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आचार संहिता पर चुनौतियों से जूझता चुनाव आयोग

शिवप्रसाद जोशी
३ अप्रैल २०१९

भारतीय चुनावों में आचार संहिता का पालन सुनिश्चित कराना चुनाव आयोग के लिए हमेशा ही टेढ़ी खीर रहा है. हाल के वर्षों में तो हालात और विकट हुए हैं जब आयोग भी पसोपेश और कई तरह के दबावों में फंसा पाया गया है.

Wahlen in Indien 2014
तस्वीर: A.K Chatterjee

चुनाव आयोग ने राजस्थान गवर्नर कल्याण सिंह को आचार संहिता तोड़ने का दोषी मानते हुए राष्ट्रपति को सूचित किया है. इन चुनावों में आयोग की ये पहली बड़ी कार्रवाई मानी जा सकती है, हालांकि कई मामलों में उसकी कमजोरियां उजागर हुई हैं. आयोग की सख्ती के उदाहरण भी मिलते रहे हैं और देखा गया है कि अगर आयोग पर, सरकार की परोक्ष नियंत्रण रखने की इच्छा कुलबुलाती न रहे तो वो एक स्वतंत्र संस्था के तौर पर लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक सशक्त प्रतीक बना रह सकता है.

मौजूदा लोकसभा चुनावों में भी चुनाव आयोग को आचार संहिता की याद दिलाते रहने के लिए ऐड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है. लेकिन नेता और राजनैतिक दल हैं कि कभी जानते बूझते तो कभी कथित बेख्याली में संहिता की अनदेखी कर रहे हैं. ऐसा ही एक मामला पुलवामा हमले, बालाकोट पर भारतीय वायु सेना की स्ट्राइक और वायु सेना अधिकारी अभिनंदन की गिरफ्तारी और रिहाई के बाद भी देखा गया. लेकिन चुनावी तारीखें घोषित हुईं तो आचार संहिता भी अमल में आ गई और आयोग को जोर देकर कहना पड़ा कि पोस्टरों बैनरों और भाषणों में अभिनंदन के नाम का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा.

ये बात अलग है कि सेना के ‘शौर्य' को जबतब अपने भाषणों में बीजेपी नेता भुनाने की कोशिश करते देखे गए. और विरोधियों पर ‘पाकिस्तानपरस्ती' और ‘सबूत-सपूत' जैसे शब्द प्रयोगों से हमला करते रहे. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने भारतीय सेना को ‘मोदी की सेना' करार दिया. इसे लेकर पूर्व सैन्य अधिकारियों ने कड़ी आपत्ति भी जताई. पिछले ही दिनों एक और मामला चुनाव आयोग के लिए इम्तहान बन कर आया जब राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह न सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ करते पाए गए बल्कि बीजेपी को जिताने की अपील भी की. शिकायत मिलने पर आयोग ने जांच कराई और माना कि कल्याण सिंह ने संवैधानिक पद पर रहते हुए आचार संहिता तोड़ी है.

सहमति का दस्तावेज

असल में आदर्श चुनावी आचार संहिता एक सहमति का दस्तावेज है. राजनीतिक दल खुद इस पर राजी हुए हैं कि वे चुनाव के दौरान अपने तौर तरीकों पर नियंत्रण रखेंगे और संहिता के दायरे में काम करेंगे. संहिता के मुताबिक उम्मीदवारों और दलों को अपने विरोधियों और विपक्षी उम्मीदवारों के प्रति सदाशयता और आदर रखना चाहिए, नीतियों और कार्यक्रमों की रचनात्मक आलोचना होनी चाहिए और विरोधी पर कीचड़ उछालना या व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप नहीं होना चाहिए. सार्वजनिक नैतिकता और सबको समान अवसर की अपेक्षा संहिता के तहत की गई है.

तस्वीर: dapd

सत्ताधारी दल के लिए तो ये और भी जरूरी है वरना वो चुनावी फायदा उठाने में हमेशा आगे रहेगा. सरकारों पर चुनाव के मौकों पर आचार संहिता की अनदेखी के आरोप लगते रहे हैं. इन आरोपों को आयोग ने बहुत गंभीरता से शायद ही लिया है. इसका ताजा उदाहरण सैटेलाइट भेदने वाली मिसाइल निर्माण की वैज्ञानिक उपलब्धि का है जिसमें आदर्श स्थिति तो ये होती कि इसरो या कोई शीर्ष रक्षा वैज्ञानिक इस बारे में मीडिया को संबोधित करता. लेकिन आयोग ने जांच में पाया कि मोदी ने प्रधानमंत्री की हैसियत से अपना संदेश दिया न कि सत्ताधारी दल के पीएम पद के उम्मीदवार रूप में.

विवादों भरा इतिहास

देश मे चुनावी आचार संहिता का एक लंबा, विकट और विवादों भरा इतिहास रहा है. 1960 में विधानसभा चुनावों में आचार संहिता लागू करने वाला केरल देश का पहला राज्य था. प्रयोग के तौर पर शुरू की गई ये कोशिश सफल रही और चुनाव आयोग ने केरल के उदाहरण को 1962 के चुनावों में उतारा. लेकिन औपचारिक रूप से आदर्श चुनावी आचार संहिता 1974 में जारी हो पाई. और 1977 के संसदीय चुनावों में इसे वितरित कर दिया गया. तब तक ये संहिता में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के आचार तक ही सीमित थी. लेकिन आगे चलकर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का मुद्दा सामने आया तो आयोग ने 1979 में संशोधित आचार संहिता जारी की. इसके बाद कई मौकों पर संहिता में संशोधन और बदलाव किए जाते रहे. 2001 में ये व्यवस्था बनाई गई कि चुनाव तारीखों के ऐलान के साथ ही आचार संहिता प्रभावी मानी जाए. 2013 में सोशल मीडिया के इस्तेमाल को लेकर हिस्से जोड़े गए. आखिरी बार 2014 में संशोधन हुआ जब आयोग ने घोषणापत्रों पर आठवां खंड इसमें जोड़ दिया.  

बाज मौकों पर चुनाव आयोग अपनी सख्ती और साहस के लिए भी याद किया जाता है. टीएन शेषन और जेएम लिंगदोह जैसे पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों के कार्यकाल तो इसके उदाहरण बने ही थे. 2014 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त वीएस संपत ने बीजेपी नेता अमित शाह और समाजवादी पार्टी नेता आजम खान को यूपी में चुनाव प्रचार करने पर रोक लगा दी थी. शाह तो माफी मांगकर बच निकले लेकिन आजम खान अड़े रहे लिहाजा प्रचार नहीं कर पाए. उसी दौरान वाराणसी में संवेदनशील क्षेत्र में बीजेपी के पीएम पद के उम्मीदवार मोदी की रैली पर आयोग ने रोक लगाने का आदेश दिया लेकिन आयोग की किरकिरी भी हुई जब मोदी के खिलाफ गुजरात में वोटिंग के दौरान आचार संहिता के उल्लंघन का मामला खारिज हो गया. वो वोट देकर बाहर निकले, पोलिंग बूथ के पास भाषण दिया और इस दौरान पार्टी का निशान अपने कुर्ते की ऊपरी जेब पर चिपकाए रहे.

असल में चुनाव जिस तरह से सघन और कड़ी प्रतिस्पर्धा और सत्ता और वर्चस्व की लड़ाई का माध्यम सा बन गए हैं, इन विकट परिस्थितियों में चुनाव आयोग जैसी संस्था की विश्वसनीयता, साहस, पारदर्शिता और संवैधानिकता की कड़ी परीक्षा भी है. देखा जाए तो लोकतांत्रिक व्यवस्था चुनावी प्रक्रिया की काबिलियत पर टिकी हुई है. चुनाव आयोग साहसयुक्त और दबावमुक्त होकर चुनाव कराता रह सके, एक संस्था के रूप ये उसकी साख या विश्वसनीयता का सवाल ही नहीं है, लोकतांत्रिक मूल्यों की हिफाजत और मजबूती का भी ये एक बड़ा सवाल है.

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