आखिर किस उम्र में आती है मत बनाने की समझ?
२२ सितम्बर २०२०बात 2002 की है. शहर में दशहरे के पहली वाली गुलाबी ठंड फैल रही थी. कॉलेज का खूबसूरत पहला साल चल रहा था. पूरे दिल्ली विश्वविद्यालय में सालाना जलसों का मौसम था. अपने कॉलेज में "मिस्टर फ्रेशर" प्रतियोगिता की कई सीढ़ियों को पार कर मैं फाइनल राउंड में पहुंच चुका था. खिताब पाने के लिए अब बस एक सवाल का जवाब देना था. सवाल पूछा गया - "अगर आप प्रधानमंत्री बन जाएं, तो सबसे पहले कौन से तीन कदम उठाएंगे?"
अपने जवाब के बारे में बताने से पहले मैं थोड़ी भूमिका बांध दूं. पिछले राउंडों में मेरे प्रदर्शन पर जो तालियां पड़ी थीं उनसे मुझे अपनी लोकप्रियता का खासा गुमान हो चुका था. मैं अपनी कल्पना में खुद को 90 के दशक में आई हिंदी फिल्मों के उस हीरो की तरह देख रहा था जो या तो गले में "कूल" का लॉकेट पहने हुए या शर्ट उतार कर गिटार बजाते हुए कॉलेज के लड़कों-लड़कियों के बीच से गुजरता है और सभी की निगाहें बस उसी पर टिकी रह जाती हैं.
इसी फिल्मी चिलम के नशे में मैंने सवाल के जवाब में अपनी मनगढंत प्रधानमंत्री योजना के तीन बिंदु जजों और जलसे के माहौल में झूमती जनता के सामने - "अगर मैं प्रधानमंत्री बन गया तो सबसे पहले मैं पाकिस्तान पर बम गिरा दूंगा और दूसरा, बहुविवाह प्रथा को कानूनी वैधता दिला दूंगा." तीसरा वादा शायद पहले दोनों जितना वाहियात नहीं था, इसलिए वो अब मुझे याद नहीं.
मेरे जवाबों के स्तर से आपको मेरे उस समय के बौद्धिक स्तर का अंदाजा हो गया होगा. प्रतियोगिता के परिणाम से आप वहां मौजूद जनता के बौद्धिक स्तर का भी अंदाजा लगा सकते हैं, क्योंकि उन्हीं की तालियों और सीटियों की वजह से मिस्टर फ्रेशर मैं ही बना. इस घटना के करीब चार ही महीनों बाद मैंने उम्र के उस पड़ाव में कदम रखा जिसमें भारत में हर नागरिक को चुनावों में मतदान करने का अधिकार मिल जाता है.
प्रवासियों की मजबूरी
हालांकि पहली बार मतदान मैंने पांच साल बाद किया, जब मैं 23 साल का हो चुका था. पांच साल देर इसलिए नहीं हुई क्योंकि मुझे मतदान में रुचि नहीं थी, बल्कि इसलिए क्योंकि उससे पहले मेरे ही क्या, हमारे परिवार में किसी के भी पास मतदाता पहचान पत्र नहीं था.
भारत में अपने पूर्वजों की जमीन से उखड़ कर किसी दूसरी जगह पैर जमाने की कोशिश करते हुए हर प्रवासी की यही कहानी है. पहचान पत्र के लिए निवास का प्रमाण चाहिए होता है और एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे किराए के मकानों में भटकते प्रवासियों को यह प्रमाण नसीब नहीं हो पाता.
दिल्ली में 30 साल बिताने के बाद 2007 में मेरे पापा कुछ जुगत लगा कर अपना और परिवार में सबका मतदाता प्रमाण पत्र बनवाने में सफल रहे. 2008 में ही दिल्ली विधान सभा के चुनाव आ गए और मैंने बड़े उत्साह के साथ सभी पार्टियों के स्थानीय प्रत्याशियों के बारे में छान-बीन कर जीवन में पहली बार अपनी उंगली बैंगनी रंगवा ही ली और वोट डाल ही दिया.
जब मुझे पहली बार मतदान का मौका मिला था तब मुझे नौकरी करते हुए और पत्रकारिता में कदम रखे हुए करीब दो साल हो चुके थे. खबरों पर नजर बनाए रखने के चक्कर में समाज के बारे में थोड़ी बहुत समझ बन चुकी थी. घर के बड़ों के बीच राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर चर्चाएं सुनते सुनते थोड़ी बहुत राजनीति भी समझ आने लगी थी. कम से कम इतनी तो जरूर समझ में आ गई थी जिसकी मदद से मैं अपना राजनीतिक मत बना सकूं और उसके आधार पर मतदान कर सकूं.
बौद्धिक स्तर का सवाल
आज जब 18 साल से घटा कर 16 साल की उम्र में मतदान का अधिकार देने की बात हो रही है तो मैं खुद से यह पूछता हूं कि अगर उस समय मुझे वोट डालने का मौका मिलता तो क्या मैं उसके लिए तैयार था? क्या मुझमें उस समय इतनी समझ थी कि मैं सभी पार्टियों और उनके उम्मीदवारों के घोषणा पत्रों को समझ कर उनके बारे में अपनी राय बना सकूं और फिर उनमें से किसी एक को चुन लूं?
मैं उस उम्र में अखबार उठाता जरूर था, लेकिन सिर्फ मनोरंजन के पन्ने चाटने के लिए. रेडियो पर सिर्फ गाने सुनता था और टीवी से भी नाता सिर्फ धारावाहिकों और फिल्मों तक सीमित था. पापा जितनी देर समाचार देखते थे उतनी देर मैं बस इंतजार ही करता था कि कब बुलेटिन खत्म होगा और कब मुझे धारावाहिक लगाने का मौका मिल जाएगा.
लेकिन मैं अपना उदाहरण दे कर मतदान की न्यूनतम उम्र को 18 साल से ऊपर बढ़ाने की वकालत नहीं कर रहा हूं. मैं एक मध्यम-वर्गीय सवर्ण परिवार से आता हूं और राष्ट्रीय राजधानी जैसे बड़े शहर में पला बढ़ा हूं. भारतीय परिवेश में यह सभी विशेष सुविधाएं या प्रिविलेज हैं और इनके प्रभाव में अक्सर लोग समाज की बड़ी वास्तविकताओं से कट जाते हैं. 18 साल क्या, 28 से लेकर 88 साल तक के 33 प्रतिशत मतदाता अभी भी चुनावों में वोट डालना जरूरी नहीं समझते और मतदान के दिन को मुख्यतः छुट्टी के दिन की तरह देखते हैं.
वैज्ञानिक तरीके से ढूंढें समाधान
दूसरी तरफ देश के कई हिस्सों में ऐसे लोग भी हैं जिनकी कम उम्र में ही राजनीतिक समझ भी बन जाती है और मतदान तो क्या वो 25 साल का होते ही चुनाव लड़ने की महत्वाकांक्षा भी रखने लगते हैं. इसीलिए शायद 18 साल में ही मतदान का अधिकार मिल जाने की सही उम्र है. सिर्फ भारत में नहीं बल्कि अधिकतर देशों में यही प्रावधान है. लेकिन इस लकीर को और नीचे गिराना कहीं उपयोगी होने की जगह अनुत्पादक ना हो जाए.
चुनाव लड़ने वाले नेताओं और पार्टियों के लिए इससे ज्यादा सुविधाजनक कुछ और नहीं हो सकता कि उन्हें कड़ी कसौटियों पर ना परखा जाए और वे बस लोक-लुभावने वादे कर अपना काम निकाल लें. परिपक्व समझ के अभाव में मतदान केंद्र में घुसने वाला किशोर अपने मताधिकार का इस्तेमाल कहीं "पाकिस्तान पर बम" जैसे छिछले, तर्कहीन और खतरनाक वादों के प्रलोभन में आकर ना कर आए.
हालांकि यह पहेली वैज्ञानिक तरीके से हल करना बेहतर होगा. अगर वाकई मतदान की न्यूनतम उम्र 16 करनी है तो देश में अलग अलग पृष्ठभूमि के 16 साल के युवाओं का एक सर्वेक्षण कराना ठीक रहेगा, जिसमें अलग अलग समाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विषयों पर उनसे सवाल पूछे जाएं और फिर उनके जवाबों का स्वतंत्र सामाजिक वैज्ञानिकों के एक पैनल से मूल्यांकन कराया जाए. संभव है कि इस तरीके से यह बेहतर सामने आ सके कि भारत का 16 साल का युवा मताधिकार के लिए तैयार है या नहीं.
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