विश्व मानवाधिकार दिवस के मौके पर भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम में रहने वाले लगभग 30 लाख लोगों के मानवाधिकार पर अनिश्चितता के काले बादल गहराने लगे हैं.
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राज्य में एनआरसी के अंतिम मसौदे से बाहर रहे 40 लाख लोगों में से अंतिम सूची में शामिल होने के लिए अब तक महज 10 लाख यानी एक-चौथाई लोगों ने ही आवेदन जमा किया है.
दावे और आपत्तियां जमा करने की प्रक्रिया 25 सितंबर को शुरू हुई थी. दावे जमा करने की अंतिम तिथि 15 दिसंबर करीब आने के साथ ही राज्य में एक बार फिर अनिश्चितताएं और आशंकाएं बढ़ रही हैं. यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या इसकी समयसीमा बढ़ाई जाएगी?
अभी यह भी साफ नहीं है कि जिन लोगों ने आवेदन जमा नहीं किया है उनका भविष्य क्या होगा. लेकिन एनआरसी से जुड़े लोगों का कहना है कि पहले दौर में उन लोगों को मताधिकार से वंचित किया जा सकता है.
एनसीआरसी में शामिल होने के लिए चाहिए ये दस्तावेज
एनआरसी में शामिल होने के लिए चाहिए ये कागजात
एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस में अपना नाम जुड़वाने के लिए लोगों को 10 ऐसे दस्तावेज दिखाने जरूरी हैं, जो 24 मार्च 1971 से पहले बनाए गए. जानिए, किन कागजों का होना जरूरी है.
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बैंक या पोस्ट ऑफिस के खातों का ब्योरा
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समुचित अधिकारियों की ओर से जारी जन्म प्रमाणपत्र
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न्यायिक या राजस्व अदालतों में किसी मामले की कार्यवाही का ब्योरा
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बोर्ड या विश्वविद्यालय की ओर से जारी शैक्षणिक प्रमाणपत्र
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भारत सरकार द्वारा जारी किया गया पासपोर्ट
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भारतीय जीवन बीमा निगम की पॉलिसी
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किसी भी प्रकार का सरकारी लाइसेंस
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केंद्र या राज्य सरकार के उपक्रमों में नौकरी का प्रमाणपत्र
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जमीन या संपत्ति से संबंधित दस्तावेज
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राज्य द्वारा जारी स्थानीय आवास प्रमाणपत्र
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दरअसल, एनआरसी के मसौदे से बाहर रहे लोगों को अपने दावों के समर्थन में सही दस्तावेज जुटाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. नए नियमों के तहत ऐसा कोई दस्तावेज स्वीकार नहीं किया जा सकता जिसे 15 अगस्त, 2015 के बाद जारी किया गया हो. इससे लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं.
बरपेटा के गोबरधाना गांव के रहने वाले इमान अली का नाम तो अंतिम मसौदे में शामिल है लेकिन उनके बेटे अलामीन अली का नाम उसमें नहीं है. उसके जन्म प्रमाणपत्र को फर्जी कहते हुए खारिज कर दिया गया था.
बेटे की नागरिकता साबित करने के लिए उन्होंने अलामीन के स्कूल से एक प्रमाणपत्र बनवाया है. लेकिन एनआरसी सेवा केंद्र में यह कहते हुए उसका आवेदन स्वीकार नहीं किया गया कि वह प्रमाणपत्र नया यानी 15 अगस्त, 2015 के बाद बना है.
इमान अली सवाल करते हैं, "अब मैं क्या कर सकता हूं? मेरे पास बेटे की नागरिकता साबित करने के लिए दूसरा कोई दस्तावेज नहीं है.” राज्य के लाखों लोग ऐसी ही मुश्किलों से जूझ रहे हैं.
इसी जिले में एक निजी स्कूल के मालिक नजरुल अली अहमद लोगों को दावे जमा करने में सहायता करते रहे हैं. वह कहते हैं, "अगस्त, 2015 के बाद जारी दस्तावेजों पर पाबंदी मसौदे से बाहर रहे लोगों के दावों की राह में सबसे बड़ी बाधा साबित हो रही है.”
एनसीआरसी पर आखिर इतना हंगामा क्यों?
एनआरसी को लेकर इतना हंगामा क्यों है?
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन यानी एनआरसी की वजह से असम में रहने वाले लाखों लोगों का भविष्य अधर में लटका है. चलिए जानते हैं कि क्या है एनआरसी.
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क्या है एनआरसी
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी असम में रहने वाले भारतीय नागरिकों की सूची है. जिन लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं हैं, उन्हें बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासी माना जाएगा.
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बिखरेंगे परिवार
30 जुलाई को प्रकाशित एनआरसी के अंतिम मसौदे में 40 लाख बांग्ला भाषियों के नाम नहीं है. इस तरह दशकों से असम में रह रहे कई परिवारों के बिखरने की आशंका पैदा हो गई है.
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एनआरसी की जरूरत
कुछ संगठन एनआरसी को बांग्ला भाषी मुसलमानों को निशाने बनाने की कोशिश के तौर पर देखते हैं जबकि सरकार इसे असम में बड़ी तादाद में रह रहे अवैध प्रवासियों की पहचान के लिए जरूरी बताती है.
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एनआरसी की कसौटी
24 मार्च 1971 तक जिन लोगों के नाम असम की मतदाता सूचियों में शामिल थे, उन्हें और उनके बच्चों को एनआरसी में शामिल किया गया है. इस तरह दशकों से असम में रहे कई लोग भी शर्त पूरा करने की स्थिति में नहीं होंगे.
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सुरक्षा सख्त
एनआरसी में 40 लाख लोगों के नाम ना होने से तनाव बढ़ने की आशंका हैं जिन्हें देखते हुए सुरक्षा के कड़े इंताजम किए गए हैं. केंद्र सरकार ने असम में अतिरिक्त सुरक्षा बल भेजे हैं.
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देश निकाला?
सरकार ने साफ किया है कि फिलहाल 40 लाख लोगों में किसी को न तो जेल में डाला जाएगा और न ही बांग्लादेश भेजा जाएगा. उन्हें नागरिकता साबित करने का पूरा मौका दिया जाएगा.
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पहला एनआरसी
भारत के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (मौजूदा बांग्लादेश) से आने वाले अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए राज्य में 1951 में पहली बार एनआरसी को अपडेट किया गया था.
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घुसपैठ की समस्या
उसके बाद भी घुसपैठ लगातार जारी रही. खासकर वर्ष 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद असम में इतनी भारी तादाद में शरणार्थी पहुंचे कि राज्य में आबादी का स्वरूप ही बदलने लगा.
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आंदोलन
अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने अस्सी के दशक की शुरुआत में असम आंदोलन शुरू किया था. लगभग छह साल तक चले इस आंदोलन के बाद 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे.
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लटकता रहा मामला
इस समझौते के मुताबिक 25 मार्च 1971 के बाद से असम में अवैध रूप से रहने वालों के नाम एनआरसी में शामिल नहीं होंगे और एनआरसी को अपडेट किया जाएगा. लेकिन यह काम किसी न किसी वजह से लटका रहा.
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पहला चरण
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश और उसकी देख-रेख में 2015 में यह काम शुरू हुआ. असम में 3.29 आवेदकों में से 1.9 करोड़ के नाम इस साल जनवरी में ही भारतीय नागरिकों के तौर पर दर्ज हो गए.
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अधर में भविष्य
ताजा मसौदा प्रकाशित होने के बाद में अब कुल 2.89 करोड़ लोगों के नाम भारतीय नागरिक के तौर पर दर्ज किए गए हैं. जिन 40 लाख लोगों के नाम इसमें शामिल नहीं है, उनका भविष्य फिलहाल डांवाडोल है.
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असम में एनआरसी के प्रदेश संयोजक ने कहा है कि एनआरसी में नाम शामिल करने का दावा पेश करने के लिए लोग दो सूचियों से बाहर के दस्तावेज दोबारा पेश नहीं कर सकते. संयोजक दफ्तर की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि पहले दिए गए दस्तावेजों को फिर से जमा करने की जरूरत नहीं है.
कोई भी व्यक्ति या तो पहले जमा किए गए दस्तावेजों के आधार पर पुनर्विचार के लिए दावा पेश कर सकता है या फिर वह ए और बी सूची में शामिल दस्तावेजों के सहारे ऐसा कर सकता है. सूत्रों का कहना है कि 40 लाख में से सिर्फ 10 लाख लोगों का दावा दाखिल करना इस बात का सबूत है कि एनआरसी का मसौदा तैयार करने की प्रक्रिया बिल्कुल सही थी.
ध्यान रहे कि बीती 30 जुलाई को एनआरसी का अंतिम मसौदा प्रकाशित होने के बाद लगभग 40 लाख लोगों के नाम इससे बाहर हो गए थे. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी केंद्र पर एनआरसी के बहाने बंगालियों को खदेड़ने की साजिश रचने का आरोप लगाती रही हैं. उनका कहना है कि बंगाल में एनआरसी तैयार करने की अनुमित नहीं दी जाएगी.
अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि जिन लोगों के नाम एनआरसी की अंतिम सूची में शामिल नहीं होंगे, उनका भविष्य क्या होगा. एनआरसी से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि पहले कदम के तौर पर उनसे मताधिकार वापस लिया जा सकता है.
एक अधिकारी कहते हैं, "जिन लोगों के नाम मसौदे में नहीं थे, उनको अपनी नागरिकता साबित करने के लिए पर्याप्त अवसर दिया जा चुका है. अगर कुछ लोग अपना नाम एनआरसी में शामिल नहीं कराना चाहते तो इसका मतलब है कि उनके पास इसके लिए जरूरी दस्तावेज नहीं हैं. दावों की प्रक्रिया यह प्रक्रिया 25 सितंबर से चल रही है.”
काजीरंगा में गैंडों की गिनती
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दूसरी ओर, राज्य सरकार एनआरसी में शामिल होने के दावों की अंतिम तारीख पर असमंजस में है. लेकिन एनआरसी से जुड़े सूत्रों का कहना है कि अब समयसीमा बढ़ने की उम्मीद कम ही है. सरकारी सूत्रों का कहना है कि राज्य में बिना दस्तावेज वाले लोगों के भविष्य को लेकर योजना तैयार करने के लिए केंद्र सरकार उच्च स्तरीय समिति बनाएगी.
दिल्ली में बीते सप्ताह केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह, असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल, गृह सचिव राजीव गौबा और आईबी के निदेशक राजीव जैन की मौजूदगी में हुई बैठक में यह फैसला लिया गया. इस समिति में केंद्र और असम सरकार के प्रतिनिधि शामिल होंगे.
बैठक में शामिल राज्य सरकार के एक अधिकारी बताते हैं, "प्रस्तावित उच्चस्तरीय समिति यह फैसला करेगी कि बिना दस्तावेज वाले लोगों के साथ क्या किया जाए. समिति सभी उपलब्ध विकल्पों पर विचार करेगी. यह समिति दावे जमा करने की मियाद पूरी होने के बाद काम शुरू करेगी.”
जो भी हो, फिलहाल तो राज्य के लगभग 30 लाख लोगों का भविष्य अनिश्चयता के भंवर में फंस गया है. इन लोगों को खुद भी नहीं मालूम कि उनका भविष्य क्या होगा? धुबड़ी जिले के हाशिम अली सवाल करते हैं, "क्या हमें असम छोड़ कर जाना होगा? हमारे पुरखे तो दशकों से यहां रह रहे हैं.”
क्या होता है राज्यों का "विशेष दर्जा"
देश का संविधान किसी राज्य को विशेष नहीं कहता लेकिन इसके बावजूद कई राज्यों को "विशेष दर्जा" प्राप्त है. वहीं कई राज्य अकसर यह मांग करते नजर आते हैं कि उन्हें यह दर्जा मिले. लेकिन क्या होता है राज्यों का "विशेष दर्जा."
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क्या है राज्यों का "विशेष दर्जा"
संविधान में किसी राज्य को विशेष दर्जा दिए जाने जैसा कोई प्रावधान नहीं है. लेकिन विकास पायदान पर हर राज्य की स्थिति अलग रही है जिसके चलते पांचवें वित्त आयोग ने साल 1969 में सबसे पहले "स्पेशल कैटेगिरी स्टेटस" की सिफारिश की थी. इसके तहत केंद्र सरकार विशेष दर्जा प्राप्त राज्य को मदद के तौर पर बड़ी राशि देती है. इन राज्यों के लिए आवंटन, योजना आयोग की संस्था राष्ट्रीय विकास परिषद (एनडीसी) करती थी.
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क्या माने जाते थे आधार
पहले एनडीसी जिन आधारों पर विशेष दर्जा देती थी उनमें था, पहाड़ी क्षेत्र, कम जनसंख्या घनत्व या जनसंख्या में बड़ा हिस्सा पिछड़ी जातियों या जनजातियों का होना, रणनीतिक महत्व के क्षेत्र मसलन अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे इलाके, आर्थिक और बुनियादी पिछड़ापन, राज्य की वित्तीय स्थिति आदि. लेकिन अब योजना आयोग की जगह नीति आयोग ने ले ली है. और नीति आयोग के पास वित्तीय संसाधनों के आवंटन का कोई अधिकार नहीं है.
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14वें वित्त आयोग की भूमिका
केंद्र सरकार के मुताबिक, 14वें वित्त आयोग ने अपनी सिफारिशों में राज्यों को दिए जाने वाले "विशेष दर्जा" की अवधारणा को प्रभावी ढंग से हटा दिया था. केंद्र सरकार ने आंध्र प्रदेश के मसले पर कहा कि केंद्र, प्रदेश को स्पेशल कैटेगिरी में आने वाला राज्य मानकर वित्तीय मदद दे सकता है. लेकिन सरकार आंध्र प्रदेश को "विशेष राज्य" का दर्जा नहीं देगी.
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"विशेष दर्जा" का क्या लाभ
नीति आयोग से पहले योजना आयोग विशेष दर्जे वाले राज्य को केंद्रीय मदद का आवंटन करती थी. ये मदद तीन श्रेणियों में बांटी जा सकती है. इसमें, साधारण केंद्रीय सहयोग (नॉर्मल सेंट्रल असिस्टेंस या एनसीए), अतिरिक्त केंद्रीय सहयोग (एडीशनल सेंट्रल असिस्टेंस या एसीए) और विशेष केंद्रीय सहयोग (स्पेशल सेंट्रल असिस्टेंस या एससीए) शामिल हैं.
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क्या है मतलब
विशेष दर्जा प्राप्त राज्य में केंद्रीय नीतियों का 90 फीसदी खर्च केंद्र वहन करता है और 10 फीसदी राज्य. वहीं अन्य राज्यों में खर्च का 60 फीसदी ही हिस्सा केंद्र सरकार उठाती है और बाकी 40 फीसदी का भुगतान राज्य सरकार करती है.
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किन राज्यों के पास है दर्जा
एनडीसी ने सबसे पहले साल 1969 में जम्मू कश्मीर, असम और नगालैंड को यह दर्जा दिया था. लेकिन कुछ सालों बाद तक इस सूची में अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा शामिल हो गए. साल 2010 में "विशेष दर्जा" पाने वाला उत्तराखंड आखिरी राज्य बना. कुल मिलाकर आज 11 राज्यों के पास यह दर्जा है.
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अन्य राज्यों की मांग
देश के कई राज्य "विशेष दर्जा" पाने की मांग उठाते रहे हैं. इसमें आंध्र प्रदेश, ओडिशा और बिहार की आवाजें सबसे मुखर रही है. लेकिन अब तक इन राज्यों को यह दर्जा नहीं दिया गया है.