में एक के बाद एक चाकू से हमलों के मामले देखने को मिले. बताया जाता है कि टेंपल माउंट में आने वाले यहूदी लोगों की बढ़ती संख्या से नाराज चरमपंथियों ने इस हमलों को अंजाम दिया.
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कैमरों पर तनातनी
2016 में उस वक्त बड़ा विवाद हुआ जब इस्राएल ने अल अक्सा मस्जिद के पास सिक्योरिटी कैमरे लगाने की कोशिश की. फलस्तीनी बंदूकधारियों के हमलें में दो इस्राएली पुलिस अफसरों की मौत के बाद कैमरे लगाने का प्रयास किया था.
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नेतान्याहू के लिए?
तमाम विरोध के बावजूद जहां ट्रंप ने येरुशलम को इस्राएल की राजधानी के रूप में मान्यता देकर अपना चुनावी वादा निभाया है, वहीं शायद वह इस्राएल के प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतान्याहू को भी खुश करना चाहते थे. विश्व मंच पर नेतान्याहू ट्रंप के अहम समर्थक माने जाते हैं.
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कड़ा विरोध
अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अमेरिकी दूतावास को येरुशलम ले जाने की ट्रंप की योजना का विरोध किया. फलस्तीनी प्रधिकरण ने कहा है कि अमेरिका येरुशलम को इस्राएली की राजधानी के तौर पर मान्यता देता तो इससे न सिर्फ शांति प्रक्रिया की रही सही उम्मीदें भी खत्म हो जाएंगी, बल्कि इससे हिंसा का एक नया दौर भी शुरू हो सकता है.
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सऊदी अरब भी साथ नहीं
अमेरिका के अहम सहयोगी समझे जाने वाले सऊदी अरब ने भी ऐसे किसी कदम का विरोध किया है. वहीं 57 मुस्लिम देशों के संगठन इस्लामी सहयोग संगठन ने इसे 'नग्न आक्रामकता' बताया है. अरब लीग ने भी इस पर अपना कड़ा विरोध जताया है. [रिपोर्ट: एके/ओएसजे (एपी)]
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कुमारस्वामी का यह भी कहना है कि कई दशकों से भारत फलस्तीन राष्ट्र का समर्थन करते हुए पूर्वी येरुशलम को फलस्तीन की राजधानी बनाने की बात कहता रहा है. लेकिन अब वो ज्यादा संतुलित रुख अपना रहा है और इस बड़े विवाद में किसी भी पक्ष की तरफ नहीं जा रहा है.