लंबे अरसे से जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे पूर्वोत्तर राज्य असम में अब राज्य कार्य योजना (स्टेट एक्शन प्लान आन क्लाइमेट चेंज) के जरिए इसके असर पर अंकुश लगाने की पहल हो रही है.
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असम सरकार ने अब सौर ऊर्जा नीति बनाने का भी फैसला किया है ताकि बिजली संयंत्रों से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कटौती की जा सके. पारिस्थितिकी जैवविविधता वाला क्षेत्र होने की वजह असम जलवायु में होने वाले बदलावों के प्रति बेहद संवेदनशील है.
जलवायु परिवर्तन की वजह से 1950 से 2010 के बीच राज्य का औसत तापमान सालाना 0.01 डिग्री सेल्शियस की दर से बढ़ा है जबकि बारिश घटी है. विशेषज्ञों का कहना है कि संयुक्त उपायों के जरिए इस पर अंकुश लगाना संभव है. विकास एजेंसी एक्शन ऑन क्लाइमेट टूडे (एसीटी) भी इस मामले में सरकार की सहायता कर रही है.
राज्य में बीते छह दशकों के दौरान सालाना बारिश में 0.96 मिमी की गिरावट दर्ज की गयी है. इसके साथ ही साल भर के दौरान बारिश के दिन कम हुए हैं और 24 घंटों में अधिकतम बारिश की मात्रा भी घटी है. असम के प्रिंसिपल कन्जर्वेटर ऑफ फारेस्ट्स (बायो-डाइवर्सिटी एंड क्लाइमेट चेंज) एके जौहरी कहते हैं, "मानसून के बाद और जाड़ों के सीजन में तापमान में वृद्धि ज्यादा स्पष्ट नजर आती है." वह कहते हैं कि शोध, समुचित तकनीक, क्षमता में वृद्धि और दक्ष शासन के जरिए जलवायु परिवर्तन के असर पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है.
आने वाले खतरे की निशानी हैं ईरान की ये तस्वीरें
ईरान के कोहगिलूयेह और बोयरअहमद प्रांत में सूखे की मार के कारण लोग पीने के पानी को दर बदर भटक रहे हैं. इस इलाके की तस्वीरें जल संकट की तरफ बढ़ती दुनिया की तरफ इशारा करती हैं.
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सूखे जल स्रोत
कोहगिलूयेह और बोयरअहमद प्रांत में पानी ज्यादातर स्रोत सूख गये हैं. इसीलिए पीने के पानी के लिए ग्रामीण इलाके के लोगों को लंबी दूरी तय करनी पड़ रही है. बहुत से ग्रामीण तो तंग आकर शहरों का रुख कर रहे हैं.
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बदतर हालात
ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब कोहगिलूयेह और बोयरअहमद ईरान के सबसे अमीर प्रांतों में से एक हुआ करता था. लेकिन आज यहां पैदा जल संकट से पता चलता है कि अब इलाके की स्थिति क्या है.
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जिंदगी मुश्किल
समाचार एजेंसी इरना के मुताबिक इस प्रांत के ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में जल आपूर्ति का कोई बुनियादी ढांचा नहीं है. ऐसे प्राकृतिक जल स्रोतों के सूख जाने से इलाके के लोगों की जिंदगी मुश्किल हो गयी है.
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सूखे की मार
हाल के सालों में ईरान के कई इलाकों ने सूखे की मार झेली है. जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया के कई हिस्सों में मौसम बदल रहा है. इसकी वजह से कहीं भारी बाढ़ तो कहीं सूखे की स्थिति पैदा हो रही है.
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जल बिन सब सून
जल ही जीवन है. इसलिए इस इलाके के लोगों के लिए पीने के पानी का इंतजाम करना आज सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गया है. दूर दूर से डिब्बों में पानी भर कर लाना अब इनकी जिंदगी का अहम हिस्सा हो गया है.
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जैसे तैसे गुजारा
तेस्नीम समाचार एजेंसी की एक रिपोर्ट के अनुसार इस प्रांत में पानी के 210 चश्मे सूख गये हैं. सिर्फ कुछ जल स्रोत ही बचे हैं जो जैसे तैसे लोगों की प्यास बुझा रहे हैं.
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बदलती आबो हवा
सूखे और जल संकट से निपटने के लिए कारगार योजना न बनाने के लिए ईरानी राष्ट्रपति हसन रोहानी को अकसर आलोचना झेलनी पड़ती है. जलवायु परिवर्तन के कारण ईरान में धूल भरी आंधियां भी बढ़ी हैं.
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जल संकट
विशेषज्ञ ईरान के इन हालातों के लिए काफी हद तक जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार मानते हैं. हालांकि पानी की किल्लत ईरान ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों में एक बड़े संकट का रूप लेती जा रही है.
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कहां से मिलेगा पानी
राष्ट्र का कहना है कि अगले 15 सालों में दुनिया भर के जल भंडारों में 40 फीसदी की कमी आयेगी. नीदरलैंड्स की यूनिवर्सिटी ऑफ ट्वेंटे के अध्ययन के अनुसार चार अरब लोगों को हर साल कम से कम एक महीने के लिए पानी की गंभीर कमी झेलनी पड़ेगी.
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संयुक्तउपायजरूरी
विशेषज्ञों का कहना है कि इन उपायों से जलवायु परिवर्तन के कुप्रभावों पर पूरी तरह अंकुश लगाना भले संभव नहीं हो, लेकिन उन्हें काफी हद तक कम जरूर किया जा सकता है. इसी तरह कार्बन उत्सर्जन घटाने के लिए हरित उर्जा पर निर्भरता बढ़ानी होगी. जलवायु परिवर्तन के संदर्भ ने उसके असर के अध्ययन और उस पर अंकुश लगाने के लिए एसएपीसीसी ने फिलहाल राज्य में छह इलाकों पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है. इनमें रोजी-रोटी की निरंतर उपलब्धता के अलावा प्राकृतिक आपदा, स्वास्थ्य, जल संसाधन, शहरी योजना और उर्जा शामिल हैं. जोहरी कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन से दो तरीकों से निपटा जा सकता है. इनमें पहला है एडॉप्शन यानी रूपातंरण. इसका मतलब है कि अगर जलवायु परिवर्तन हो रहा है तो इससे निपटने के लिए हमें क्या करना होगा. दूसरा तरीका है मिटीगेशन यानी शमन. इसका मतलब जलवायु परिवर्तन की वजहों को दूर करने का प्रयास करना है. वृक्षारोपण इसका सबसे बेहतर तरीका है.
विकास एजेंसी एक्शन ऑन क्लाइमेट टूडे (एसीटी) की असम टीम के प्रमुख रिजवान उज-जम्मान कहते हैं, "मौजूदा दौर में जलवायुजनित परिस्थितियों में होने वाले बदलावों के मुताबिक तालमेल बिठा कर आगे बढ़ना जरूरी है ताकि इसके असर को कम करते हुए इस मौके का बेहतर इस्तेमाल किया जा सके." वह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर निचले स्तर के लोगों पर होता है. कम आय वर्ग के लोग इस मामले में संवेदनशील होते हैं क्योंकि इसका सीधा असर उनकी आजीविका पर पड़ता है.
इंसान के लालच के आगे हारती पृथ्वी
कुदरत ने इंसान को बहुत दिया है. लेकिन इंसान के लालच की कोई सीमा नहीं दिखाई देती. इंसान की संसाधनों की भूख उसे कहां ले जाएगी?
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लिविंग किंग साइज
हर साल अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक 'ग्लोबल फुटफिंट नेटवर्क' एक अर्थ ओवरशूट डे की गणना करता है. यह वह दिन होता है जब तक हम प्रकृति की उतनी चीजों का उपभोग कर चुके होते हैं, जितने की कमी हमारी पृथ्वी एक साल में फिर से पूरी कर सकती है. साल 2016 में ये तारीख 8 अगस्त थी.
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जरूरत कितनी है?
आज हम औसतन अपनी पृत्वी की क्षमता का 1.6 गुना इस्तेमाल करते हैं. अगर दुनिया में हर जगह लोग जर्मनों की तरह रहने लगें, तो हमें 3.1 गुना पृथ्वी की जरूरत होगी और अगर अमेरिकियों की तरह जीने लगें तो जरूरतें पूरी करने के लिए हमारी पृथ्वी जैसे करीब पांच ग्रह लगेंगे.
तस्वीर: picture alliance/landov
गलत बात
फॉसिल फ्यूल और लकड़ी जलाने से हमारा 60 प्रतिशत इकोलॉजिकल फुटप्रिंट बनता है. चीन, अमेरिका, यूरोपीय संघ और भारत दुनिया के सबसे बड़े कार्बनडाई ऑक्साइड उत्सर्जक हैं. हालांकि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन देखने से इन आंकड़ों का सही सही पता चलता है.
जंगलों पर दबाव
पेड़ों से मिलने वाली लकड़ी कागज जैसी जरूरी चीजें बनाने के लिए कच्चा माल हैं. लेकिन मिट्टी को कटने से रोकने के लिए, धरती में पानी को सोखने में मदद के लिए और जलवायु चक्र को ठीक रखने के लिए पेड़ों का होना बेहद जरूरी है. लकड़ी की बेतहाशा मांग जंगल के जंगल साफ कर रही है.
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क्या भरेगा सबका पेट?
आबादी बढ़ रही है. नई फसलें भी तलाश की जा रही हैं. लेकिन शहरों के विस्तार के कारण कृषि योग्य भूमि सिमट रही है. इस वक्त ईयू में एक व्यक्ति का पेट भरने के लिए औसतन 0.31 हेक्टेयर कृषि भूमि का इस्तेमाल होता है. अगर दुनिया में उपलब्ध पूरी कृषि भूमि को बराबर बांटा जाए तो एक इंसान के हिस्से में 0.2 हेक्टेयर से ज्यादा नहीं आएगा.
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पानी बिन मछली
जितनी तेजी से मछलियां पकड़ी जा रही हैं उतनी तेजी से उनकी संख्या नहीं बढ़ती है. एक-तिहाई हिस्सा खाली किया जा चुका है. कार्बनडाई ऑक्साइड उत्सर्जन के कारण भी सागर अम्लीय हो रहे हैं जिससे समुद्री जीवों का जीना और कठिन हो गया है.
पानी नहीं, तो जीवन नहीं
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रोग्राम का अनुमान है कि 2030 तक दुनिया की आधी आबादी को पानी की कमी झेलनी पड़ेगी. ग्राउंड वॉटर रिजर्व कम होते जा रहे हैं और प्रदूषित भी. नदियों और झीलों का प्रदूषण तो है ही, खेती या घर से निकलने वाले गंदे पानी से भी इस्तेमाल लायक पानी के स्रोत सिमट रहे हैं. यह इंसान तो क्या जानवरों के पीने लायक भी नहीं हैं.
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विशेषज्ञों का कहना है कि जागरूकता के अभाव और गरीबी के चलते जलवायु में होने वाले किसी भी बदलाव के प्रति ऐसे लोगों की संवेदनशीलता बढ़ जाती है. इसके लिए जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने के लिए किसी भी योजना की शुरुआत प्रशासन के स्थानीय स्तर से की जानी चाहिए. ऐसे लोगों के पारंपरिक ज्ञान व अनुभवों इस मुद्दे पर ठोस योजना बनाने में अहम सहयाता मिल सकती है.
रिजवान कहते हैं कि महज शीर्ष स्तर पर योजना बनाने और उनको लागू करने से कोई फायदा नहीं होगा. इससे मुद्दे से असरदार तरीके से निपटने के लिए ऐसी किसी भी योजना की शुरूआत जमीनी स्तर से करनी होगी.
असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने हाल में बिजली विभाग की बैठक में सौर ऊर्जा के दोहन के लिए एक ठोस नीति बनाने का निर्देश दिया है. वह कहते हैं, "सौर ऊर्जा में निवेश के कई प्रस्ताव मिल रहे हैं. लेकिन किसी ठोस नीति के अभाव में इन पर काम नहीं हो पा रहा है." उनका कहना है कि सौर ऊर्जा से जहां राज्य में बिजली की बढ़ती जरूरतों को पूरा किया जा सकेगा वहीं इससे पारंपरिक बिजली केंद्रों से पैदा होने वाले कार्बन उत्सर्जन पर भी अंकुश लगाया जा सकेगा. विशेषज्ञों ने सरकार के इस फैसले को देर आयद दुरुस्त आयद करार दिया है.
मछुआरों से ज्ञान साझा करते वैज्ञानिक
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राज्य के विज्ञान व तकनीक मंत्री केशव महंत कहते हैं, "असम ऊर्जा विकास एजेंसी सौर ऊर्जा के दोहन के लिए जल्दी ही छतों पर सौर ऊर्जा पैनल लगाने की एक योजना शुरू करेगी. इसके तहत सरकारी सब्सिडी देकर कम खर्च में छतों पर सौर ऊर्जा पैनल लगाए जाएंगे." उनका कहना है कि बाढ़ के दौरान बिजली के खंभे टूट व डूब जाने से सप्लाई बहाल करने में भारी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है. सौर ऊर्जा से यह समस्या खत्म हो जाएगी. ध्यान रहे कि इस साल राज्य में आयी बाढ़ में बिजली की तारों के टूटने की कई घटनाएं हुई थीं. दर्जनों लोग पानी में बिजली फैलने की वजह से मारे गये.
राज्य सरकार व जलवायु विशेषज्ञों का कहना है कि असम को हर साल भारी बाढ़ और सूखे जैसी हालत का सामना करना पड़ता है. एसएपीसीसी के जरिए जलवायु परिवर्तन के असर को कम कर ग्रामीण इलाकों का आर्थिक विकास सुनिश्चित किया जा सकता है. लेकिन साथ ही विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इन योजनाओं के लिए सरकार को भी गंभीर इच्छाशक्ति दिखानी होगी. जमीनी स्तर पर ठोस ढंग से इन योजनाओं को लागू किये बिना जलवायु परिवर्तन के असर पर काबू पाना संभव नहीं होगा.
जिन देशों ने किया 50 का पारा पार
इस बार भारत में पारा अब तक की सारी ऊंचाइयां तोड़ता हुआ 51 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा है. राजस्थान के पलोधी में यह तापमान दर्ज किया गया. देखें अब तक पारे ने 50 का आंकड़ा कितने देशों में पार किया?