"हिटलर केवल यहूदियों को यूरोप से निकाल बाहर करना चाहता था, उन्हें मारना नहीं, मारने का आइडिया तो येरुशलम के ग्रैंड मुफ्ती ने दिया था." अलेक्जांडर कुदाशेफ का कहना है कि ऐसे बयान से नेतन्याहू विवाद को बढ़ावा दे रहे है.
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मध्य पूर्व में स्थिति 'तनावपूर्ण' से कहीं ज्यादा गंभीर है, खास कर इस्राएल और फलीस्तीन के बीच. और यह बिगड़ती ही जा रही है. युवा फलीस्तीनी इस्राएलियों पर अंधाधुंध हमले कर रहे हैं, सेना हर मुमकिन तरीकों से जवाब दे रही है. इस्राएली नेताओं और सेना के लिए सबसे बड़ी प्राथमिकता अपने नागरिकों की सुरक्षा है.
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी ने बर्लिन में जर्मन सरकार के साथ मिलकर मध्य पूर्व की स्थिति को सुधारने की बहुत कोशिश की. लेकिन क्या वे इसमें सफल हुए? कोई भी यह दावा करने की हिम्मत नहीं करता. क्योंकि बेन्यामिन नेतन्याहू के बर्लिन आने से पहले भी यह बात साफ थी कि इस्राएली प्रधानमंत्री राजनीतिक रूप से कितने घबराए हुए हैं. उन्होंने यह दावा कर दिया कि फलीस्तीन के सबसे बड़े मुफ्ती हज अमीन अल-हुसैनी ने 1940 के दशक में अडोल्फ हिटलर को यहूदियों को मारने के लिए उकसाया. नेतन्याहू की मानें तो हिटलर का इरादा सिर्फ यहूदियों को निकाल बाहर करने का था, मारने का नहीं.
तो क्या ग्रैंड मुफ्ती यहूदियों से नफरत करते थे? जी हां, बिलकुल. लेकिन हिटलर तो खुद अपनी किताब "माइन काम्प्फ" में अपनी यहूदी विरोधी भावनाओं के बारे में लिख चुका था. वह नियोजित तरीके से जर्मनी और यूरोप में यहूदियों का कत्ल करना चाहता था. अपनी योजनाओं को अमल में लाने के लिए वह खुद जिम्मेदार था. फिर चाहे वह आउश्वित्स, त्रेबलिंका और मायदानेक के यातना शिविर हों, या फिर बेर्गेन बेलसेन, बूखेनवाल्ड या वारसा में बनाई गयी यहूदी बस्तियां. हिटलर को ना तो मुफ्ती की मदद की जरूरत थी और ना हौसला अफजाही की.
इस्राएली प्रधानमंत्री भी यह बात अच्छी तरह जानते हैं. इसलिए उन्होंने इतिहास के पन्नों से यह घातक तुलना एक अलग कारण के चलते की है. वे मुफ्ती से लेकर फलीस्तीन के मौजूदा राष्ट्रपति महमूद अब्बास तक एक लकीर खींच रहे हैं. वे दिखाना चाह रहे हैं कि यहूदी विरोधी भावना अब इस्राएल के खिलाफ पनप रही है. बहुत से इस्राएली भी यही मानते हैं. इसलिए उनके दृष्टिकोण से बातचीत और समझौते की कोई गुंजाइश ही नहीं है. इस तरह से नेतन्याहू खुद ही आग में घी डालने का काम कर रहे हैं और मध्य पूर्व में शांति बहाली की छोटी सी उम्मीद को भी जिंदा नहीं रहने दे रहे हैं.
होलोकॉस्ट की भयावहता को दर्शाती कला
होलोकॉस्ट के वक्त जीना एक सतत संघर्ष था. कितने ही लोग यातना शिविरों में सताए गए और कितने ही इसके डर से छिप कर जीवन जीने को मजबूर थे. अंडरग्राउंड जीवन बिताते हुए कुछ लोगों ने उन बुरी यादों को कला के रूप में उकेरा.
तस्वीर: Staatliches Museum Auschwitz-Birkenau in Oœwiêcim
भूले बिसरे कलाकार
नाजियों द्वारा यातना शिविरों में डाले गए कई कलाकार विश्व प्रसिद्ध हुए. वहीं यातना शिविर में रहते हुए पेंटिंग करने वाले वाल्डेमार नोवाकोव्स्की (तस्वीर में) जैसे कई कलाकार विस्मृत भी हो गए. ऐसे ही गुनाम रहे कई कलाकरों की कृतियां 27 जनवरी 2015 से जर्मन संसद में शुरु हुई प्रदर्शनी का हिस्सा बनी हैं.
तस्वीर: Staatliches Museum Auschwitz-Birkenau in Oœwiêcim
खौफ को उकेरते
लेखक, क्यूरेटर और इतिहासकार युर्गेन काउमकोएटर ने करीब 15 साल तक होलोकॉस्ट आर्ट पर शोध किया. उनका ध्यान केवल पेंटिंग पर ही नहीं, बल्कि कला के ऐसे किसी भी रूप पर था जिससे उस काल की घटनाओं के बारे में पता चलता हो. लियो हास की उकेरी हुई इस कलाकृति में 1947 के थेरेसिएनश्टाट यातना शिविर की एक तस्वीर दिखती है.
तस्वीर: Bürgerstiftung für verfolgte Künste – Else-Lasker-Schüler- Zentrum – Kunstsammlung Gerhard Schneider
'कैंप म्यूजियम' के लिए पेंटिंग
थेरेसिएनश्टाट में कलाकारों का अपना 'कैंप म्यूजियम' हुआ करता था. थेरेसिएनश्टाट कैंप में कलाकारों को पेंसिलें, ब्रश और कागज दिए जाते थे, जिससे वे नाजियों से मिला काम पूरा कर सकें. बाकि कृतियां वे छिप कर बनाया करते थे. तस्वीर में देखें, 1943-44 के बीच मारियान रुत्सामस्की की बनाई एक सेल्फ पोर्ट्रेट.
तस्वीर: Staatliches Museum Auschwitz-Birkenau in Oœwiêcim
गवाह थे जो कलाकार
येहूदा बाकन (तस्वीर में दाएं) 1942 में केवल 13 साल की उम्र में थेरेसिएनश्टाट कैंप पहुंचे. दिसंबर 1943 में उन्हें आउशवित्स-बिरकेनाउ भेजा गया, जहां उन्हें एक मेसेंजर का काम दिया गया. इसके अलावा उन्हें जाड़ों में शवदाहगृह की भठ्ठी से खुद को गर्म रखने की अनुमति मिली थी. युद्ध के बाद अपनी कई तस्वीरों में उन्होंने अपने आंखों देखें दृश्यों का ब्यौरा दिया.
तस्वीर: Bürgerstiftung für verfolgte Künste – Else- Lasker-Schüler-Zentrum – Kunstsammlung Gerhard Schneider
मौत का प्रतीक
येहूदा बाकन की कई कृतियों में आउशवित्स को साफ साफ नहीं दिखाया गया. फिर भी शवदाहगृह की चौकोर चिमनियों और लोगों की छाया देखकर समझा जा सकता था कि उन्होंने किस खूबी से गैस चैंबर में मारे गए लोगों की कहानी कही है.
तस्वीर: Yehuda Bacon
दूसरी पीढ़ी
मिषेल किषका इस्राएल के एक प्रभावशाली कॉमिक इलस्ट्रेटर हैं. अपने 'दूसरी पीढ़ी' नाम के एक ग्राफिक उपन्यास में उन्होंने आउशवित्स के पीड़ित अपने पिता के साथ अपने संबंधों का ब्यौरा दिया है. बचपन से ही उन्हें पिता के झेले दर्दनाक अनुभव जानकर काफी सदमा लगा था. पिता ने ही बाद में शिविर के बारे में हल्की फुल्की बातें कर किषका की दहशत को कम करने की कोशिश की.
तस्वीर: Egmont Graphic Novel
होलोकॉस्ट के कई रूपक
इस्राएली कलाकार सिगालिट लांडाउ के माता पिता होलोकॉस्ट से बचकर निकलने वालों में से थे. आउशवित्स में लंबा समय बिताने वाले येहूदा बाकन उनके कला शिक्षक थे. लांडाउ आज भी एक कलाकार और प्रोफेसर के रूप में इस्राएल में काफी सक्रिय जीवन बिता रही हैं. उनकी कला में रूपकों का काफी महत्व है. जैसे कि यहां दिख रहे जूते जो कि आउशवित्स की स्थाई प्रदर्शनी में दिखाए गए जूतों के ढेर वाली कृति से प्रेरित हैं.
तस्वीर: Sigalit Landau
मौत के साथ सब खत्म नहीं होता
सिगालिट लांडाउ ने इस्राएल से सैकड़ों जूते इकट्ठे किए और फिर उन्हें डेड सी में डुबो कर रखा. डेड सी में जूतों के ऊपर नमक की कई पर्तें जम गईं जो कि मौत के बाद जीवन का एक रूपक है. इस कृति से वह यही संदेश देना चाहती हैं कि हताशा को पार कर उम्मीद का दामन पकड़ना चाहिए.