गुजरात में राज्यसभा चुनाव से फिर यह साफ हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी कितना भी दावा करे कि उसकी चाल, चरित्र और चेहरा अलग है, चुनाव जीतने के लिए वो उन सभी रास्तों पर चलने को तैयार है जिनके लिए कांग्रेस पर आरोप लगाती थी.
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विधायकों की खरीद-फरोख्त में बीजेपी कितनी कुशल है, इसका पता उत्तराखंड, गोवा, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा में चल चुका है. गुजरात में भी उसने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल को हरवाने के लिए हर संभव चाल चली, लेकिन कांग्रेस से छिटके दो विधायकों की गलती उसे बहुत भारी पड़ी और मध्यरात्रि के बाद हुई मतगणना के बाद अंततः पटेल को विजयी घोषित कर दिया गया.
इस पूरे घटनाक्रम का असली नायक भारत का निर्वाचन आयोग है जिसने अपने आचरण से सिद्ध कर दिया कि वह अपनी संवैधानिक स्वायत्तता की रक्षा करने और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने की अपनी प्रतिबद्धता पूरी करने के प्रति कितना सचेत और जागरूक है. आयोग से वरिष्ठ केन्द्रीय मंत्रियों के प्रतिनिधिमंडल ने दो बार मुलाक़ात की और अपनी दलीलें रखीं. लेकिन आयोग ने उनके प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रकार के दबाव के आगे झुकने से इंकार कर दिया और वही किया जो नियम और कानून के तहत उसे करना चाहिए था.
कहां-कहां चूके मोदी
पहले दो साल में मोदी सरकार ने जमकर सुर्खियां बटोरी हैं. लेकिन ये सुर्खियां विवादों की वजह से ज्यादा रहीं. गिनती में तो ये विवाद बहुत ज्यादा हैं, लेकिन अभी जिक्र 10 सबसे बड़े विवादों का.
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आईआईटी में संस्कृत
इसी साल अप्रैल में शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी ने लोकसभा में कहा कि आईआईटी से संस्कृत पढ़ाने को कहा गया है. इस प्रस्ताव का देशभर में विरोध हुआ. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने कहा कि एचआरडी मिनिस्ट्री का नाम बदलकर हिंदू राष्ट्र डेवलपमेंट मिनिस्ट्री कर दिया जाना चाहिए.
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प्रधानमंत्री की डिग्री
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बीए और एमए की डिग्रियों को लेकर देश में जमकर विवाद हुआ. प्रधानमंत्री की शिक्षा पर एक आरटीआई का जवाब न मिलने से यह विवाद शुरू हुआ. आम आदमी पार्टी का दावा है कि उनकी डिग्री फर्जी है. अरुण जेटली और अमित शाह को सामने आकर सफाई देनी पड़ी.
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उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन
9 कांग्रेसी विधायकों के बागी होने पर इसी साल मार्च में केंद्र सरकार ने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया. हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार के इस फैसले को गलत करार दिया. मुख्यमंत्री हरीश रावत ने बहुमत साबित करके फिर से सरकार बना ली.
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कन्हैया विवाद
फरवरी 2016 में जेएनयू छात्र संगठन के अध्यक्ष कन्हैया को राजद्रोह का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया. इसके विरोध में देशभर में प्रदर्शन शुरू हो गए. दो और छात्रों को गिरफ्तार किया गया. शिक्षा मंत्री ने दखल देने से इनकार कर दिया. बाद में तीनों छात्र जमानत पर रिहा हुए.
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हैदराबाद यूनिवर्सिटी विवाद
शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी की पांच चिट्ठियों के बाद दलित छात्रों पर हैदराबाद यूनिवर्सिटी ने कार्रवाई की और पांच छात्रों को सस्पेंड कर दिया. उनमें से एक रोहित वेमुला ने खुदकुशी कर ली. दलित स्कॉलर वेमुला की मौत ने देशभर में विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला छेड़ दिया.
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अरुणाचल संकट
बीते साल दिसंबर में अरुणाचल की कांग्रेस सरकार से कुछ बागी विधायकों ने समर्थन वापस ले लिया. सरकार गिर गई. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि राज्यपाल की मदद से केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को अस्थिर किया. बाद में बागी विधायकों ने बीजेपी की मदद से सरकार बना ली.
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असहिष्णुता और सम्मान वापसी
देश में बढ़ती असहिष्णुता का आरोप लगाकर देश के कई जानेमाने लेखकों, कलाकारों, कवियों, वैज्ञानिकों और फिल्मकारों ने अपने-अपने सम्मान लौटा दिए. जिसके बाद देश में ऐसा विवाद खड़ा हुआ कि बंटवारा स्पष्ट नजर आने लगा.
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ललित मोदी के संबंध
केंद्रीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के भगोड़े ललित मोदी की मदद करने की बात सामने आने के बाद केंद्र सरकार विवादों में घिर गई. सुषमा स्वराज ने कहा कि उन्होंने मानवीय आधार पर मदद की. इसके बाद कई हफ्तों तक संसद ठप रही.
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गोमांस पर बैन
बीते साल हरियाणा और महाराष्ट्र में गोहत्या को लेकर कड़े कानूनों के लागू होने का काफी विरोध हुआ. यहां तक कि यह मुद्दा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित रहा. बीजेपी के कई नेताओं और केंद्र सरकार के मंत्रियों के भी बयान आए.
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10 लाख का सूट
बीते साल जनवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान उनसे मुलाकात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो सूट पहना उस पर उनका नाम लिखा था. ऐसे आरोप लगे कि यह सूट 10 लाख रुपये में बना है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया और सूट-बूट की सरकार कहकर तीखे बाण चलाए.
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उसके आचरण से एक बार फिर भारतीय नागरिकों का लोकतंत्र और संविधान की सत्ता में विश्वास मजबूत हुआ, और उन्हें यह आश्वस्ति हुई कि जीवन भर नौकरशाह रहने के बावजूद जब कोई व्यक्ति किसी संवैधानिक पद पर आसीन हो जाता है, तब वह किस प्रकार निष्पक्ष होकर अपनी जिम्मेदारियां निभा सकता है.
इस घटनाक्रम से सभी राजनीतिक दलों को यह सीख लेनी चाहिए कि वे अपने सांसदों, विधायकों और नेताओं की राय को नजरंदाज करके शीर्ष नेतृत्व द्वारा किए गए फैसलों को उन पर थोप नहीं सकते. राज्यसभा के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस, भाजपा और जनता दल (यूनाइटेड) के कई विधायकों ने अपनी पार्टी द्वारा समर्थित उम्मीदवार को वोट न देकर दूसरे उम्मीदवार को वोट दिया. इसका प्रमुख कारण पार्टी नेतृत्व द्वारा उन्हें विश्वास में न लेना ही था.
कुछ विधायकों ने प्रलोभन के कारण भी ऐसा कदम उठाया होगा, लेकिन कई विधायकों ने खुलकर पार्टी नेतृत्व के प्रति असंतोष व्यक्त किया. राजनीतिक दलों के अंदरूनी लोकतंत्र के लिए भी यह एक सकारात्मक घटना है क्योंकि यदि पार्टियों का नेतृत्व सभी की राय को ध्यान में रखकर निर्णय नहीं लेगा तो पार्टी के भीतर कामकाज के लोकतांत्रिक तौर-तरीके हाशिये पर जाते रहेंगे. यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं होगा.
कांग्रेस के दो विधायकों ने अपने मतपत्र अपनी पार्टी के प्रतिनिधि को न दिखाकर दूसरों को क्यों दिखाए, इस पर अटकलें लगती रहेंगी. क्या यह अनजाने में हुई गलती थी या इसे जानबूझकर किया गया था? अभी यह कहना मुश्किल है. लेकिन उनकी इस गलती के कारण अहमद पटेल जीत गए और भाजपा की विधायकों को तोड़ने की कोशिश कामयाब होकर भी नाकामयाब रही, क्योंकि उसका राजनीतिक उद्देश्य पूरा नहीं हो पाया. कानून के मुताबिक विधायक अपना मतपत्र केवल अपनी पार्टी के प्रतिनिधि को ही दिखा सकता है. मतदान की वीडियो रिकॉर्डिंग देखकर निर्वाचन आयोग ने इन दो विधायकों के वोट को रद्द कर दिया और अहमद पटेल जीत गए.
आयोग का यह निर्णय इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि मुख्य निर्वाचन आयुक्त ए के जोती लंबे अरसे तक गुजरात में उस समय नियुक्त रहे हैं जब वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वहां के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. लेकिन उनकी इस निकटता का उनके निर्णय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है और यह एक प्रशंसनीय बात है. इससे अन्य संवैधानिक संस्थाओं को भी अपनी स्वायत्तता बनाए रखने के लिए प्रेरणा और साहस मिलेगा जो भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए बहुत अच्छी बात होगी.