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असम में सिर उठाता भाषा विवाद

प्रभाकर मणि तिवारी
११ जुलाई २०१८

उग्रवाद के लिए कुख्यात रहे पूर्वोत्तर राज्य असम में अब भाषा विवाद सिर उठा रहा है. हाल में भाषाई जनसंख्या के आंकड़े सामने आने के बाद तेज हुआ विवाद.

Indien Bundesstaat Assam Appell Präsident  Sahitya Sabha Parmananda Rajbongshi
तस्वीर: DW/P. Tiwari

आंकड़े बताते हैं कि असम में असमिया बोलने वालों की लगातार तादाद घट रही है. ऐसे में, राज्य के सबसे बड़े साहित्यिक संगठन असम साहित्य सभा ने कहा है कि असम में नौकरी करने वालों के लिए असमिया या किसी स्थानीय भाषा की जानकारी अनिवार्य है.

राज्य में 28 जनजातियां रहती हैं. साहित्य सभा पहले भी असमिया भाषा का मुद्दा उठाती रही है. लेकिन इस बार उसने राज्य सरकार से राजभाषा अधिनियम को कड़ाई से इसे लागू करने की मांग की है.

घटती तादाद

असम की कुल आबादी में असमिया बोलने वालों की तादाद 50 फीसदी से भी कम हो गई है. भाषाओं पर वर्ष 2011 की जनगणना के हाल में प्रकाशित आंकड़ों में कहा गया है कि असम में वर्ष 2001 में असमिया बोलने वालों की तादाद कुल आबादी का 48.80 फीसदी थी जो वर्ष 2011 की जनगणना में घट कर 48.38 फीसदी रह गई है.

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दूसरी ओर, इसी अवधि के दौरान बांग्लाभाषियों  की तादाद 27.54 फीसदी से बढ़ कर 28.91 फीसदी हो गई है. इससे पड़ोसी बांग्लादेश से घुसपैठ के विभिन्न संगठनों के आरोपों को बल मिला है. वर्ष 1991 की जनगणना में असमिया और बांग्ला बोलने वालों की तादाद क्रमशः 57.81 और 21.67 फीसदी थी. इन आंकड़ों के तुलनात्मक अध्ययन से समस्या की गंभीरता का पता चलता है.

इन्हीं आंकड़ों को ध्यान में रखते हुए अब अखिल असम छात्र संघ (आसू) असम गण परिषद (अगप) और असम साहित्य सभा समेत कई अन्य क्षेत्रीय संगठनों ने राजभाषा अधिनियम, 1960 के प्रावधानों को कड़ाई से लागू करने की मांग उठाई है.

इन संगठनों का कहना है कि असमिया लोगों की तादाद में गिरावट से साफ है कि बांग्लादेश से लगातार बढ़ती घुसपैठ की वजह से इस भाषा, स्थानीय लोगों और उनकी संस्कृति खतरे में है.

साहित्य सभा के मुख्य सचिव पद्म हजारिका कहते हैं, "असमिया भाषा और संस्कृति खतरे में है. सरकार को राजभाषा लागू करने के लिए गठित निदेशालय को पूरी तरह चालू करना चाहिए था. लेकिन सरकार ने उल्टे उसे बंद कर दिया है. यह गहरी चिंता का विषय है."

साहित्य सभा का एलान

भाषा और संस्कृति को लेकर बढ़ती चिंता के बीच सबसे बड़े साहित्यिक संगठन असम साहित्य सभा ने कहा है कि राज्य में काम करने के इच्छुक लोगों के लिए असमिया या किसी स्थानीय भाषा की जानकारी होना अनिवार्य है.

सभा के अध्यक्ष परमानंद राजबंशी ने चेतावनी दी है कि अगर किसी को स्थानीय भाषा नहीं आती तो उसे निजी या सार्वजनिक क्षेत्र में काम नहीं करने दिया जाएगा. वह कहते हैं, "चतुर्थ श्रेणी से लेकर शीर्ष स्तर तक राज्य में निजी या सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को लिए असमिया या कोई अन्य स्थानीय भाषा जानना जरूरी है. राज्य में 28 जनजातियां रहती हैं."

राजबंशी कहते हैं, "असम के स्थानीय लोग फिलहाल संकट के दौर से गुजर रहे हैं. उनकी पहचान और भाषा खतरे में है. असम में असमिया बोलने वालों की तादाद में लगातार गिरावट गहरी चिंता का विषय है."

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उनका कहना है कि असम साहित्य सभा स्थानीय भाषाओं को मरने नहीं देगी. अब सभा इस मुद्दे पर किसी की बात नहीं सुनेगी. राजबंशी ने कहा है कि यह सबके लिए आखिरी चेतावनी है. उन्होंने असम सरकार से भी इस मुद्दे पर कड़ा कदम उठाते हुए इसे लागू करने को कहा है.

लगभग सौ साल पुरानी यह संस्था राज्य में असमिया भाषा का मुद्दा उठाती रही है. उसने तमाम सरकारी और निजी संस्थानों और व्यापारिक और वित्तीय प्रतिष्ठानों से अपने होर्डिंग और नामपट्टिका में असमिया भाषा का इस्तेमाल करने को कहा है.

सभा ने असमिया भाषा के प्रचार-प्रसार की दिशा में काम नहीं करने के लिए गुवाहाटी और डिब्रूगढ़ विश्वविद्लायों की खिंचाई करते हुए चेताया है कि स्थानीय भाषा को बढ़ावा नहीं देने वाले किसी निजी विश्वविद्यालय को राज्य में चलने नहीं दिया जाएगा. राजबंशी ने भाषा को बचाने के लिए जल्द कुछ कठोर फैसले लेने की भी बात कही है.

स्वागत

राज्य के बुद्धिजीवियों ने असमिया भाषा को बचाने की साहित्य सभा की पहल का स्वागत किया है. जाने-माने साहित्यकार डॉ. हीरेन गोहांई कहते हैं, "सरकार को राजभाषा अधिनियम के तमाम प्रावधानों को कड़ाई से लागू करना चाहिए."

लेखक और राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक हरेकृष्ण डेका कहते हैं, "असमिया के राजभाषा होने के बावजूद ज्यादातर सरकारी दफ्तरों में फाइलों पर टिप्पणियां अंग्रेजी में ही लिखी जाती हैं जबकि यह असमिया में लिखी जानी चाहिए. उसका अंग्रेजी अनुवाद मूल टिप्पणी के नीचे दिया जा सकता है."

उनका कहना है कि यहां सत्ता में आने वाली तमाम सरकारें राजभाषा अधिनियम को लागू करने के प्रति उदासीन रही हैं. डेका कहते हैं, "राज्य में काम करने वालों को स्थानीय भाषा का ज्ञान होना जरूरी है. लेकिन गैर-असमिया लोगों, खासकर जो नौकरी नहीं करते, पर इसे जबरन नहीं थोपा जा सकता."

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जाने-माने साहित्यकार डॉ. नगेन सैकिया कहते हैं, "असम साहित्य सभा ने सही कदम उठाया है." उनकी दलील है कि पंजाब में पंजाबी और तमिलनाडु में तमिल भाषा की जानकारी अनिवार्य है. वह इसे असम सरकार की गलती मानते हैं जिसने राजभाषा अधिनियम को कड़ाई से लागू नहीं किया.

लेकिन आखिर असमिया लोगों की घटती तादाद की वजह क्या है ? तीन दशक से भी लंबे अरसे से राज्य में पत्रकारिता करने वाले समुद्र गुप्त कश्यप कहते हैं, "बांग्लदेश से होने वाली घुसपैठ औऱ टिवा व देउरी जैसी जनजातियों का असमिया भाषियों से अलग होना इसकी प्रमुख वजह है.

पहले इन दोनों जनजातियों की गिनती असमियाभाषी में होती थी." वह कहते हैं कि यह मुद्दा पुराना है. लेकिन अब नेशनल रजिस्टर आफ सिटीजंस (एनआरसी) के अपडेट होने की कवायद से सामने आने वालों आंकड़ों के चलते स्थानीय भाषा और संस्कृति को बचाने की मांग धीरे-धीरे तेज हो रही है.

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