केंद्र सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ हो रहे विरोध के पीछे किसानों को यह डर है कि इनसे एमएसपी की व्यवस्था का अंत हो जाएगा. क्या होती है एमएसपी और क्यों किसान इसे अपने लिए इतना जरूरी मानते हैं?
विज्ञापन
न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी किसानों से उनका उत्पाद खरीदने के लिए सरकार द्वारा तय की गई कीमत है. इसका उद्देश्य है किसानों के लिए न्यूनतम लाभ सुनिश्चित करना जिससे उन्हें बाजार में होने वाली उथल पुथल की वजह से अपने उत्पाद को लागत से कम दाम पर बेचने के लिए मजबूर ना होना पड़े. भारत सरकार 23 कृषि उत्पादों के लिए साल में दो बार एमएसपी तय करती है.
इनमें सात अनाज (धान, गेहूं, जौ, ज्वार, बाजरा, मक्का और रागी), पांच दालें (चना, अरहर/तूर, उड़द, मूंग और मसूर), सात तिलहन और चार व्यावसायिक फसलें (कपास, गन्ना, खोपरा और जूट) शामिल हैं. एमएसपी कृषि मंत्रालय की एक समिति सीएसीपी तय करती है. इस समिति का पहली बार 1965 में गठन हुआ था और इसने पहली बार 1966-67 में हरित क्रांति के दौरान गेहूं का एमएसपी तय किया था.
मौजूदा कृषि मंत्री ने हाल ही में कहा कि एमएसपी का कोई वैधानिक आधार नहीं है. यह बात सही है. ना तो सीएसीपी किसी कानून के तहत बनी थी और ना ही एमएसपी किसी कानून के तहत दी जाती है. फिर भी भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था में कृषि का वजन देखते हुए इसे दशकों से हर सरकार ने एक प्रथा की तरह कायम रखा है.
कैसे तय होता है सरकारी दाम
दाम तय करते समय सीएसीपी जिन बातों का ध्यान रखती है उनमें 2009 में संशोधन किया गया था. इनमें मांग और आपूर्ति, उत्पादन लागत, आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतों की प्रवृत्ति, अलग अलग फसलों के बीच दाम की समानता, कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच व्यापार की शर्तें, उत्पादन लागत के ऊपर से न्यूनतम 50 प्रतिशत मुनाफा, और एमएसपी का उस उत्पाद के उपभोक्ताओं पर संभावित असर शामिल हैं.
दाम तय करने से पहले सीएसीपी केंद्रीय मंत्रालयों, एफसीआई, नाफेड जैसे सरकारी संस्थानों, सभी राज्य सरकारों, अलग अलग राज्यों के किसानों और विक्रेताओं के साथ बैठक करती है और बातचीत करती है. इन सबके आधार पर समिति कीमतों की अनुशंसा करती है और सरकार को अपनी रिपोर्ट भेजती है. उसके बाद आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति (सीसीईए) एमएसपी पर अंतिम निर्णय लेती है.
हालांकि अक्सर अपनी फसल के लिए सही दामों को लेकर किसानों की अपेक्षा और सरकार द्वारा तय की गई एमएसपी में फासला रह जाता है. सालों से इस फासले को कम करने की कोशिशें भी होती रही हैं. हरित क्रांति में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले प्रोफेसर एमएस स्वामिनाथन की अध्यक्षता में किसानों के लिए बने राष्ट्रीय आयोग ने 2004 से 2006 के बीच किसानों की कठिनाइयां कम करने के लिए कई प्रस्ताव दिए थे, जिनमें एक प्रस्ताव यह भी था की एमएसपी उत्पादन लागत से कम से कम 50 प्रतिशत ज्यादा हो.
क्या होती है उत्पादन की लागत
लेकिन उत्पादन की सही लागत के मूल्यांकन को लेकर मतभेद बना रहता है. किस किस तरह के खर्च को उत्पादन की लागत में शामिल किया जा रहा है एक बड़ा सवाल है. सीएसीपी के अनुसार लागत की तीन परिभाषाएं हैं - एटू, एटू+ एफेल और सीटू . एटू यानी बीज, केमिकल्स, भाड़े पर कराया गया श्रम, सिंचाई, खाद और ईंधन जैसी चीजों पर नकद और किसी वस्तु के रूप में किया गया हर तरह का खर्च.
एटू+ एफेल यानी ये सारा खर्च और उसके अलावा किसान के परिवार के सदस्यों द्वारा किए गए श्रम का मूल्य. सीटू का मतलब इन दोनों श्रेणियों में हिसाब में लिया गया सारा खर्च और उसके अलावा लीज पर ली गई जमीन का किराया और उस किराए पर ब्याज. इनमें एटू का मूल्य सबसे कम है, एटू+ एफेल का उससे ज्यादा है और सीटू का सबसे ज्यादा है. पिछले एक दशक से भी ज्यादा से एमएसपी तय करने के लिए एटू+ एफेल वाली परिभाषा का ही इस्तेमाल किया जा रहा है और उसमें उसके कुल मूल्य का 50 प्रतिशत और जोड़ कर एमएसपी तय की जा रही है.
किसान संगठन और कृषि एक्टिविस्ट लंबे समय से एमएसपी को सीटू+ 50 प्रतिशत करने की मांग कर रहे हैं. लेकिन अब इन नए कृषि कानूनों की वजह से यह सारी बहस ही निराधार हो जाएगी, क्योंकि जब निजी खरीददार किसानों से उत्पादों को सरकारी मंडियों के बाहर भी खरीद सकेंगे तो खरीद एमएसपी से नीचे के दाम पर ना हो सरकार यह सुनिश्चित नहीं कर पाएगी. इसलिए किसान डरे हुए हैं और मांग कर रहे हैं कि सरकार एमएसपी को कानूनी रूप से अनिवार्य कर दे.
भारत की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप में रही है लेकिन देश के बहुत से किसान बेहाल हैं. इसी के चलते पिछले कुछ समय में देश में कई बार किसान आंदोलनों ने जोर पकड़ा है. एक नजर किसानों की मूल समस्याओं पर.
तस्वीर: picture-alliance/dpa/P. Adhikary
भूमि पर अधिकार
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है. असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं. जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं. ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं.
तस्वीर: Getty Images/AFP/NJ. Kanojia
फसल पर सही मूल्य
किसानों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि उन्हें फसल पर सही मूल्य नहीं मिलता. वहीं किसानों को अपना माल बेचने के तमाम कागजी कार्यवाही भी पूरी करनी पड़ती है. मसलन कोई किसान सरकारी केंद्र पर किसी उत्पाद को बेचना चाहे तो उसे गांव के अधिकारी से एक कागज चाहिए होगा.ऐसे में कई बार कम पढ़े-लिखे किसान औने-पौने दामों पर अपना माल बेचने के लिए मजबूर हो जाते हैं.
तस्वीर: DW/M. Krishnan
अच्छे बीज
अच्छी फसल के लिए अच्छे बीजों का होना बेहद जरूरी है. लेकिन सही वितरण तंत्र न होने के चलते छोटे किसानों की पहुंच में ये महंगे और अच्छे बीज नहीं होते हैं. इसके चलते इन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और फसल की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
तस्वीर: Getty Images/AFP/N. Seelam
सिंचाई व्यवस्था
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती. इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है. उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र में सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है. इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है.
तस्वीर: picture alliance/NurPhoto/S. Nandy
मिट्टी का क्षरण
तमाम मानवीय कारणों से इतर कुछ प्राकृतिक कारण भी किसानों और कृषि क्षेत्र की परेशानी को बढ़ा देते हैं. दरअसल उपजाऊ जमीन के बड़े इलाकों पर हवा और पानी के चलते मिट्टी का क्षरण होता है. इसके चलते मिट्टी अपनी मूल क्षमता को खो देती है और इसका असर फसल पर पड़ता है.
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M. Swarup
मशीनीकरण का अभाव
कृषि क्षेत्र में अब मशीनों का प्रयोग होने लगा है लेकिन अब भी कुछ इलाके ऐसे हैं जहां एक बड़ा काम अब भी किसान स्वयं करते हैं. वे कृषि में पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल करते हैं. खासकर ऐसे मामले छोटे और सीमांत किसानों के साथ अधिक देखने को मिलते हैं. इसका असर भी कृषि उत्पादों की गुणवत्ता और लागत पर साफ नजर आता है.
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari
भंडारण सुविधाओं का अभाव
भारत के ग्रामीण इलाकों में अच्छे भंडारण की सुविधाओं की कमी है. ऐसे में किसानों पर जल्द से जल्द फसल का सौदा करने का दबाव होता है और कई बार किसान औने-पौने दामों में फसल का सौदा कर लेते हैं. भंडारण सुविधाओं को लेकर न्यायालय ने भी कई बार केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार भी लगाई है लेकिन जमीनी हालात अब तक बहुत नहीं बदले हैं.
तस्वीर: Anu Anand
परिवहन भी एक बाधा
भारतीय कृषि की तरक्की में एक बड़ी बाधा अच्छी परिवहन व्यवस्था की कमी भी है. आज भी देश के कई गांव और केंद्र ऐसे हैं जो बाजारों और शहरों से नहीं जुड़े हैं. वहीं कुछ सड़कों पर मौसम का भी खासा प्रभाव पड़ता है. ऐसे में, किसान स्थानीय बाजारों में ही कम मूल्य पर सामान बेच देते हैं. कृषि क्षेत्र को इस समस्या से उबारने के लिए बड़ी धनराशि के साथ-साथ मजबूत राजनीतिक प्रतिबद्धता भी चाहिए.
तस्वीर: DW/P. Mani Tewari
पूंजी की कमी
सभी क्षेत्रों की तरह कृषि को भी पनपने के लिए पूंजी की आवश्यकता है. तकनीकी विस्तार ने पूंजी की इस आवश्यकता को और बढ़ा दिया है. लेकिन इस क्षेत्र में पूंजी की कमी बनी हुई है. छोटे किसान महाजनों, व्यापारियों से ऊंची दरों पर कर्ज लेते हैं. लेकिन पिछले कुछ सालों में किसानों ने बैंकों से भी कर्ज लेना शुरू किया है. लेेकिन हालात बहुत नहीं बदले हैं.