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आखिर सारकेगुड़ा फर्जी मुठभेड़ का दोषी कौन है?

४ दिसम्बर २०१९

माओवादियों के खिलाफ युद्ध के नाम पर सुरक्षाबलों ने छत्तीसगढ़ में 2012 में 17 ग्रामीणों को मार गिराया था और बाद में इसे मुठभेड़ घोषित कर दिया था. इस मुठभेड़ की जांच करने के लिए गठित आयोग की रिपोर्ट में ये बात सामने आई है.

Indien Maoisten
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/M Quraishi

इस रिपोर्ट को सोमवार को छत्तीसगढ़ विधानसभा में रखा गया. फर्जी मुठभेड़ में मारे गए 17 लोगों में सात नाबालिग थे. सुरक्षाबलों में सीआरपीएफ और छत्तीसगढ़ पुलिस के जवान शामिल थे. 

घटना 28 और 29 जून 2012 के बीच की रात को बीजापुर और सुकमा जिलों के बीच सरकेगुडा, कोट्टागुडा और राजपेंटा नाम के तीन गांवों के बीच खुले मैदान में हुई थी. मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस वीके अग्रवाल के एक सदस्यीय जांच आयोग ने इसकी जांच की थी. जस्टिस अग्रवाल ने जांच रिपोर्ट में साफ लिखा है कि इसका कोई भी प्रमाण नहीं मिला है कि मारे गए लोग 'नक्सली' थे. सुरक्षाबलों की गोलीबारी अकारण थी और उन्होंने "अनुचित/अकारण और जानबूझकर घातक बल का उपयोग किया".

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि सुरक्षाबलों ने ग्रामीणों को बुरी तरह पीटा भी और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया. जांच आयोग ने यह भी पाया कि इस मामले में की गई छत्तीसगढ़ पुलिस की जांच दोषपूर्ण है और उसमें हेरा-फेरी हुई है. 

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रिपोर्ट के सार्वजनिक होने के बाद अब मांग की जा रही है कि अब जब मुठभेड़ फर्जी साबित हो गई है तो इसमें शामिल जवानों और अधिकारियों के खिलाफ केस दर्ज हो. इस मामले में इंसाफ हो, इस लक्ष्य के लिए लड़ रही वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की टीम की एक सदस्य ईशा खंडेलवाल ने डॉयचे वेले को बताया कि इस केस की अहमियत यह है कि छत्तीसगढ़ में सुरक्षाबलों पर फर्जी मुठभेड़ के आरोप पहले भी लगे हैं, लेकिन पहली बार न्यायिक जांच में ये साबित हुआ है. 

खंडेलवाल कहती हैं कि अब उनकी मांग है कि दोषी सुरक्षाबलों के खिलाफ कार्रवाई हो, इस मामले में निर्दोष ग्रामीणों के खिलाफ जो मामले दर्ज हुए थे वो खारिज हों और जो ग्रामीण मारे गए थे उनके परिवारों को कम से कम 10 से 15 लाख मुआवजा मिले.

छत्तीसगढ़ भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक है.तस्वीर: DW/A. Chatterjee

जांच आयोग की रिपोर्ट लगभग एक महीना पहले ही आ गई थी लेकिन सरकार इसे सार्वजनिक नहीं कर रही थी. जब पिछले हफ्ते रिपोर्ट लीक हो कर इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छप गई, तब राज्य सरकार को मजबूर हो कर उसे विधानसभा में पेश करना पड़ा.

2012 में जब ये हत्याकांड हुआ, उस समय छत्तीसगढ़ में बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की. तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम की देखरेख में लाल गलियारे के नाम से मशहूर माओवाद प्रभावित इलाकों में सुरक्षाबलों का विशेष अभियान चल रहा था. अनुमान है कि अभियान के चरम पर अलग अलग फोर्स के तीन लाख से भी ज्यादा जवान माओवादियों के खिलाफ इस अभियान में लगे हुए थे. 

इस हत्याकांड के तुरंत बाद ही इसकी आलोचना शुरू हो गई थी. ग्रामीणों ने जब इसे फर्जी मुठभेड़ बता कर विरोध करना शुरू किया तो उस वक्त प्रदेश में विपक्ष की भूमिका निभा रही कांग्रेस ने भी इस मुद्दे को उठा लिया और पार्टी की एक फैक्ट फाइंडिंग समिति का गठन किया. समिति ने भी पाया कि मुठभेड़ फर्जी थी और सुरक्षाबलों ने आम ग्रामीणों की हत्या की थी.

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार सोनी कहते हैं कि बस्तर में इस तरह निर्दोषों को माओवादी बता कर मुठभेड़ में मार देने का सिलसिला लंबे समय से चल रहा है. सोनी कहते हैं कि सुरक्षाबलों के जवानों के खिलाफ कार्रवाई की मांग उठ रही है लेकिन असली जवाबदेही उन सभी अधिकारियों की बनती है जिन्होंने इस तरह की मुठभेड़ों के आदेश दिए.

सोनी सारकेगुड़ा जांच आयोग और अन्य जांच आयोगों की भी एक कमी की तरफ इशारा करते हैं. वह कहते हैं, "जांच आयोग सामान्य तौर पर जांच के निष्कर्ष बता देते हैं और भविष्य में क्या करना चाहिए ये अनुशंसाएं दे देते हैं, लेकिन ये नहीं बताते कि घटना के लिए मोटे तौर पर जिम्मेदार कौन है".

सारकेगुड़ा जांच आयोग की रिपोर्ट में भी यही कमी है. मुठभेड़ फर्जी थी, ये तो कह दिया गया है लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है और उसके खिलाफ क्या कार्यवाई होनी चाहिए यह नहीं बताया गया है. 

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