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आइसलैंड की कहानी कहती गाथाएं

७ अक्टूबर २०११

आइसलैंड की गाथाएं बिलकुल उसकी प्रकृति की तरह हैं. और वे जीवन का अटूट हिस्सा हैं. 2011 के अंतरराष्ट्रीय फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में आइसलैंड अतिथि देश है. वहां के साहित्य में ये गाथाएं अहम भूमिका निभाती हैं.

तस्वीर: DW/N.Wojcik

चाहे भारतीय लेखक किरण नागरकर हों, साहित्य के नोबल पुरस्कार से सम्मानित दक्षिण अफ्रीकी लेखक जेएम कत्सीए हों या फिर अमेरिकी जोनैथन फ्रांजन, सभी को आइसलैंड के आख्यान या गाथाएं पसंद हैं. केन्या के मशहूर लेखक न्गुगी वा थियोंग ओ इन गाथाओं की तुलना अफ्रीका के मौखिक साहित्य से करते हैं. वहीं ब्रिटेन के जेआरआर टॉल्किन ने इन गाथाओं को लॉर्ड ऑफ द रिंग में बांधा तो अर्जेंटीना के योर्ग लुइस बोर्गेस ने अपनी कब्र पर इन गाथाओं से लिया एक वाक्य लिखवाया. आइसलैंड की गाथाएं वैश्विक साहित्य का हिस्सा है.

पूरा इतिहास

एक वक्त था जब आइसलैंड में सिर्फ किसान और ग्वाले रहते थे. ये पूरे द्वीप पर छितरे हुए और बहुत गरीबी में अपना जीवन बिताते थे. इन गाथाओं का अनुवाद करने वाले आर्थर ब्योर्गविन बोलासन जानते हैं कि उस काल में ये गाथाएं खाली समय भरने का अहम साधन थीं. जर्मनी के दक्षिण में सागा सेंटर के अध्यक्ष रहे बोलासन कहते हैं, "इन गाथाओं के कारण लोगों के जीवन में मौज मस्ती बनी रहती. और रोजमर्रा की जिंदगी में इनकी अहम भूमिका थी क्योंकि कहानी सुनाना भाग्य और बातचीत का प्रतीक माना जाता. उस समय मनोरंजन के ज्यादा साधन थे भी नहीं. और ये कहानियां एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को जाती रहीं."

हर वर्ग के लिए

आज भी आइसलैंड के कई निवासी इन गाथाओं के नायकों में खुद को देखते हैं. हो सकता है कि इन नायकों में कोई किसी का पूर्वज हो. बोलासन कहते हैं, "जब भी आइसलैंड के निवासी कहीं एक साथ बैठते हैं और हंसी मजाक का माहौल होता है तो इन आख्यानों की बात जरूर होती है." बोलासन याद करते हैं कि कैसे एक बार आइसलैंड के राष्ट्रपति ने गाथाओं के बारे में कहा था, "इन्हीं के कारण हम एक राष्ट्र बन सके."

साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित आइसलैंड के राष्ट्रीय कवि हॉल्डोर लाक्सनेस के मुताबिक आख्यानों में अलग अलग वर्गों में कोई फर्क नहीं दिखाया गया है. वह कहते हैं, "इसकी भाषा सुंदर और प्रभावशाली है. इसे पढ़ने में देश के सबसे पढ़े लिखे आदमी और साधारण से किसान या मछुआरे, सबको एक सा मजा आता है."

किसानों की मारामारी

बड़े हों या छोटे, सबके लिए इन गाथाओं में कहानियां हैं. ये सबसे पहले 13वीं और 14वीं सदी में लिखी गईं. पर आइसलैंड के लोग एक हजार साल से ये कहानियां सुनते सुनाते आ रहे हैं. इनसे पता चलता है कि कैसे उनके पूर्वज नॉर्वे से आए और इस देश में बसे. इन गाथाओं में वर्णन है कि हमेशा यहां सब शांतिपूर्ण नहीं रहा. किसानों में अक्सर लड़ाई हो जाती. यह कहानी 18वीं सदी में लिखी हुई मिली.

जर्मनी की कील यूनिवर्सिटी में स्कैंडेनेवियाई साहित्य और संस्कृति के प्रोफेसर क्लाउस ब्योल्ड्ल कहते हैं, "मुख्य तौर पर विवाद एक या ज्यादा पड़ोसियों के बीच होते. लड़ाई का मुद्दा या तो जमीन होती या गर्व को लगी ठेस. लेकिन लोग फिर से दोस्त बन जाते. पहले अक्सर ये संघर्ष खूनी हो जाते थे. गाथाओं के नायक कई बार मवाली या बदमाश के होते. लेकिन अक्सर चरित्र सोचने समझने वाले थे, जो मारने से पहले सोचते या जिन्हें अंधेरे से बहुत डर लगता. मशहूर नजेल की गाथा की कहानी बताती है कि कैसे समझदारी से खून के बदले खून की विरासत को खत्म किया जा सकता है."

क्लाउस ब्योल्ड्ल का मानना है कि इसके जरिए 13वीं सदी के यह लेखक दिखाना चाहते थे कि कोई समाज कैसे काम करता है. उस समय आइसलैंड के समाज में मध्य यूरोपीय देशों की तरह राजा या सामंत नहीं होते थे बल्कि एक जैसे स्तर वाले किसान ही थे.

विश्व साहित्य का अनुवाद

क्लाउस ब्योल्ड्ल उन तीन लोगों में शामिल हैं जिन्होंने आइसलैंड की इन गाथाओं का 15 अनुवादकों वाली टीम के साथ मिल कर जर्मन में अनुवाद किया और फिर उसे एस फिशर प्रकाशन की मदद से प्रकाशित किया. इस अनुवाद के साथ ही ब्योल्डल और उनके साथियों ने इन गाथाओं का यूरोपीय और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में मतलब समझाने की भी कोशिश की है. इसके लिए नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया की कला फाउंडेशन ने आर्थिक मदद की.

आश्चर्य की बात यह है कि जब 18वीं सदी में अर्नी माग्नुसन मूल प्रतियां लेने आइसलैंड गए तो उन्हें ये गाथाएं कमरे को गर्म रखने, तकियों में भरी हुई, कटी पिटी और जूतों में भरी हुई मिलीं. ऐसा इसलिए क्योंकि आइसलैंड में हाथ से लिखने की परंपरा काफी लंबी चली. लेकिन एक समय में आइसलैंड के लोग इतने गरीब थे कि उनके पास इसके अलावा कोई तरीका नहीं बचा था.

रिपोर्टः गाब्रिएला शाफ/आभा एम

संपादनः वी कुमार

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