आर्थिक और सामाजिक विशेषज्ञों ने चुनावों से ठीक पहले भारतीय अर्थव्यस्था से जुड़े डाटा पर सवाल उठाए हैं. जानकारों का कहना है कि सरकार ऐसे आंकड़ों के साथ छेड़छाड़ कर रही है जो सरकार के काम में कमियों को उजागर करते हैं.
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भारत और विश्व भर के 108 अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने भारत सरकार की ओर से पेश किए जा रहे इकोनॉमिक डाटा पर सवाल उठाए हैं. एक ओपन लेटर में इन्होंने कहा है कि जो भी सरकारी आर्थिक आंकड़े पेश किए जा रहे हैं, वे काफी हद तक सरकार से प्रभावित हैं. उनका मानना है कि इन आंकड़ों के पीछे कई राजनीतिक विचार काम कर रहे हैं.
इस पत्र में कहा गया है कि सरकार की उपलब्धि और उसके काम पर सवाल उठाने वाले मामूली से आंकड़ों को भी या तो दबा दिया जाता है या उसमें कोई संशोधन कर दिया जाता है. साल 2015 में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) ने इकोनॉमिक आउटपुट डाटा में आधार वर्ष को बदल दिया था, जिसके चलते वृद्धि दर में काफी तेजी नजर आई.
इस पत्र में साल 2016-17 में दर्ज की गई 8.2 फीसदी की संशोधित वृद्धि दर पर भी सवाल उठाए गए हैं. इस वृद्धि दर को इस दशक की सबसे ऊंची वृद्धि दर कहा गया है. हालांकि यह आंकड़ा अर्थशास्त्रियों के अनुमान से काफी अलग है. दरअसल यह वृद्धि दर उस वक्त की है जब मोदी सरकार की नोटबंदी की नीति के चलते तकरीबन 86 फीसदी नोट बैंकों में पहुंच गए थे और देश भर में कारोबारी हालात बिगड़ गए थे.
नोटबंदी के बाद साल 2017 में केंद्र सरकार ने देश भर में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के नए कानून को लागू कर दिया था, जिसके चलते कई क्षेत्रों को वापस पटरी पर आने में काफी वक्त लगा.
इस पत्र में रोजगार से जुड़े एक अहम सर्वे को जारी नहीं किए जाने पर भी बात की गई है. कहा गया है कि सर्वे में देरी के चलते सांख्यिकी कार्यालय के दो वरिष्ठ अधिकारियों ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था. मीडिया रिपोर्टों के अनुसार ये रिसर्च बताती है कि बेरोजगारी साल 1970 के बाद से अब तक के सबसे ऊंचे स्तर पर है. लेकिन सरकार के हिसाब से यह निष्कर्ष निकालना अभी संभव नहीं है.
रिपोर्ट में कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के सांख्यिकीय कार्यालयों की प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है. इससे भी ज्यादा गौर करने वाली बात है कि यही आंकड़े बाद में अर्थनीतियों को तय करने में मददगार होते हैं. साथ ही एक ईमानदार और लोकतांत्रिक संवाद का आधार बनते हैं. इस पत्र पर दस्तखत करने वालों में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के पॉल निहाउस, मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के अभिजीत बनर्जी समेत मैसाचुसेट्स यूनिवर्सिटी के श्रीपद मोतीराम जैसे वरिष्ठ अर्थशास्त्री शामिल हैं. अब तक भारत सरकार की ओर से इस पत्र पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी गई है.
भारतीय चुनाव: आखिर खर्चा कितना होता है?
भारत का जनमानस तय करेगा कि वह फिर पीएम नरेंद्र मोदी को बागडोर सौंपेगा या उसके मन में कुछ और है. जो भी हो, यहां पेश हैं भारतीय आम चुनाव के कुछ दिलचस्प आंकड़े.
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कितनी सीटें
आम चुनाव में लोकसभा की कुल 545 सीटों में से 543 पर चुनाव होता है. दो सीटों पर राष्ट्रपति एंग्लो इंडियन समुदाय के लोगों को नामांकित करते हैं. ये ऐसे यूरोपीय लोगों का समुदाय है जिन्होंने ब्रिटिश राज के दौरान भारतीय लोगों से शादी की और यहीं रह गए.
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कितने वोटर
पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान भारत में 83 करोड़ से ज्यादा वोटर थे, जो अमेरिका की आबादी का तीन गुना हैं. लेकिन इनमें से 66 प्रतिशत यानी 55.3 करोड़ लोगों ने ही अपना वोट डाला था.
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कितनी पार्टियां
पिछले आम चुनाव में कुल 8,251 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे और कुल पार्टियों की संख्या थी 460. भारत में चुनाव का सारा काम केंद्रीय चुनाव आयोग देखता है. दिल्ली में उसके मुख्यालय में तीन सौ से ज्यादा अधिकारी काम करते हैं.
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कितने उम्मीदवार
पिछले लोकसभा चुनाव के आंकड़ों के आधार पर देखें तो हर निर्वाचन क्षेत्र में औसतन 15 उम्मीदवार थे. चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं एक सीट पर सबसे ज्यादा 42 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे.
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कितने बूथ
चुनाव आयोग ने 2014 के चुनाव में कुल 9,27,553 मतदान केंद्र बनाए थे और हर केंद्र पर वोट डालने वालों की औसतन संख्या 900 थी. चुनाव आयोग के दिशानिर्देशों के अनुसार किसी भी वोटर के लिए मतदान केंद्र दो किलोमीटर से दूर नहीं होना चाहिए.
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कितने कर्मचारी
पिछले आम चुनाव के आंकड़े बताते हैं कि चुनावी प्रक्रिया को पूरा करने के लिए 50 लाख सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षाकर्मियों को तैनात किया गया था जो पैदल, सड़क मार्ग, ट्रेन, हेलीकॉप्टर, नौका या फिर कभी कभी हाथी पर चढ़ कर भी निर्वाचन क्षेत्रों तक पहुंचे थे.
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एक वोटर के लिए मतदान केंद्र
2009 के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग ने गुजरात में गीर के जंगलों में सिर्फ एक वोटर के लिए मतदान केंद्र बनाया था. यह जंगल एशियाई शेरों का अहम ठिकाना है और इसके लिए यह दुनिया भर में मशहूर है. (फोटो सांकेतिक है)
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मतदान और मतगणना
भारत के आम चुनाव कई चरणों में होता है और आम तौर पर इसमें एक महीने से ज्यादा का समय लगता है. लेकिन सभी सीटों पर वोटों की गिनती एक ही दिन होती है. पहले मतपत्रों की वजह से नतीजा आने में कई दिन लगते थे, लेकिन ईवीएम आने के बाद एक दिन में ही परिणाम आ जाते हैं.
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चुनाव का खर्च
भारत जैसे विशाल देश में चुनाव पर खर्चा भी बहुत आता है. केंद्रीय चुनाव आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2014 के आम चुनावों पर कुल 38.7 अरब रुपये यानी साढ़े पांच करोड़ अमेरिकी डॉलर खर्च हुए थे.
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ईवीएम
2014 के आम चुनाव में कुल 18 लाख ईवीएम मशीनें इस्तेमाल की गई थीं. ईवीएम से चुनाव प्रक्रिया आसान तो हुई है लेकिन कई विपक्षी पार्टियां यह कह कर इनकी आलोचना करती हैं कि ईवीएम से गड़बड़ी होती है. कई पार्टियां बैलेट के जरिए चुनाव की मांग करती हैं. लेकिन फिलहाल ऐसी संभावना नहीं दिखती है.