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आंकड़ों में उलझी भारत की गरीबी

७ अगस्त २०१३

भारत सरकार का दावा है कि 2004 से अब तक देश में गरीबी एक तिहाई कम हुई है और इसका श्रेय सरकारी योजनाओं को दिया है लेकिन क्या सचमुच ये आंकड़े भरोसा करने लायक हैं.

तस्वीर: picture-alliance/AP

भारतीय योजना आयोग ने जो आंकड़े दिए हैं उनके मुताबिक वित्तीय वर्ष 2004-05 से 2011-12 के दौरान 13.8 करोड़ लोग गरीबी रेखा से बाहर निकल गए. इन आंकड़ों के मुताबिक भारत की 1.2 अरब की आबादी में अब 26.9 करोड़ लोग ही गरीबी रेखा के नीचे हैं. 2004 से देश चला रहे भारत के सत्ताधारी गठबंधन यूपीए का दावा है कि पिछले कुछ सालों में तेज आर्थिक विकास हुआ है और सरकार ने लोगों की भलाई के लिए जो कार्यक्रम चलाए उससे भारत में गरीबों की संख्या बहुत तेजी से घटी है. यूपीए के प्रवक्ता भक्त चरण दास ने हाल ही में कहा था, "देश भर में गरीबी के स्तर में आई कमी से यूपीए सरकार की गरीबों और समग्र विकास के लिए बनाई नीति साफ तौर पुष्ट हो गई है."

सरकार ने जिन आंकड़ों को अपने दावे का आधार बनाया है उस पर नीति बनाने वालों और अर्थशास्त्रियों के बीच मतभेद है. सबसे बड़ा मसला गरीबी रेखा का ही है. योजना आयोग शहरी क्षेत्र में 33 और ग्रामीण क्षेत्र में 27 रुपये रोज से कम कमाने वालों को गरीब मानता है. गरीबी रेखा तय करने के इस तरीके को ना सिर्फ सामाजिक कार्यकर्ता बल्कि ग्रामीण विकास मंत्रालय भी गलत मानता है. आलोचकों का कहना है कि एक दिन में 33 रुपये पर सिर्फ जिंदा रहा जा सकता है और गरीबी रेखा को कम से कम इस लायक होना चाहिए कि उससे एक "स्वीकार्य" जीवनशैली हासिल की जा सके.

राजनीतिक कदम

हैदराबाद के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इकोनॉमिक्स के चेयरमैन वीके श्रीनिवासन का कहना है कि आंकड़ों को इस तरह से पेश किया गया इससे सरकार की छवि अच्छी बन सके. अगले साल होने वाले आम चुनावों को देखते हुए सरकार के लिए इसकी जरूरत समझी भी जा सकती है. अर्थशास्त्रियों का कहना है कि योजना आयोग चार से पांच सालों के अंतर पर आंकड़े जारी करता है. जल्दबाजी में 2011-12 का आंकड़ा जारी करना यह संदेह पैदा करता है कि आयोग, "यूपीए सरकार की उपलब्धियों के दावे मजबूत करना" चाहता था क्योंकि सरकार 2014 के चुनावों की तैयारी कर रही है. श्रीनिवासन ने डीडब्ल्यू से कहा, "जानकारों ने कितनी दक्षता के साथ गरीबी की रेखा तैयार की इसकी बजाय इस वक्त ऐसे आंकड़ों का राजनीतिक लक्ष्यों के लिए इस्तेमाल करने के पीछे उद्देश्य पर सवाल पूछना चाहिए."

33 रुपये दिन की कमाई गरीबी रेखा से ऊपरतस्वीर: picture-alliance/dpa

लाखों कुपोषित

सुपरपावर बनने की इच्छा रखने वाले देश में करोड़ों लोगों के पास पेट भर खाना, साफ पानी और शौचालय तक नहीं है. दुनिया में भूखे लोगों वाले 79 देशों की सूची में भारत 75वें नंबर पर है. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के मुताबिक 2012 में भारत में 21.7 करोड़ लोग कुपोषित थे. सिर्फ इतना ही नहीं पांच साल से कम उम्र के करीब आधे बच्चे कुपोषित हैं और यह सिलसिला कई साल से चला आ रहा है. हालांकि इसके बाद भी कई अर्थशास्त्री मानते हैं कि भारत में सरकारी योजनाओं के दम पर गरीबी कुछ कम हुई है. कोलंबिया यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अरविंद पनगड़िया का कहना है, "सबसे पहले तो विकास ने नौकरी के बेहतर मौके और बढ़िया वेतन पैदा किया है और इस तरह से गरीबों को फायदेमंद रोजगार मिला है." दूसरी ओर समाजशास्त्री कह रहे हैं कि वेतन बढ़ने से सरकार का राजस्व भी बढ़ा है और सामाजिक योजनाओं के लिए अब उसके पास ज्यादा पैसा है.

सामाजिक योजनाओं में कमियां

सरकार ने खाद्य सुरक्षा बिल तैयार किया है. अभी अध्यादेश के रूप में पास हुए इस बिल पर संसद के दोनों सदनों की मुहर लगनी बाकी है. इस कानून के जरिए सरकार भारत की करीब 67 फीसदी आबादी को कम पैसे में खाना देने की तैयारी में है. योजना आयोग के मुताबिक देश में 22 फीसदी लोग ही गरीब हैं लेकिन सरकार ग्रामीण क्षेत्रों की 75 फीसदी और शहरों की 50 फीसदी आबादी को सब्सिडी वाला अनाज देगी. हालांकि इसमें भी प्राथमिकता वाले परिवार तय किए जाएंगे. इन्हें तय मात्रा में 3 रुपये किलो चावल, 2 रूपये किलो गेहूं और 1 रुपये किलो बाजरा दिया जाएगा. इसे दुनिया की सबसे बड़ी खाद्य योजना कहा जा रहा है. हालांकि पनगड़िया का कहना है कि इस तरह की योजनाएं दुधारी तलवार की तरह हैं. यह परिवारों का भोजन पर खर्च तो घटाएंगी ही योजना को लागू करने में भारी गड़बड़ियां और भ्रष्टाचार भी होगा. पनगड़िया ने कहा, "यह गरीबी मिटाने का आदर्श तरीका नहीं है."

उपलब्धियों का दावा करती यूपीए सरकारतस्वीर: Prakash Singh/AFP/Getty Images

नए तरीकों की जरूरत

कई अर्थशास्त्री इस बात पर जोर दे रहे हैं कि गरीबी की गणना और उससे लड़ने के लिए नए तरीके इस्तेमाल करने की जरूरत है. श्रीनिवासन ने संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक की तरह बहुआयामी गरीबी सूचकांक बनाने का सुझाव दिया है. इसमें जीवनशैली, स्वास्थ्य और शिक्षा के आधार पर कमी की तीव्रता पर नजर रखी जाए. दूसरे शब्दों में कहें तो मानव विकास को सिर्फ आमदनी और खर्च के हिसाब से नापने की बजाय जीवन प्रत्याशा और शिक्षा की गुणवत्ता जैसी चीजों से भी नापना होगा. पनगड़िया का कहना है कि वो इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि गरीबी से लड़ने के लिए संरचनात्मक सुधार करने होंगे.
इन आंकड़ों के बीच नेता भी अजीब बयान देने से बाज नहीं आते. राजबब्बर मुंबई में 12 रुपये में पेट भर खाना खिलाने का दावा करते हैं तो राहुल गांधी गरीबी को मानसिक अवस्था बताते हैं.

रिपोर्टः श्रीनिवास मजूमदारु/एनआर

संपादनः आभा मोंढे

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